Thursday, January 21, 2010

एमबीए मेला




पिछले दो दशकों में एमबीए सर्वोपरि प्रोफेश्नल कोर्स बनकर उभरा है। समय व बिजनेस की जरूरतों के हिसाब से एमबीए पाठयक्रम में भी नित नए प्रयोग व विस्तार हुए हैं। कुल मिलाकर एमबीए सफलता पाने की वो सीढ़ी है जिसे आज हर भारतीय युवा किसी भी कीमत पर चढ़ना चाहता है। ये भी कहा जा सकता है कि विज्ञापन व शोशेबाजी के चलते आज हर युवा एमबीए के बिना अपने आपको अपूर्ण समझता है। बाजार से जुड़ी हर जरूरत के हिसाब से एमबीए उपलबध है। आज देश में हजारों ऐसे छोटे-बड़ें (छोटे व दबड़ेनुमा ही अधिक है) कालेज व संस्थान हैं, जो लाखों युवाओं को एमबीए की पढ़ाई करवा रहे हैं। देश में पहले से ही एमबीए डिग्रीधारकों की अच्छी खासी तादाद मौजूद है। विडंबना यह है कि एमबीए की पढ़ाई और बाजार में उपलब्ध रोजगार के मध्य अर्थशास्त्र के डिमांड एण्ड सप्लाई फार्मूले में कहीं न कहीं समानता नजर आती है। लेकिन जिस गति से हर साल एमबीए डिग्री धारक युवाओं की फौज सिर पर खड़ी हो रही है। उससे तो देश में एमबीए डिग्रीधारकों का एक मेला-सा दिखाई देता है। एमबीए में दाखिला लेने के लिए मेला, डिग्री पाने के लिए मेला, और एमबीए करने के बाद अगरं ढंग की नौकरी न मिले तो बेरोजगारों के मेले में शामिल हो जाओ। सार यह है कि एमबीए से पहले और बाद में मेला ही मेला है। एमबीए का पहला अक्षर ‘एम’  शायद मेले का ही प्रतीक है।
ये कोई मजाक नहीं, वो कड़वी हकीकत है, जिससे आज हर दूसरा भारतीय युवा जूझ रहा है। शिक्षा मंदिरों की नाम पर खुली दुकानों पर सबसे अधिक बिकने वाला उत्पाद या माल एमबीए है। देश के महानगरों, शहरों व दूर-दराज के कस्बों में खुले ये मुर्गीखाने स्टाइल एक दो कमरे के कालेज युवाओं के सपने इतने बड़े दिखाते हैं कि उन्हें रखने में आकाश भी कम पड़ जाए। ये तथाकथित संस्थान छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। युवा एमबीए की मृगतृष्णा में मां-बाप का पैसा, अपनी ऊर्जा, व बहुमूल्य समय बर्बाद कर रह हैं। चार सेमस्टरों के बाद एमबीए की डिग्री हाथ में थामकर जब उनकी मुलाकात जमीनी हकीकत से होती है। तब वो खुद को चने के झाड़ से गिरा पाते हैं।
बाजारवादी ताकतों ने षिक्षा के मंदिरों को शुद्ध व्यावासयिक दुकानों में बदल दिया है। षिक्षा माफिया, बैंक, कारपोरेट जगत ये सभी मौसेरे भाई ही हैं। तीनों मिलकर युवाओं को छल रहे हैं। अगर पिछले एक दशक के रिकार्ड के हिसाब से सर्वे करवाया जाए तो देश में कई लाख युवाओं ने विभिन्न संस्थानों से एमबीए की डिग्री हासिल की होगी। युवाओं ने जितना समय, ऊर्जा व पैसा (लोन लेकर) एमबीए में निवेश किया होगा, क्या डिग्री हासिल करने के बाद उस अनुपात में उनको रिकवरी मिल रही है या नही। आज शिक्षा ज्ञान, अनुशासन, या एक अच्छा नागरिक बनने के लिए नहीं बल्कि एक बढ़िया कमाऊ नौकरी पाने की गरज से की जाती है। और अगर इन्वेस्टमेंट के हिसाब से रिकवरी न मिले तो सौदा घाटे का ही रहा न।
कुछ गिने-चुने नामी संस्थानों के छात्रों को छोड़कर अन्य कालेजों के छात्रों को मामूली नौकरी ढूंढने के लिए भी अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ती है। इस प्रोफेशनल कोर्स में सबसे भद्दा मजाक कैम्पस स्लेकशन के नाम पर होता है। लेकिन अपने दिल का दर्दे कोई कैसे किसी से बयान करे। सभी एक ही गाड़ी में सवार है। युवाओं को यह भय सताता है कि दोस्त-यार, नाते-रिशतेदार मजाक उडाएंगे कि एमबीए करने के बाद भी एक बढ़िया नौकरी के लिए धूल छाननी पड़ रही है। एक और खास बात है ये तथाकथित कालेज स्पेशलाइजन के नाम पर मोटी फीस छात्रों से वसूलते हैं। और डिग्री पाने के बाद स्पेशइजलन के ज्यादा मायने नहीं बचते हैं। स्पेजलाइजेशन चाहे कोई भी हो मार्केंटिग की नौकरी के दरवाजे सभी के लिए हमेशा  खुले मिलते हैं। और यही बाजार की असलियत भी है कि ज्यादा से ज्यादा पढ़े लिखे मार्किटिंग के बन्दे तैयार किए जा सके जो घूम-घूम कर माल बेच सकें। कैरियर स्टार्ट करने की गरज से  युवा मार्केटिंग की नौकरी ज्वाइन तो कर लेते हैं लेकिन गला काट प्रतियोगिता के युग में उनकी हिम्मत छह महीन ये एक साल के अंदर ही टूट जाती है। और एमबीए डिग्रीधारक धूम फिर कर अपने पुशतैनी काम धंधे या किसी और रोजगार में अपना भविष्य तलाशने लगते हैं। ये तल्ख हकीकत है और इस हकीकत से काफी लोग वाकिफ भी हैं। बावजूद इसके एमबीए का जादू सबके सिर चढ़कर बोल रहा है। इन तथाकथित कालेजों में से अधिकतर संस्थान न तो मान्यताप्राप्त हैं और न ही सरकार द्वारा निर्धारित मापदण्डों पर खरे उतरते हैं। लेकिन ‘जुगाड़बाजी’ व ‘सुविधाशुल्क’ के चलते ये संस्थान युवाओं को हाई-फाई सपने दिखाकर मोटी-मोटी फीसे वसूलते रहते हैं। उन्हें किसी के भविष्य के बनने या बिगड़ने की परवाह नहीं है। ये तो शिक्षा की दुकाने है कीमत चुकाओं और भारी-भरकम डिग्री ले जाओ।
हमारे देश में रोजगार के साधनों की कोई कमी नहीं है, वही पारंपरिक कोर्सेज व पुशतैनी काम-धंधों के लिए भी आज देषी-विदेशी बाजार में अपार संभवानाएं खुली हुई हैं। जरूरत है तो एमबीए के भूत को सिर से उतारने की। क्योंकि आज युवाओं को लगने लगा है एमबीए के बिना  उनकी जिंदगी अधूरी है। व्यक्तित्व विकास के लिए एमबीए जरूरी है, इस सोच को बदलने की जरूरत है। इतिहास पर नजर दौड़ा कर देखिए दर्जनों ऐसे उदाहरण अपने आस-पास मिल जाएंगे जिन्होंने असाधरण प्रतिभा का प्रदर्शन कम साधनों, सुविधाओं और बिना किसी स्कूली शिक्षा के किया है। पढ़ाई जरूर करिए, किसी अच्छे संस्थान में मौका मिले तो एमबीए भी जरूर करिए। लेकिन दूसरों की देखा-देखी केवल डिग्री पाने के मकसद से तथाकथित कालेजों व संस्थानों के लगाए मेलों में शामिल  होने से पहले यह जरूर सोचिए कि ये रास्ता जाता कहा हैं। युवाओं को अपनी अंदर छिपी क्षमता को समझना, जानना व पहचानना होगा........अन्यथा मेले घूमने में ही सारी जिंदगी बीत जाएगी।

Tuesday, January 19, 2010

दिल तो बच्चा है जी.......

दिल पर दो कौमों ने ही सर्वाधिक प्रयोग व अनुसंधान किए हैं, एक डाक्टरों की बिरादरी ने और दूसरे फिल्म इण्डस्ट्री की नये-पुराने गीतकारों ने। दिल को मद्देनजर रखकर जो प्रयोग हमारे गीतकारों ने किए हैं उतने तो दुनिया भर के डाक्टर भी अभी तक कर नहीं पाए हैं। गीतों के बोल कल्पना के पंख लगाकर वहां   तक पहुंच जाते हैं जहां बड़े से बड़ा ‘हार्ट सर्जन’ भी पहुंच नहीं पाता है। इस साल का नया-नवेला, गर्मा-गर्म ‘दिली तोहफा’ हम सबको को मशहूर व बुजुर्ग गीतकार गुलजार साहब ने दिया है..................दिल तो बच्चा है जी। प्रसिद्व निर्माता-निर्देशक विशाल भारद्वाज की शीघ्र रिलिज होने वाली फिल्म ‘इश्किया’ के लिए एक से एक उम्दा गाने लिखकर गुलजार साहब ने सबको एक बार फिर झूमने के लिए मजबूर कर दिया है। गुलजार साहब के लिखे इस गाने को मशहूर पाकिस्तानी गायक उस्ताद राहत फतेह अली खां ने अपनी मखमली आवाज से सजाया है।

गीत के बोल हम सबको एक बार फिर ये सोचने के लिए मजबूर कर देता है कि दिल थोड़ा बच्चा होने के साथ-साथ कच्चा भी होता है। दिल के आगे तो बड़े-बड़े बादशाह भी हार गए इतिहास इसका साक्षी है। विशाल मेरठ से ताल्लुक रखते हैं। उनकी पिछली फिल्में ‘ओमकारा’, ‘कमीने’ में लोग उनकी प्रतिभा का लोहा मान चुके हैं। विशाल  की फिल्में खुद उनकी पृष्ठभूमि पश्चमी उत्तर प्रदेश के इर्द-गिर्द घूमती हैं, और विशाल अपने अंदर रचे-बसे उस माहौल व परिवेश को सिल्वर स्क्रीन पर बखूबी फिल्माते भी हैं। ‘इश्किया’ का ताना-बाना भी पश्चमी उत्तर प्रदेश के मस्त व ‘खाओ-पीओ और ऐश करो’ के माहौल पर ही आधारित जान पड़ता है। फिल्म की स्टोरी तो मुझे मालूम नहीं है, लेकिन ‘प्रोमो’ देखकर तो यही लगता है कि विशाल की इश्किया से जनता को इशक  जरूर होगा।

सच हम सबका दिल बच्चा ही तो है..............पता नहीं किसका दिल कब किस पर आ जाए......... मचल जाए.........पसीज जाए.......कमीना हो जाए। दिल को काबू में रखने के लिए ही साधु-संत भी एकांत में धूनी रमाते हैं, क्योंकि दिल तो बच्चा है जी..........पता नहीं कब भटक या मटक जाए। दिल को लेकर न जाने कितने गाने लिखे जा चुके है और न जाने कितनी फिल्मों के टाइटल दिल के आगे-पीछे ही घूमते हैं। लेकिन दिल से न तो फिल्मकार व गीतकार ऊबते हैं और न ही दर्शक। क्योंकि दिल है ही ऐसी चीज। गरीब-अमीर, छोटे-बड़े से जुड़ा दिल शायद बच्चा ही होता है। इसलिए दिल पर फिल्में बनाई जाती है, गाने लिखे जाते हैं और दर्शक भी उन्हें उतनी ही इज्जत-मान देकर दिल में जगह देते हैं। क्योंकि दिल तो हम सबके अंदर धड़कता है। गाने के बोल बड़े प्यारे हैं, सुनकर ऐसा नही लगता है कि किसी बुजुर्ग गीतकार ने इन्हें लिखा होगा। असल में तो गीतकार का दिल भी बच्चा ही है उम्र का दिल से क्या लेना-देना। हिन्दी सिनेमा को ये नायाब तोहफा देने के लिए गुलजार साहब को शुक्रिया। अब आप भी मेरे साथ-साथ दिल से गुनगुनाइये...........

ऐसी उलझी नजर उनसे हटती नहीं
दांत से रेशमी डोर कटती नहीं


उम्र कब की बरस के सफेद हो गई
कारी बदरी जवानी की छंटती नहीं


वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है
चेहरे की रंगत उड़ने लगी है


डर लगता है तन्हा सोने में जी


दिल तो बच्चा है जी-2
थोड़ा कच्चा है जी