Thursday, August 05, 2010

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक दायित्व भी है

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बताया गया है। इस कथन से इस बात का स्पष्ट संकेत मिल जाता है कि लोकतंत्रीय ढांचा मात्र कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के सहारे स्थिर नहीं रह सकता है, बल्कि इस दांचे  को स्थायित्व प्रदान करने के लिए समाचार जगत जिसे ‘प्रेस’ शब्द से जाना जाता है, का सहयोग भी जरूरी है। प्रेस को यह सम्मान इसलिए दिया गया कि यह एक सजग प्रहरी के रूप में समाज के सभी वर्गों की आवाज को शासकदल तथा अन्य लोगों तक निष्पक्ष ढंग से पहुंचाता रहा है। प्रेस इस भूमिका में किस सीमा तक खरा उतरा, यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन इसमें कभी भी दो राय नहीं हुई कि प्रजातंत्रीय शसन व्यवस्था को सही दिशा देने में प्रेस ने समूचे विश्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लेकिन जब प्रेस अपने परम पुनीत उद्देष्य से भटककर पीत पत्रकारिता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने लगे तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को राजनीतिक दीमक लग गई है और वो किसी दल या संगठन विशेष का मुखपत्र बन चुका है। ताजा प्रकरण जौनपुर उत्तर प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अंबेडकर टुडे’ से जुड़ा है। पत्रिका के मई अंक में हिन्दू धर्म, वेद, मंदिर, उपनिषद, हिन्दू ग्रंथ, धर्मशास्त्र,  रामायण, ईश्वर, 33 करोड़ देवी देवता, सृष्टिकर्त्ता ब्रह्म, ज्योतिष, वैदिक युग, ब्राह्मण, राष्ट्रपिता गांधी, और मीडिया के बारे में जो कुछ लिखा है वो देश विदेश में बसे करोड़ों हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस तो पहुंचाता ही है वहीं पत्रकारिता के महान उद्देष्यों को कलंकित व तार-तार भी कर देता है। सृष्टिकर्त्ता ब्रहमा जी को गंदी गाली से सुशोभित कर ये पत्रिका व इसे कर्त्ता-धर्त्ता किसे खुश करना चाहते हैं इसकी जानकारी मुझे तो नहीं है लेकिन अपनी विकृत मानसिकता व सोच से ये एक बार फिर स्पष्ट हो चुका है कि जातियों का भूत हम सब के दिल दिमाग में बसता है। और सदियों से चली आ रही धर्म, जाति, भाषा व भेदभाव की आग बराबर जल रही है।

‘वैदिक ब्राह्मण और उसका धर्म’ नामक लेख के लेखक अश्विनी कुमार शाक्य के द्वारा हिन्दू धर्म, हिन्दुओं, धर्म ग्रंथों व राष्ट्रपिता के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया है, वह अकथनीय है। पत्रिका के सम्पादक डॉ0 राजीव रत्न के पिता पारसनाथ मौर्य उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबूसिंह कुशवाहा, पारसनाथ मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दकी, दददू प्रसाद और सुषमा राना आदि के नाम संरक्षक के तौर पर प्रकाशित किये गये हैं। ये सभी मान्यवर सूबे के वरिष्ठ मंत्री व नेता हैं। मामला प्रकाश में आने पर प्रदेश सरकार ने आनन-फानन में पत्रिका की प्रतियों को जब्त कर सीबीसीआईडी जांच के आदेश जारी कर दिए गए और जौनपुर के जिलाधिकारी को पत्रिका का टाइटल निरस्त करने के निर्देश  भी प्रदेश सरकार ने दे दिये हैं। पत्रिका में हिंदू धर्म और संस्कृति के विरूद्व जो आग उगलती भाषा शैली व शब्दों का प्रयोग किया गया है और जिस प्रकार हिंदू धर्म की जमकर भर्त्सना की गई है उसे पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि हम सभ्य समाज के पढ़े-लिखे, आधुनिक विचारों से लैस भारतीय हैं। हमारी सभ्यता व संस्कृति की मिसाल पूरे विश्व में दी जाती है। वैदिक ज्ञान हमारी अमूल्य धरोहर है लेकिन बावजूद इसके कुछ तथाकथित पत्रकार व प्रैस सारे समाज को पिछड़ेपन की ओर धकेलने का प्रयास जारी रखे हुए हैं। और बेशर्मी का आलम यह है कि पत्रिका के सम्पादक राजीव का कहना है कि यह लेख उनकी गैर-जानकारी में छप गया था। पूरे प्रकरण में दो बातें सीधे तौर पर खुलकर सामने आती हैं प्रथम प्रेस द्वारा आजादी का दुरूपयोग और दूसरा पूरी घटना पर आम जनता, मीडिया, राजनीतिक दलों व संगठनों का मौन धारण करना।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 19 (1) (अ) के अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्मिलित है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शासक या जनता को अच्छी लगने वाले समाचारों तक सीमित नहीं है अपितु उसे नाराज करने, झकझोरने, उसकी नींद हराम करने वाली खबरें या विचार देने की भी स्वतंत्रता है। लोकतंत्र में शासकों के सत्ता-दुरूप्योग, मनमानी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद का भण्डाफोड प्रेस ही करता है। प्रेस लोकहितों का सच्चा, ईमानदार व निष्पक्ष प्रहरी होता है। इंग्लैण्ड की एक अदालत में बहुचर्चित ‘स्पाई कैचर केस’ में कहा गया-‘सरकार के घोटालों का पर्दाफाष करने में प्रेस की विधिसम्मत भूमिका है। एक खुले लोकतान्त्रिक समाज में ऐसा ही होन चाहिए।’ लेकिन पीत पत्रकारिता का बढ़ता चलन प्रेस की साख पर समय समय कालिख पोतता रहता है। ‘द टाइम्स’ के विश्वविख्यात सम्पादक जान थेडस डिलेन लिखते हैं कि पूरी स्वतंत्रता के साथ कोई भी समाचार पत्र तभी कार्य कर सकता है जब वह किसी राजनीतिक पार्टी अथवा सरकार से किसी विवशता  के कारण नहीं जुड़ा हो। बोलना प्रेस का धर्म है। लेकिन किसी धर्म विषेष को निशाना बनाकर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से राजनीतिक व वोट बैंक की रोटियां सेंकने के लिए पत्रकारिता के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगाना प्रेस के लिए काले अध्याय से कम नहीं है। अम्बेडकर टुडे के कृत्य से सारी पत्रकार बिरादरी व पत्रकारिता का सिर शर्म से झुका दिया है।

नेहरू ने प्रारंभ में ही इस संदर्भ में कहा था कि भारत अभी और अब से पचास वर्ष आगे तक भी उस सोच को ग्रहण करने की संभावना नही रखता जहां उसे प्रेस की वह पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो जाए जो बाहरी देशों में है। कारण निरन्तर संप्रभु शक्ति से परिचालित होने के कारण एवं बाहरी आक्रमणो के बचाव के तहत बनाई गई सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि न अभी उसमें वह क्षमता नहीं आ सकी है जहां वह सामाजिक नियमों व व्यक्ति की स्वतंत्रता उचित लाभमय व सुन्दर सदुपयोग कर सके। अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थबोध उसके लिए नियामक न होकर आक्रामक भी हो सकता है। नियामक स्वतंत्रता जो अभिव्यक्ति की संप्रेषण की दी गई उसे इस नियंत्रण के साथ बरकरार रखे। उसका संतुलन आवशयक हैं। वर्तमान संदर्भ में बिल्कुल फिट बैठती है। वर्तमान में प्रेस आजाद न होकर गुलाम है और ये गुलामी स्वयं प्रेस ने अपने लिए चुनी है। आज इक्का-दुक्का पत्र-पत्रिकाओं को छोड़कर अधिकतर मीडिया हाउस किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े हैं। वो जनता व शासक  के बीच का सेतु बनने की बजाय सत्ताधारी दल के पिटठू बन कर रह गए है। वही सबसे आगे रहने व सबसे पहले छापने की वर्तमान शैली और प्रतियोगिता ने पत्रकारिता की विश्वनीयता व कार्यशैली पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। पीत पत्रकारिता का बढ़ता चलन भी इसी गुलामी का दंश  है।

आज पत्रकारिता स्टेटस सिम्बल व लाभदायी बिजनेस का रूप धारण कर चुकी है। देश प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के साथ ही सैंकड़ों नये अखबार व न्यूज चैनल कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं। और ये पत्र और चैनल अपने राजनीतिक आकाओं के राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के उद्देष्यों, सिद्वान्तों, नियमावली को एक कोने में रखकर चापलूसी व आकाओं को प्रसन्न करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं क्योंकि उनका दाना-पानी इन्हीं आकाओं की जेब से आता है। इसी सोच व माहौल में अम्बेडकर टुडे जैसी स्तरहीन पत्रिकाएं सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं के माध्यम से दिनों-दिन चर्चा में आ जाती हैं और विज्ञापनों के रूप में लाखों करोड़ों का अनुदान भी पा जाती है। ऐसी पत्रिकाओं को न तो किसी महापुरूष के पवित्र संदेशों को जनता तक फैलाना होता है और न ही समाज के प्रति इनका कोई उत्तरदायित्व है। इन्हें तो बस अपने राजनीतिक आकाओं व संरक्षकों के हितों के सापेक्ष में पत्र पचिका का प्रकाषन किया जाता है। ऐसे में ये तथाकथित पत्रकार जान बूझकर, सोची समझी चाल, किसी विषेष रणनीति के तहत ही ऐसी घटिया, सनसनी फैलाने वाली, गाली युक्त शब्दों वाली सामग्री का प्रकाशन करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को लड़ाई-झगड़े, विवाद के फलस्वरूप ही अपशब्द या गाली का प्रयोग करेगा बिना किसी झगड़े या विवाद के कोई मानसिक रूप से विकृत व्यक्ति ही गाली देगा। हिन्दू धर्म व ब्रह्म को सीधे गाली देने के पीछे भी कोई बड़ा पालिटिकल खेल है, जिसमें पत्रकारित तो एक अदना सा मोहरा भर ही है।

मामला चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़ा हो गाली देना अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन जिस तरह से इस मामले में सारे समाज में चुप्पी धारण कर रखी है वो समाज की निष्क्रियता, सवेंदनशून्यता व काम चलाऊ प्रवृत्ति का ही संकेत है। वही पत्रकारिता भी अपने धर्म से दूर शायद अपनी बिरादरी को बचाने के मूड में दिखाई दे रही है। लोकतंत्र में अगर प्रेस सच्चे व आम जनता से जुड़े मुद्दों पर इस तरह चुप्पी साधेगा या फिर मौन धारण कर लेगा तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही खतरे में पड़ जाएगा। हिन्दू धर्म, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अपमानजनक, निंदनीय, अश्षिट भाषाशैली व शब्दों का प्रयोग, मीडिया को ‘शासक (जातियों) के हाथ का खिलौना’ आदि का प्रकाशन होने के बावजूद आम जनता, मीडिया और राजनैतिक दलों व संगठनों की चुप्पी समझ से परे है। क्या प्रैस व राजनीतिक दल हर घटना को वोट बैंक से जोड़कर देखने लगे हैं या फिर हमारे में इतनी सहनशक्ति आ चुकी है कि हम गाली खाकर भी विचलित नहीं होते हैं। प्रैस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ किसी को गाली देना कदापि नहीं हो सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक दायित्व भी है।

Sunday, August 01, 2010

महंगाई डायन खाए जात है

महंगाई  डायन खाए जात है
सखी सैयां तो खूब ही कमात है, महंगाई  डायन खाए जात है...........गीत के बोल देश में दिनों दिन बढ़ती महंगाई  की समस्या के संदर्भ में इतने प्रांसगिक है कि देश भर से यही आवाज आने लगी है कि महंगाई  डायन खाए जात है। गाने और फिल्में देश और समाज का दर्पण ही होते हैं क्योंकि फिल्मकार, कलाकार हमारे और आपके ही बीच के आदमी होते हैं और जो समस्या देश का आम आदमी झेलता है उसे वो उस लेवल तक तो नहीं झेलते लेकिन आम आदमी के साथ क्या क्या होता है उसकी कम या ज्यादा जानकारी उनके पास होती है। पीपली लाइव का यह गाना आज देश में हर ओर बज रहा है। गाने के सीधे सादे बोल देश के आम आदमी के अंतर्मन मन से निकली हुई आवाज है जिसे सरकार या कोई  भी जिम्मेदार सीट पर बैठा आदमी सुनने को तैयार नहीं है। सरकार उलूल जलूल तर्क  देकर समस्या से मुंह मोड़े बैठी है और विपक्ष धरना प्रदर्शन, जलूस, बंद करके अपने कर्तव्य से इतिश्री समझ रहा है। जिम्मेदार और जिनके कंधों पर देश के आम आदमी की समस्याओं और दु:ख तकलीत सुनने समझने की जिम्मेदारी है वो तो कानों में तेल डालकर बैठे हैं। पिछले दो सालों में महंगाई  ने सारे रिकॉर्ड  तोड़ डाले हैं। देश में खाने पीने के सामान से लेकर आम आदमी से जुड़ी हर चीज के दाम इस कदर बढ़े हैं कि आम आदमी ये सोचने को मजबूर हो गया है कि आखिरकर उसका जीवन यापन कैसे होगा। आम आदमी महंगाई  के बोझ तले दबे जा रहा है और सरकार केवल आश्वासन  देकर जनता को लालीपाप देने में लगी है। सरकार के मंत्री और जिम्मेदार लोग बेतुके और शर्मनाक बयान देकर जनता के घावों पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं और बेचारी जनता तो महंगाई के बोझ तले दबे जा रही है। पिछले दिनों पेट्रोल-डीजल और रसोई  गैस के दाम बढ़ाकर सरकार ने आम आदमी की मुसीबतों को और बढ़ाया ही है। ऐसी संकट की घड़ी में जनता के साथ कोई  भी खड़ा नहीं है और व्यापारी वर्ग  मनमाने दाम वसूलने में लगा है। दरअसल देश में भ्रष्टाचार इस कदर हावी हो चुका है कि आम आदमी तक किसी भी योजना का लाभ पहुंच नहीं पाता है। लोकतंत्र में भ्रष्टतंत्र का बोलबाला व दबदबा है। नेता-व्यापारी व अफसरों का गठजोड़ मिलकर आम आदमी का जीना मुहाल किए हुए है। पीपली लाइव का ये गाना देश के आम आदमी के दु:ख दर्द  और संकट का सच्चा प्रतिनिधि और उसकी अपनी आवाज बनकर उभरा है। आम आदमी की सोच और आवाज को उठाने के लिए फिल्म के साथ साथ अन्य मंचों  से भी आवाज उठनी चाहिए। सही मायनों में ऊंची सीट पर बैठे महानुभावों को नींद से जगाने में ये गाना कुछ न कुछ सहायक जरूर होगा।