Sunday, January 23, 2011

2010 में लोकतंत्र के चारों खंभे हिल गए


कैलेंडर बदलते ही मानों एक साल बीत जाता है। पूरे साल का नफा-नुकसान जोड़ने बैठेंगे तो हर बार की तरह कुछ खट्टी-मीट्ठी यादों, घटनाओं, उपलब्धियों, दुर्घटनाओं का नक्षा हम सबके दिलो-दिमाग में तैर जाएगा। लेकिन साल 2010 कुछ मायनों में बाकी सालों से हटकर ही है। इस साल जो भी घटा वो इतिहास के पन्नों में तो दर्ज हो ही चुका है लेकिन इस साल घटी घटनाएं आने वाले कई सालों या सालों-साल हमें रह-रहकर कदम-कदम पर याद आती रहेंगी। इस साल सिलेसिलेवार जितने घोटालों का पर्दाफाश हुआ है उसने पिछले बाकी सभी घोटालों का रिकार्ड ही तोड़ दिया है। कामनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने मिलकर देश के खजाने का इतनी भारी-भरकम चोट पहुंचाई है कि देश का विकास एक दशक सीधे पीछे खिसक गया है। सरकार और विपक्ष अपनी राजनीति बचाने और चमकाने में व्यस्त है लेकिन देश के आम आदमी के कल्याण और विकास के लिए खर्च होने वाले पैसे की जिस बेशर्मी से लूट हुई है उसे देखकर बड़े-बड़े डकैत भी शरमा जाएं। विधायिका और कार्यपालिका के चाल और चरित्र पर तो पिछले कई दशको से उंगुलियां उठती रही है और दर्जनों मामले देश की जनता के सामने आ चुके हैं जिसमें सीधे तौर पर विधायिका और कार्यपालिका गुनाहगार थी। लेकिन सन 2010 में लोकतंत्र के बाकी बचे दोनों खंभों अर्थात न्यायपालिका और प्रेस पर भी भ्रष्टाचार, मिलीभगत, और भाई-भतीजावाद का कीचड़ उछला है। सही मायनों में सन 2010 ने लोकतंत्र के चारों खंभों को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया है और देष की जनता के ंसामने ऐसे अनेक अनुतरित प्रशन छोड़ दिये है जिनका उत्तर शयद किसी के पास नहीं है। बरसों-बरस से विधायिका और कार्यपालिका की मिलीभगत और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता न्यायपालिका और प्रेस की छांव में शरण पाती थी लेकिन हालिया उजागर हुए कई मामलों में न्यायपालिका और प्रेस की काली भूमिका के उपरांत लोकतंत्र के इन दोनों पाक-साफ खंभों पर से भी देष की जनता का विश्वास लगभग उठ-सा गया है। 2010 से पहले किसी साल में ऐसा नहीं हुआ कि एकसाथ लोकतंत्र के चारों खंभों पर कीचड़ उछला हो। ऐसे में एक बार देश की जनता ये सोचने को विवश हो गई है कि लोकतंत्र में आखिकर ‘लोक’ का क्या महत्व और स्थान है? ऐसे माहौल में जनता किसे अपना रहनुमा, सरपरस्त और हितेषी समझे और न्याय के लिए किसकी चौखट जाए और न्याय के किस मंदिर का दरवाजा बेखौफ होकर खटखटाए। विधायिका और कार्यपालिका तो एक सिक्के के दो पहलू हैं। लोकतंत्र में ये दोने मजबूत आधार मिलकर बरसों-बरस से देश की भोली-भाली जनता को नए-नए तरीकों से बेवकूफ बनाते रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक हुए छोटे-बड़े घोटालों का लेखा-जोखा किया जाए तो लोकतंत्र की इन दो महत्वपूर्ण संस्थाओं ने देश की जनता के साथ कदम-कदम पर धोखा किया है। और उसके हक पर खुलेआम डाका भी डाला है। कार्यपालिका तो दूसरी भाषा में स्थायी सरकार की संज्ञा दी जाती है। विधायिका तो आती-जाती रहती है लेकिन कार्यपालिका तो लगातार शासन व्यवस्था और देश का काम-काज देखती रहती है। संविधान की व्यवस्थानुसार सारी शक्तियां विधायिका में ही निहित हैं लेकिन विधायिका को दशा और दिशा आरंभ से ही कार्यपालिका ही देती आई है। निजी और तुच्छ स्वार्थों को साधने के लिए कार्यपालिका विधायिका के काले कारनामों में खुलकर शामिल हो जाती है। अभी हाल ही में ऐसे कई मामले प्रकाश में आये हैं जिसमें वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के नाम घोटालों और धोखाधड़ी में संलिप्त पाए गए हैं। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव को नोएडा भूमि घोटाले में सजा सुनाया जाना इसका ताजातरीन मामला है। नीरा यादव के भांति दर्जनों सीनियर आईएएस अफसर विधायिका के गुनाहों के राजदार और भागीदार हैं। असल में कार्यपालिका ही विधायिका को कानूनों को धता बताने और नित नए तरीकों से चोरी करने और देश की जनता के हक की कमाई को खा जाने की तरकीबें बताने जैसे घिनौने काम करने को अपनी डयूटी का ही हिस्सा मानते हैं। चंद ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों को महत्वपूर्ण पोस्टिंग के स्थान पर गैरजरूरी या फिर निम्न स्तर के काम में लगा दिया जाता है। विधायिका के काले कारनामों और घटिया हरकतों से तंग आकर कई वरिष्ठ आईएएस अफसर नौकरी छोड़ चुके हैं। ऐसा भी नहीं है कि विधायिका बहुत साफ-सुथरी है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का केन्द्र की राजनीति में बढ़ता वर्चस्व, गठबंधन सरकारों का गठन, धर्म, भाषा, जात-पात की ओछी और घटिया राजनीति के बोलेबाले के कारण देश में राजनीति और राजनेताओं का कद बहुत बौना कर दिया है। आज राजनीति व्यवसाय बन चुकी है गिने-चुने लोगों का अगर गिनती से बाहर कर दिया जाए तो आज राजनीति में ऐसे लोगों की भारी जमात शामिल हो चुकी है जिन्हें देश की जनता के दुःख-दर्दे को दूर करने या फिर कोई भला करने के स्थान पर अपने को और मजबूत बनाने या लाखों-करोड़ों कमाने की चाहत दिल में समाई रहती है। अपराधियों, अशिक्षतों, और अनुशासनहीन लोग की भरमार ने संसद का चरित्र, चेहरा और चाल ही बदल कर रख दी है। आज कोई व्यक्ति देश या जनसेवा के लिए नहीं बल्कि काले कारनामों को ढकने के लिए खद्दर धारण करते हैं और इस अनपढ़, अशिक्षित और अपराधी जमात के चाहतों को पूरा करने के लिए कार्यपालिका हम प्याला और हम निवाला हो जाते हैं।

आजादी के बाद देश की राजनीति में देशसेवा और जनकल्याण की भावना से आने वाले लोगों की बड़ी संख्या थी। शिक्षक, वकील, पत्रकार, डाक्टर और समाज का अन्य बुद्विजीवी वर्ग देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते थे। विधायिका की देखा-देखी कार्यपालिका भी अपनी दशा और दिशा तय करती थी। लेकिन वक्त के साथ जैसे-जैसे राजनीति के स्तर में गिरावट आई उसी के अनुसार कार्यपालिका ने विधायिका की स्थिति का लाभ उठाया और खुलकर विधायिका की नंगई में साथ दिया। लेकिन आज से पहले इन दोनों पर अंकुश लगाने और इन के कर्मों से त्रस्त जनता को राहत देने के लिए न्यायपालिका और प्रेस मुखर होकर आम आदमी के साथ खड़े दिखाई देते थे। ये संभवतः पहला ऐसा मौका है जब लोकतंत्र के इन दोनों खंभों अर्थात न्यायपालिका और प्रेस पर भ्रष्टाचार का कीचड़ उछला है। इससे पहले भी कभी-कभार दबे-छुपे शब्दों में न्यायपालिका और प्रेस के गुनाहों में शामिल होने की बात सामने आती थी लेकिन 2010 में इन दोनों खंभों की सच्चाई भी देश की जनता के सामने आ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय की इलाहबाद उच्च न्यायालय के जजों पर की गई टिप्पणी और 2जी स्प्रेक्ट्रम घोटालें में देश के वरिष्ठ पत्रकारों यथा बरखा दत्त, प्रभु चावला और वीर संघवी और छोटे-मोटे कई अन्य मीडियाकर्मियों के नाम आने से बचा-खुचा विष्वास भी लोकतंत्र के इन मजबूत खंभों से जाता रहा है। सवाल यह है कि जब लोकतंत्र के चारों खंभे ही गुनाहगार हैं अर्थात पूरा तंत्र ही भ्रष्ट हो चुका है तो लोक का क्या होगा। और अगर लोक का तंत्र से विश्वास उठ जाएगा तो लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या होगा।

ऐसा नहीं है कि देश की जनता अपने प्रतिनिधियों और उनके गुरगों के काले कारनामों और कारस्तानियों से अंजान है लेकिन जनता अब तक यही सोचती थी कि शायद देर-सबेर हालात सुधर जाएंगे, लेकिन अब तो पानी सिर से ऊपर बहने लगा है। लोकतंत्र रूपी इमारत के चारों खंभों में जब दीमक लग चुका है ऐसे में इमारत ढहने का खतरा हमेशा बना हुआ है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस के दागदार और अपराधों में लिप्त होने के कारण देश के विकास, आर्थिक मोर्च और अन्य क्षेत्रों पर इसका व्याप्क दुष्प्रभाव पड़ रहा है। मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक कुरीतियां, अपराध, भुखमरी आदि ये वो समस्याएं है जिनका हमारे देश के साथ मानो चोली दामन का साथ है। जब नीचे से लेकर ऊपर तक अपराधी, भ्रष्ट और गद्दार भरे हों तो सीमापार से होने वाली गैर-कानूनी घटनाओं और आंतकवाद पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं बचता है। देश में पनपता नक्सलवाद और अन्य अपराधिक वारदातों का ग्राफ सीधे तौर पर इस बात का संकेत है कि देश में कानून का डर और राज समाप्त हो चुका है। क्योंकि अपराधियों और गुण्डों के मन में ये बात बैठ चुकी है कि इस देश में पैसे से एक अदने सिपाही से लेकर सांसद तक को खरीदा जा सकता है। ऐसे उनमुक्त और स्वच्छंद सोच और मानसिकता के कारण देश में नियम-कानून की धज्जियां सरे आम उड़ाई जाती हैं और बदमाश खुले आम गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। लोकतंत्र के चारों खंभों को भ्रष्टाचार की बेल न इतनी मजबूती से अपने शिकंजे में ले रखा है कि कोई चाहकर भी इस तंत्र से निपट नहीं सकता है। संविधान की उदेशिका स्पष्ट शब्दों में यह घोषित करती है कि संविधान के अधीन सभी प्राधिकारों का स्त्रोत भारत के लोग होंगे। और लोकतंत्र का सीधा अर्थ भी जनता द्वारा जनता के लिए बनाई गई सरकार ही होता है। लेकिन लोकतंत्र के सिपाही जिस तरह से एक-एक कर के देष के आम आदमी के विश्वास को ठग रहे है उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि देश की जनता का इस लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रणाली से विश्वास ही नही उठ जाए और जनता गलत राह पर चल पड़े। समय रहते हमारी विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस को अपने चरित्र, व्यवहार, कार्यशैली और चेहरे-मोहरे को बदलना होगा और नये सिरे से लोकतंत्र की स्थापना करते हुए देश क़ि जनता में वही पुराना विश्वास और भरोसा दिलाना होगा कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है और देश की तकदीर और तदबीर जनता से ही जुड़ी होती है और जिस दिन ऐसा होगा वो दिन लोक और तंत्र दोनों की जीत का दिन होगा।