Sunday, April 17, 2011

व्यवस्था का पद्मीकरण


पद्म सिंह देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की पावरफुल सीएम मायावती के पीएसओ (पर्सनल सिक्योरिटी आफिसर) हैं इस परिचय से शयद आप पद्म सिंह को पहचान न पाएं। लेकिन कुछ दिन पहले आपने मीडिया के माध्यम से एक पुलिस आफिसर को सीएम मायावती के जूते साफ करते देखा होगा। ये कारनामा करने वाले अफसर पद्म सिंह ही थे। विपक्षी दलों ने सीएम के इस कृत्य को सामंतवाद की संज्ञा दी और खूब हो-हल्ला मचाया। सरकारी नुमांइदों ने सुरक्षा का वास्ता देकर पद्म सिंह के कृत्य को जायज ठहराया। दो-चार दिन की चर्चा और तकरार के बाद मामला रफा-दफा हो गया लेकिन पद्म सिंह ने जो कुछ भी किया वो अपने पीछे कई अनुत्तरित प्रशन जरूर छोड़ गया। असल में देखा जाए तो आज लगभग हमारी पूरी व्यवस्था, सरकारी अमला और ऊंचे ओहदों पर विराजित महानुभाव पद्मसिंह की भांति ही सत्ता और सिहांसन के जूते साफ और चमका कर मलाई काट रहे हैं, और जो अफसर पूरी मेहनत, ईमानदारी, कर्मठता और सच्ची देश और समाज सेवा की भावना से काम करते हैं उन्हें भ्रष्ट, नक्कारा और चम्मच टाइप व्यवस्था के पोषक और अंग पग-पग पर सताते हैं और नित नए तरीके से उनके लिए मुश्किलें खड़ी करते रहते हैं। पद्म सिंह ने तो बड़ी बहादुरी दिखाई कि सारी दुनिया और मीडिया के सामने अपनी वफादारी और चम्मचागिरी को दिखाने और छिपाने से परहेज नहीं किया लेकिन हमारे देश में पद्म सिंह की कमी नहीं है। देश में दूसरे जितने भी पद्म सिंह हैं उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वो अपने मालिकों, सरपरस्तों और आकाओं के सरेआम सारी दुनिया और मीडिया के सामने जूते साफ कर पाए। ऐसे अनेक पद्म सिंह को मैं, आप और सारा समाज किसी न किसी तरह से जानता पहचानता है लेकिन मीडिय के कैमरों में उनकी तस्वीरें कैद नहीं है सही मायनों में देखा जाए तो देश में सारी व्यवस्था का इस कदर “पद्मीकरण” हो चुका है कि ईमानदार, कर्मठ, सच्चे और जनता के दुःख-दर्द को समझने वालों को तो महत्वपूर्ण पदों से दूर रखा जाता है और उन्हें परेशान  करने, सताने या प्रताड़ित करने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती है, और जो अपना जमीर, इज्जत को किनारे रखकर पद्म सिंह की कतार में खड़े हो जाते हैं वो अपने आकाओं की सरपरस्ती में जीवन भर मलाई काटते हैं।

अमिताभ ठाकुर 1992 बैच उत्तर प्रदेश काडर के आईपीएस अधिकारी हैं वर्तमान में मेरठ जनपद में एसपी आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्लू) में तैनात हैं। 19 साल की नौकरी के दौरान में लगभग 10 जिलों में एसपी के अलावा विजीलेंस, इंटेलिजेंस, सीबी-सीआईडी और पुलिस प्रषिक्षण आदि में अपनी सेवाएं दे चुके अमिताभ की गिनती प्रदेश के कर्मठ, ईमानदार, सच्चे, जनपक्ष को तरजीह देने वाले अधिकारियों में होती हैं। 19 साल के कार्यकाल में अपनी कार्यशेली , बेदाग छवि और समाज सेवा की भावना और राजनीतिक आकाओं की मनमर्जी कें मुताबिक काम न करने के कारण ठाकुर नेताओं और शासन की आंख की किरकरी ही बने रहे। मूलतः बोकारो, झारखंड के निवासी अमिताभ का आईआईटी कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद 1992 में भारतीय पुलिस सेवा में चयन हुआ। प्रारंभिक दौर पर से ही अपनी साफ-सुथरी छवि के साथ अमिताभ ने पुलिस जैसे बदनाम मकहमे में जीवन की षुरूआत की थी, वो आज भी जारी है। वर्तमान सरकार से लेकर पूर्ववर्ती सभी सरकारों और राजनीतिक आकाओं की हां में हां न मिलाने के कारण आज 19 साल की नौकरी के बाद भी अमिताभ एसपी ही हैं। मेरी जानकारी के हिसाब से लगभग दो दशकों की नौकरी के बाद कोई भी आईपीएस आफिसर डीआईजी के रैंक तक तो पहुंच ही जाता होगा। अमिताभ का अक्टूबर 2007 में पुलिस अधीक्षक (बलिया) की तैनाती के दौरान आईआईएम का कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (कैट) दिया था। इसके बाद उनका चयन अप्रैल 2008 में आईआईएम में फेलो प्रोग्राम इन मैनेजमेंट में हो गया. 30 अप्रैल 2008 को आईआईएम लखनऊ में होने वाले इस कोर्स करने के लिए उन्होंने स्टडी लीव के लिए आवेदन किया था लेकिन सरकारी हीला-हवाली के चलते अमिताभ को कोर्ट का सहारा लेना पड़ा। अध्ययन अवधि के दौरान दो साल तक अमिताभ को वेतन ही नहीं मिला। ये वही व्यवस्था है जो अपने चम्मच और चप्पल साफ करने वालों को ढेरों सुख-सुविधाएं देने से हिचकती नहीं है। अमिताभ की गलती एक ही है कि वो अपनी डयूटी को पूरी ईमानदारी, लगन और मेहनत से करते है और गरीब, मजलूम और पीड़ित पक्ष के साथ खड़े दिखाई देते हैं। वो अपने दूसरे साथियों की तरह राजनीतिक आकाओं के इशारे पर न तो दुम हिलाते हैं और न ही उनकी हां में हां। वो अपने राजनीतिक और सूसखदार आकाओं की खुषी या चम्मचागिरी के लिए किसी बेगुनाह, गरीब, कमजोर, और ऊंची पकड़ न रखने वालों को सलाखों के पीछे भी नहीं धकेलते हैं और न ही किसी अहिंसक प्रदर्षनकारी को अपने जूते की ऐडी से कुचलते और मसलते हैं।

2002 बैच के भारतीय वन सेवा के हरियाणा कैडर के अधिकारी संजीव चर्तुवेदी का किस्सा शायद  आपको याद हो। इस आईएफएस अधिकारी ने हरियाणा वन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की परते जैसे ही खोलनी शुरू की तो संजीव पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा। चार साल की नौकरी में ग्यारह बार ट्रांसफर का दंश संजीव को झेलना पड़ा। इतने के बाद भी जब मंत्री और भ्रष्ट आला अधिकारियों का मन नहीं भरा तो अनाप-शनाप, आधारहीन और तथ्यहीन आरोप लगाकर संजीव को संस्पेंड करके ही दम लिया। संजीव का अपराध इतना ही था कि उन्हंे जिस भी जिले में नियुक्त किया गया उन्होंने गले तक भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबे वन विभाग की असलियत सामने लाने का दुस्साहस किया था। अपने को सिद्व करने के लिए संजीव को कोर्ट का सहारा लेना पड़ा और हाई प्रोफाइल कमेटी की जांच और राष्ट्रपति महोदया के हस्तक्षेप के उपरांत के बाद ही संजीव पुनः सेवा में बहाल हो पाए। ये है हमारी व्यवस्था जहां ईमानदारी, निष्पक्षता, सच्चाई, समाज सेवा और राष्ट्रप्रेम की कसमें तो बहुत खाई और खिलाई जाती हैं लेकिन जब कोई षख्स इस रास्ते पर चलने का प्रयास करता है तो भ्रष्ट, बईमान, कामचोर, और नियमों का उल्लघंन करने वालों की फौज उसके कदम-कदम पर कांटे बिछाने और परेशान  करने में जुट जाती है।

अमिताभ और संजीव की भांति ही सच्चाई, ईमानदारी और कर्तव्यपरायण और जनपक्ष लेने वाले कई अधिकारी और कर्मचारी साइड लाइन लगा दिये जाते हैं। गत वर्ष बरेली, उत्तर प्रदेश  में एसपी टैªफिक के पद पर तैनात 1990 बैच की पीपीएस अधिकारी कल्पना सक्सेना को सूचना मिली की उनके मातहत पुलिसकर्मी ट्रक वालों से अवैद्य वसूली कर रहे हैं तो उन्हें रंगे हाथों पकड़ने पहुंची तो उनको उनके ही मातहतों ने ही जीप के साथ एक-डेढ किलोमीटर घसीट डाला। बुरी तरह से घायल और चोटिल कल्पना को अस्पताल में भर्ती करवाया गया और कार्रवाई के तौर पर पांच पुलिसवालों को संस्पेंड कर दिया गया। अगर कल्पना उनके गुनाहों में शामिल  होती तो उन्हें सारी सुख सुविधाएं उनके मातहत पहुंचाते लेकिन हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगाने वाली व्यवस्था का पालक-पोषक किसी भी तरह की बंदिष को बर्दाषत नहीं कर पाते हैं और जो भी उनके रास्ते में आता है येन-केन-प्रकारेण उसको ठिकाने की जुगत भिड़ाने में लग जाते हैं। कल्पना जैसे पुलिस वालों की गिनती उंगुलियों पर गिनी जा सकती है और केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं सारे देश में पुलिस और खासकर ट्रैफिक पुलिस सरेआम वसूली करती है और जो उन्हें रोकने का काम करता है उसकी हालत कल्पना जैसी होती है और ऐसे समय में कोई आला अधिकारी या मंत्री उस अफसर के पक्ष में खड़़ा दिखाई नहीं देता है और सारी कोशिशें मामला रफा-दफा करने का ही होती है ताकि विभाग की नंगई और सच्चाई मीडिया या पब्लिक के सामने न आने पाए। 1985 बैच के बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी जी0 कृष्णैया की 5 दिसंबर 1994 को सरेआम हत्या कर दी गई थी। कृष्णैया ने प्रदर्षन ओर जलूस निकाल रही भीड़ जिसका नेतृत्व आंनद मोहन सिंह और उनकी पत्नी लवली आनंद सिंह कर रही थी, को रोकने का प्रयास किया था। तत्कालीन बीपीपी के नेता और माफिया आनंद मोहन सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने ईमानदारी से अपनी डयूटी निभा रहे युवा अधिकारी को मरवा डाला। वास्तव में ईमानदारी से काम करने वालों की वर्तमान व्यवस्था को जरूरत ही नहीं है। व्यवस्था को हां में हां मिलाने वाले और अपने राजनीतिक आकाओं के मुंह और मूड को देखकर काम करने वाले पालतू किस्म के अधिकारियों की जरूरत है।

महाराष्ट्र के नासिक जिले के एडीएम यशवंत सोनावणे ने तेल माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश  की तो भ्रष्ट व्यवस्था और तेल माफियाओं के गठजोड़ ने सोनावणे को जिंदा जलाकर मार डाला। सोनावणे की तरह वर्ष 2005 में इंडियन आयल कारपोरेषन के युवा, कर्मठ और ईमानदार ब्रिकी अधिकारी मंजुनाथष्षंमुगम की भी हत्या मिलावटखोर पैट्रोल पंप मालिक व उसके गुर्गों ने कर दी थी। वर्ष 2003 में नेषनल हाईवे अथारिटी आफ इण्डिया के इंजीनियर सत्येन्द्र नाथ दुबे की भी हत्या नेताओं और माफियाओं के गठजोड़ ने की थी। असल में जो भी अधिकारी या ईमानदारी से अपने कार्यों का अंजाम देने वाला कर्मचारी भ्रष्ट व्यवस्था की आंख की किरकिरी बन जाता है। 1994 बैच के उत्तर प्रदेष के पीपीएस अधिकारी शैलेन्द्र सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। सन 2004 में ईमानदार, कर्मठ, जुझारू और ऊर्जावान और तेज तर्रार  शैलेन्द्र की नियुक्ति वाराणसी में एसटीएफ यूनिट में हेड के तौर पर थी। सेना से एलएमजी चोरी और उसे पूर्वांचल के अपराधियों को बेचे जाने के कांड का भंडाफोड़ करना ही  शैलेन्द्र  के नौकरी छोड़ने का कारण बना। तत्कालीन प्रदेश  सरकार से लेकर मीडिया तक सभी को भली भांति मालूम था इस सारे कांड में मऊ के विधायक का नाम और हाथ था।  शैलेन्द्र ने अपनी जांच रिपोर्ट में विधायक पर पोटा लगाने की सिफारिष की थी। तमाम सुबूतों और गवाहों के बावजूद सरकार ने उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया और वाराणसी की एसटीएफ यूनिट को ही बंद कर दिया। लेकिन उसूल के पक्के, ईमानदार और आत्म सम्मान के लिए जीने वाले  शैलेन्द्र ने राजनीतिक व्यवस्था और भ्रष्टाचार से क्षुब्ध होकर अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया। ये सच भी है कि जब किसी अपराधी, भ्रष्ट और रसूखदार के सामने किसी ईमानदार, कर्मठ और कर्तव्यपरायण अधिकारी या कर्मचारी को डांटा-डपटा जाता है तो अपराधियों, बईमानों और भ्रष्टों का हौंसला बुलंद होता है और लगभग हर अपराध में नेताओं और अपराधियों की मिलीभगत के सुबूत मिल ही जाते हैं और जो अफसर चालाकी से माननीयों का दामन बचा लेते हैं वो मलाई और ईनाम का मजा पाते है और जो उसूल और कानून की बात करते है उन्हें या तो इस्तीफा देना पड़ता है या फिर कोई और सजा।

विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और स्वतंत्र प्रैस लोकतंत्र के आधारस्ंतम्भ हैं। लेकिन जब विधायिका के क्रियाकलापों में अन्य तीनों संस्थाएं बराबर की भागीदार हो जाती हैं तो हालात बिगड़ने का डर रहता है। संवैधानिक व्यवस्थानुसार विधायिका के पास षक्तियों का भंडार है। ऐसे में निजी स्वार्थाें और लाभ के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका विधायिका के गुनाहों में बराबर हिस्सेदारी निभाने लगी है। न्यायपालिका में तो फिर भी गनीमत है सबसे अधिक गिरावट कार्यपालिका के चरित्र में आई है। राजनीतिक आकाओं को खुष करने और भ्रष्टाचार की गंगोत्री में गोता लगाने के लिए कार्यपालिका सिद्वांतहीन, भ्रष्ट, चरित्रहीन, अपराधी, अनपढ़ और स्वार्थी राजनीतिक आकाओं की हां में हां मिलाने लगी है। आज बड़े अफसरों का अधिकतर समय समाजसेवा और डयूटी निभाने की बजाए चम्मचागिरी, चरण वन्दना, गणेष परिक्रमा और जूते चमकाने में ही बीतता है। अपने दिल और दिमाग को घर में छोड़कर आने वाली कार्यपालिका आज पूरी तरह से राजनीतिक आकाओं और मंत्रियों के मूड और मर्जी से काम करते हैं। ऐसे में टी0एन0 शेषन, जी0आर0 खैरनार, किरण बेदी, आर0वी0 कृष्णा, अमिताभ ठाकुर, कल्पना सक्सेना, संजीव चर्तुवेदी, मंजुनाथ, यषवंत सोनावणे,  शैलेन्द्र सिंह, सत्येन्द्र दुबे, जी0 कृष्णैया और उन जैसे दूसरे अधिकारी ष्षुरू से ही व्यवस्था की आंखों में चुभते रहे हैं। व्यवस्था को अखंड प्रताप सिंह, नीरा यादव, गौतम गोस्वामी, अरंविद जोषी, टीनू जोषी आदि जैसे दूसरे सैंकड़ों अधिकारी व्यवस्था की आंखों के तारे हैं। सत्ता के षीर्ष पर बैठे तथाकथित माननीय यही चाहते हैं कि वो जो कुछ भी करें कार्यपालिका उनके कर्मों में बराबर की भागीदार बने और उनके कुकृत्यों में शामिल रहे। इसलिए सेवा निवृत्ति के बाद कई आईएस, आईपीएस और प्रशासनिक  सेवाओं के अधिकारियों का राजनीतिक दलों में शामिल होने का रूझान बढ़ता ही जा रहा है। क्योंकि कार्यपालिका को इस बात की जानकारी है कि अगर उन्हें इस व्यवस्था में रहना और काले कारनामें करने हैं तो खाकी धारण करने से बेहतर विकल्प कोई अन्य नहीं हो सकता। ऐसे वातावरण में अधिकतर अधिकारी खाकी की छत्रछाया में ही अपना समय व्यतीत करते हैं और काली कमाई और मलाईदार पोस्ंिटग का तोहफा पाते हैं। और जो गिने-चुने व्यवस्था या लीक से हटकर चलने की कोषिष करते हैं उनका बोरी-बिस्तर हमेषा बंधा ही रहता है या फिर उनका समय संस्पेंषन में ही बीतता है।

कार्यपालिका के चरित्र में दिनों-दिन आ रही गिरावट और व्यवस्था का “पद्मीकरण” होना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है। ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए देष और समाज सेवा, वंचितों, पिछड़ों, अषक्त और अनपढ़ों को न्याय दिलवाना और समाज में उन्हंे उचित स्थान दिलवाना कार्यपालिका की प्रथम और महत्वपूर्ण डयूटी है। लेकिन जब कार्यपालिका सन्मार्ग से हटकर कुमार्ग पर चलने लगती है तो देश  में विकास नहीं विनाष की बाढ़ आने का खतरा बना रहता है। कार्यपालिका को दूसरे शब्दों में  ”स्थायी सरकार” की संज्ञा दी जाती है। ऐसे में आवष्यकता इस बात की है कि कार्यपालिका पद्म सिंह वाली पंक्ति से बाहर निकलकर देष और समाज सेवा के पवित्र संकल्प से काम करे और देष को उन्नति की राह पर ले जाएं क्योंकि देश की जनता उनसे यही उम्मीद करती है।