Sunday, December 18, 2011

नहीं रहे जनकवि गोंडवी

 कवि एवं प्रख्यात शायर रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी का आज सुबह 5 बजे निधन हो गया. 65 वर्षीय अदम गोंडवी पिछले सप्ताह भर से लीवर के गहरे संक्रमण के कारण गंभीर रूप से बीमार थे और उनका लखनऊ के पीजीआइ अस्पताल में इलाज चल रहा था. इलाज के लिए उन्हें १२ दिसम्बर को उनके गृह जिले गोंडा के निजी अस्पताल से लखनऊ पीजीआई लाया गया था. वे अपने पीछे पत्नी कमला देवी और एक बेटा अलोक कुमार सिंह को छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गये.
अदम गोंडवी के इलाज में लगे उनके भतीजे दिलीप कुमार सिंह ने बताया कि ,'उनकी तबियत कल सुबह से ही ख़राब होने लगी और हाथ-पांव काफी फूल गये थे, जिसके बाद डॉक्टरों ने खून की मांग की.उनका ब्लड ग्रुप एबी प्लस होने के कारण खून नहीं मिल सका और सरकारी अस्पताल में शनिवार को हाफ डे होने के कारण डॉक्टरों ने कहा कि अब सोमवार को देखेंगे.'
जनज्वार से हुई बातचीत में दिलीप ने बताया कि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह अस्पताल पहुँचने वाले हैं, जिसके बाद उन्हें गोंडवी के गाँव आता परसपुर ले जाया जायेगा और वहीं अंतिम संस्कार होगा. गौरतलब है कि मुलायम सिंह ने अदम के इलाज के लिए आर्थिक मदद भी की थी. दिलीप ने बताया कि 'उनके इलाज के प्रति सरकारी असवेदंशीलता के बावजूद कवियों, लेखकों और पत्रकारों ने हमारा बहुत सहयोग दिया.'
‘काजू भुने प्लेट मे, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में’ और ‘एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए, चार छः चमचे रहें माइक रहे,माल रहे' जैसी कविताओं के माध्यम से देशभर के कोने-कोने में डंका बजा चुके जनवादी लेखक हिंदी क्षेत्र के प्रिय कवियों में रहे हैं . उन्हें प्रसिद्ध गजलकार दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी में सबसे ज्यादा चर्चित और प्रतिभाशाली ग़ज़लकार कहा जाता है. 

Thursday, December 15, 2011

अदम गोंडवी की हालत बिगड़ी

कवि एवं प्रख्यात शायर अदम गोंडवी गंभीर रूप से बीमार हैं  और इलाज के लिए उन्हें  पीजीआई लखनऊ भर्ती कराया गया है। अदम गोंडवी की तबीयत पिछले कई दिनों से खराब चल रही थी और गोण्डा के एक निजी अस्पताल  में उनका इलाज चल रहा था। अदम दोंदावी उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के रहने वाले हैं और वे वहीँ रह रहे थे. 
 
‘काजू भुने प्लेट मे, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में’ और‘एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए, चार छः चमचे रहें माइक रहे, माल रहे' जैसी कविताओं के माध्यम से देशभर के कोने-कोने में डंका बजा चुके जनवादी लेखक हिंदी क्षेत्र के प्रिय कवियों में हैं. उन्हें प्रसिद्ध गजलकार दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी में सबसे ज्यादा चर्चित और प्रतिभाशाली ग़ज़लकार कहा जाता है.
 
गोंडवी के भतीजे दिलीप कुमार सिंह ने बताया कि 'पिछले दिनों उनके स्वास्थ्य में सुधार दिखाई दे रहा था, लेकिन रविवार को तबीयत बिगड़ती देख डाक्टरों ने उन्हें लखनऊ पीजीआई के लिए रेफर कर दिया था।  डाक्टरों के मुताबिक  उनके लीवर में खराबी है और स्थिति गंभीर है.  हम अदम जी की लंबी उम्र और शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं- 

प्रस्तुत हैं अदम जी की कुछ रचनाएं- 

जो उलझ कर रह गई है 

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जिसकी कीमत कुछ हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालना क्या जिस्म की टकसाल में

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में 

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
 
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में


मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको 

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
 
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
 
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

आम आदमी को गुस्सा क्यों नहीं आता?

देश के युवा सांसद और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को आम आदमी की बदहाली गुस्सा आता है, भाजपा की फायर ब्रांड नेता उमा भारती रिटेल सेक्टर में एफडीआई पर सरकार के निर्णय से इतनी गुस्सा हो जाती हैं कि वो अपने हाथों वालमॉर्ट के स्टोर में आग लगाने की बात करती हैं, ऐसे में प्रतिक्रिया स्वरूप यह सवाल उठता है कि राहुल गाधीं, उमा भारती और तमाम दूसरे नेताओं को जिस आम आदमी की बदहाली और दुर्दशा पर गुस्सा आता है, आखिरकर खुद उस आम आदमी को अपनी बदहाली पर गुस्सा क्यों नहीं आता है?

गौरतलब है कि नेता के कर्मां का कुफल ही देशवासी गुजरे छह दशकों से भोग रहे हैं, और उस पर तुर्रा यह है कि गुस्सा भी उन्हीं नेतोओं को ही आ रहा है। देश की जनता का ध्यान मुख्य समस्याओं और अपने कुकर्मों से बंटाने के लिए नेता जनता को भाषा, धर्म, जात, बिरादरी और दूसरे तमाम तरह के मसलों में उलझाए रखने की साजिषें रचने वाले तथाकथित नेता और प्रतिनिधि अपने कर्मों पर शर्मिन्दा होने की बजाए गुस्से का नाटक कर आम आदमी से क्रूर मजाक ही तो कर रहे हैं।

असल में ये सवाल तो जनता की ओर से उछलना चाहिए था लेकिन राजनीति ने आम आदमी से उसका ये सवाल भी बड़ी चालाकी से छीन लिया। देश का आम आदमी आजादी के 64 सालों बाद भी षिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, स्वच्छ पेयजल और षौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। आजादी से अब तक अगर घोटालों, कांडों और सरकारी खजाने की लूट का हिसाब जोड़ा जाए तो उतने पैसे से सुविधासंपन्न और विकसित एक नया भारत बसाया जा सकता था, लेकिन विडबंना यह है कि इस देश में भुखमरी, बदहाली, शोषण का शिकार जो वर्ग है उसे पिछले 64 सालों एकाध बार ही हल्का-फुल्का गुस्सा आया है। और इस पर भी गुस्सा आने का अभिनय वो जमात कर रही है जो जनता की बदहाली, भुखमरी और विकास को जाम करने की असली गुनाहगार है।
आखिरकर आम आदमी को गुस्सा क्यों नहीं आता है, ये सवाल सोचने पर मजबूर करता है। क्या जनता इन हालातों से समझौता कर बदहाली में जीने के आदी हो चुकी हैं? क्या वर्तमान हालातों को जनता अपनी नियति मान बैठी हैं? क्या हमारे मन में यह धारणा गहरे पैठ चुकी हैं कि शक्तिषाली सत्ता के समक्ष हम कमजोर, अक्षम और बौने हैं? क्या हम यह समझने लगे हैं कि संविधान ने वोट देने के अलावा कोई दूसरी बड़ी ताकत या अधिकार हमे नहीं दिया है? क्या हम यह मान बैठे हैं कि हम इस कुटिल, भ्रष्ट और चालाक व्यवस्था से जीत नहीं पाएंगे? क्या हम यह मानने लगे हैं कि हमारे चिल्लाने, धरना-प्रदर्शन और विरोध का कुछ भी असर बेशर्म और मोटी चमड़ी वाली व्यवस्था पर नहीं होगा? क्या हमें यह लगता है कि हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों, तथाकथित नेताओं और मंत्रियों से कुछ पूछने के हकदार नहीं हैं? कहीं न कहीं कुछ न कुछ समस्या तो जरूर है जो इतनी दुर्गति और बदहाली के बाद भी जनता चुप है और उसे सरकार की बेशर्मी, बेईमानी और जनविरोधी नीतियों पर गलती से भी गुस्सा नहीं आता है।

आजादी के पूर्व हम जिन आदर्शों की बात करते थे, आजादी के बाद उनका पालन करन तो दूर उन्हें भुला ही बैठे। मूल्यों के क्षरण के चरण की शुरूआत ने राजनीति का अपराधीकरण या यूं कहें कि अपराध का राजनीतिकरण कर दिया। जनतंत्र माखौल बनकर रह गया। जनतंत्र में जनता ही सबसे अधिक उपेक्षित हो गई। जनहितों की अनेदेखी की जाने लगी एवं नौकरषाही लालफीताषाही बढ़ती गई। आजादी के बाद सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि हमने औपनिवेषिक कानूनों-कायदों के ढांचे का अनुसरण किया, उसे जनता पर लादा। बदले हालातों एवं जरूरतों के हिसाब से कानून-कायदों का भारतीय माडल तैयार नहीं किया गया।  यानी सूरत तो बदली, मगर सीरत नहीं। भारतीय पुलिस का बर्बर चेहरा हुकूमत-ए-बर्तानिया की पुलिस को भी मात दे रहा है। विधायिका, न्यायापालिका और कार्यपालिका ने मिलकर देश में ऐसा वातावरण बना दिया है कि देश का आम आदमी सरकार और सरकारी मषीनरी के सामने अपने अधिकारों और बुनियादी सुविधाओं के लिए ऐड़िया घिसटता दिखाई देता हैं। चुनाव के समय मुंह दिखाने के बाद अगले पांच साल तक नेता ये जानने की जहमत नहीं उठाते हैं कि जिस जनता की वोट से वो इतने ताकतवर बने है वो जनता किस हाल में जीवन बसर कर रही है।

सरकारी कागजों में विकास के आंकड़ें और सुनहरे सपने साकार होने के करीब हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इतनी भयावह और विषम है कि जिसे देख-सुनकर आपका कलेजा बैठ जाएगा। आजादी के बाद इस देश के आम आदमी को आष्वासनों के लालीपॉप के अलावा कुछ खास हासिल नहीं हुआ है। गांव, किसान और खेतीबाड़ी की दुर्दषा किसी से छिपी नहीं है। मजदूर दो जून की रोटी के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं। खेती-बाड़ी के प्रति सरकार की उदासीनता से किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और बेरोजगार जुर्म और जरायम की दुनिया की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। महिलाओं के प्रति अपराध, हिंसा, भू्रण हत्या का पारा ऊपर चढ़ता दिख रहा है। लेकिन तमाम परेषानियों और समस्याओं के बाद देश की जनता की चुप्पी और अपनी बदहाली पर गुस्सा न करना ये सोचने को मजबूर करता है कि आखिरकर देश की जनता को गुस्सा क्यों नहीं आता है ?

वहीं आजादी से लेकर आज तक आम आदमी के दुःख-दर्दे और समस्याओं को खुद जनता बजाए राजनीतिक दलों ने अपने वोट बैंक की मजबूती, राजनीतिक गुणा-भाग और विरोधियों को घेरने के लिए एक हथियार की तरह प्रयोग किया। असल बात यह है कि जनता को खुद-ब-खुद अपनी बदहाली तब तक पता नहीं चलती जब तक कोई नेता, पत्रकार य समाजसेवी उसे उसके बारे में नही बताता। जन लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अन्ना और रामदेव की पहल ने बरसों से सो रही जनता को जगाने का नेक काम किया, लेकिन कोई कब तक हमें हमारे ही दुख-दर्दे और बदहाली के बारे में बताएगा। असलियत यह है कि देश का आम आदमी मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से त्रस्त है। तस्वीर का सुंदर स्वरूप तभी सामने आएगा जब जनता खुद सरकार की गलत, जन और देश विरोधी नीतियों और निर्णयों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करेगी, उसी दिन लोकतंत्र की वास्तविक संकल्पना और अवधारणा साकार होगी।

पत्तों को मत झाड़िए, जड़ को उखाड़िये

प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को आचार संहिता के फंदे में फंसा चुकी सरकार अब सोशल नेटवर्किंग साइटस पर लगाम लगाने की कवायद में जुट गई है। सरकार ये प्रचार कर रही है कि इन सोशल नेटवर्किंग साइटस पर धार्मिक संप्रदायों और महापुरूषों का अपमान होता है। ऊपरी तौर पर सरकार की पहल साफ-सुथरी और नेक नीयत में लिपटी दिखाई देती है, लेकिन अगर सरकारी पहल के भीतर अगर थोड़ा झांका जाए तो सारी कहानी आसानी से समझ आ जाएगी। सरकार की जो कोशिश है वह पत्तों को झाड़कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने की है जबकि भ्रष्टाचार और कुशासन की जड़ पर वार करने से वह बचना चाहती है।
कीबोर्ड और अँगुलियों के तालमेल से भयभीत सरकार ने गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और याहू के अधिकारियों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मोहम्मद पैगंबर से जुड़ी कथित अपमानजनक, गलत और भड़काने वाली सामग्रियों को हटाने के लिए कहा था। सूचना मंत्री कपिल सिब्बल ने याहू, गूगल और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटस चलाने वाली कंपनियों के अधिकारियों से इस बारे में बात की, लेकिन उनकी ओर से कहा गया कि जब तक इस बारे में अदालत का कोई फैसला नहीं आता, वो इस बारे में कुछ नहीं कर सकते। कंपनियों के रूखे व्यवहार और टके से जबाव से तिलमिलाई सरकार सोशल नेटवर्किगं साइट्स की पेशबंदी करने पर उतर आई है।

गौरतलब है कि पिछले लगभग दो वर्षों से सोशल नेटवर्किंग साइटस पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जिस तरह से छींटाकशीं, कमेंटस और बयानबाजी हो रही है, उससे तिलमिलाई और घबराई सरकार धर्म की ओट लेकर आम आदमी की आवाज को बंद करने की साजिश रच रही है। यूपीए-2 के दो साल के कार्यकाल में मंहगाई ने सारी हदें पार कर रखी हैं, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है, सरकारी योजनाओं में मची लूट जगजाहिर है। आम आदमी की आवाज और परेशानियों को देश-दुनिया के सामने रखने वाला मीडिया नियम-कानून और धंधे में फंसकर सर्कस का शेर बनकर रह गया है। परिणामस्वरूप सरकार की जनविरोधी नीतियों और निर्णयों से गुस्साए, परेशान और झुंझलाए देशवासी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी भड़ास और गुस्से का खुलकर इजहार करते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइटस सोशल मीडिया का बड़ा सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, और लगातार इसके यूजर में बढोतरी हो रही है। वर्तमान में भारत में ढाई करोड़ लोग फेसबुक और लगभग दस करोड़ गूगल से जुड़े हैं।

पिछले कुछ वर्षों में गूगल, याहू, फेसबुक आदि तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटस सोशल मीडिया का सशक्त माध्यम बनकर उभरी हैं। अन्ना के आंदोलन हो या फिर देश और जनहित से जुड़े तमाम दूसरे मुद्दों को देश-दुनिया के सामने का काम ये साइटस बखूबी कर रही हैं। 1200 नौजवानों का एक सर्वे इस बात की तस्दीक कर रहा है कि भ्रष्टाचार से कारगरण लड़ाई में सोशल मीडिया कारगर हथियार हो सकता है। इस सर्वे में शामिल नौजवानों में 78 प्रतिशत लोगों ने माना है कि सोशल मीडिया ने उन्हें मजबूत किया है।  देश का आम आदमी अपनी आवाज और भावनाओं को इन सोशल नेटवर्किंग साइटस के माध्यम से देश-दुनिया के सामने आसानी से पहुंचाता है। अन्ना के आंदोलन और प्रदर्शन को सफल बनाने में इन सोशल साइटस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भ्रष्टाचार, मंहगाई, घोटालों और तमाम दूसरी समस्याओं के विरोध में देशवासी खुलकर इन सोशल साइटस का इस्तेमाल करते हैं। सरकार धार्मिक भावनाएं भड़काने और आहत करने की आड़ में आम आदमी की आवाज को बंद करना की साजिश रच रही है। यूपीए सरकार की कुनीतियों, भ्रष्टाचार, मंहगाई और घोटालों से त्रस्त और गुस्साई जनता ने अपनी भड़ास निकालने के लिए इन सोशल नेटवर्किंग साइटस का जमकर प्रयोग किया है। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के अलावा तमाम दूसरे नेताओं और मंत्रियों की छीछालेदार और भद्द इन सोशल साइटस पर पिट रही है। सरकारी विज्ञापन और तमाम दूसरी सुविधाओं के लिए प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने नफा-नुकसान के गुणाभाग को देखकर ही सरकार की आलोचना या विरोध करता है। देश की जनता को मीडिया की हकीकत बखूबी मालूम है, ऐसे में ब्लागिंग से लेकर सोशल नेटवर्किंग साइटस के द्वारा देश की जनता अपनी भावनाएं प्रदर्शित करने के लिए करती है।

सोशल नेटवर्किंग साइटस की बढ़ती लोकप्रियता और आजादी सरकार को रास नहीं आ रही है। इसलिए धर्म की आड़ में सरकार अपनी प्रति बढ़ती नाराजगी, विरोध और आलोचना को रोकना चाहती है। इसी साल 11 अप्रैल को सरकार ने ‘इनफारमेशन टेक्नोलॉजी; इलेक्ट्रानिक सर्विस डिलेवरी रूल्स-2011’ की राजज्ञा जारी की थी। इस कानून में साफ तौर पर लिखा है कि विद्वेषपूर्ण, आपत्तिजनक, जुआ जैसे खेलों को प्रोत्साहन देने वाले, नग्न, बाल यौन षोशण, आपत्तिजनक टिप्पिणयों को नियत्रिंत करने की जिम्मेदारी कतिपय साइट के प्रशासक की होगी। लगभग सात महीने पूर्व बने इस कानून के बाद भी अगर सरकार किसी गाइडलाइन और आचार संहिता लागू करने की बात करती है तो ये सरकार की नीति और नीयत की पोल खोलती है।

सच्चाई यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर राज-काज चलाती हैं। राजनीतिक दलों के रवैये और व्यवहार से देश के बड़े तबके में नारजगी व्याप्त है। आम आदमी के दुख-दर्दे और परेशानियों को सरकार और अहम पदों पर आसीन महानुभावों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी लोकतंत्र का चौथा खंभा प्रेस निभाता रहा है, लेकिन दिनों-दिन व्यवासायिकता का चोला ओढ़ने और कारपोरेट कल्चर का शिकार मीडिया जनपक्षकार की भूमिका निभाने की बजाए सरकारी भोंपू बनता जा रहा है। वोट बैंक की घटिया और ओछी राजनीति के चलते लगभग सभी राजनीतिक दल अनाप-शनाप निर्णय, नीतियों और योजनाओं में आम आदमी के हक और हकूक के पैसे का जमकर दुरूपयोग करते हैं। सरकारी कुनीतियों के विरोध में जब आम आदमी सड़कों पर उतरता है तो उसका सामना पुलिस के लाठी-डंडों से होता है। जनलोकपाल बिल पर अन्ना और काले धन के खिलाफ रामदेव की मुहिम को दबाने के लिए सरकार और सरकारी मशीनरी ने सारे हथकंडे अपनाए थे। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी सरकार के विरोध में उठने वाली आवाज को दबाने के लिए सूबे में धरना, प्रदर्शन और जुलूस के आयोजन के लिए कानून बनाकर अपने प्रजातांत्रिक मंसूबे का खुलासा कर दिया है।

असलियत यह है कि सरकार अपने विरोध में उठने वाली आवाज की सच्चाई और वजह जानने की बजाए उसे दबाने का हर संभव प्रयास और हथकंडा अपना रही है। सामान्य स्थितियों और हालात में किसी के मुंह से अपशब्द निकलना संभव नहीं है। जब देश का आम आदमी सरकार के खिलाफ अपना विरोध, प्रदर्शन, बयानबाजी और गुस्सा प्रगट कर रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि देश के हालात सामान्य और परिस्थितियां ठीक नहीं हैं। आवेश और भावनाओं में बहकर सीमा और मर्यादा का उल्लंघन आम बात है लेकिन अगर देश की जनता खासकर पढ़ा-लिखा तबका लगातार सरकार, उसके नुमांइदों और उनकी कार्यप्रणाली पर छींटाकषी, बयानबाजी और नाराजगी जाहिर कर रहा है तो सरकार को स्वयं सोचना चाहिए कि आखिरकर क्या गलत हो रहा है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार जड़ का इलाज करने की बजाए पत्तों पर दवा का छिड़काव करके बीमारी का इलाज करना चाहती है।

लोकतंत्र में अपनी आवाज रखने का अधिकार हर नागरिक को है, और जब देश के नागरिक मर्यादा में रहकर अपनी बात सरकार के समक्ष रखते हैं तो प्रजातंत्र रूपी संस्था की सफलता और सार्थकता सिद्व होती है। लेकिन जनविरोधी नीतियों, भ्रष्टाचार और अड़ियल रवैये पर तुली सरकार अपनी कमियों, खामियों और भूलों को सुधारने की बजाए उनकी ओर इशारा करने और कुनीतियों के खिलाफ मुंह खोलने वालों का मुंह बंद करने पर आमादा है। देश की जनता धीरे-धीरे ही सही राजनीतिक दलों और नेताओं की हकीकत समझने लगी है, नेताओं को भी इसका बखूबी एहसास है, ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार जन भावनाओं को समझे। अभी तो ये गनीमत है कि बहुत से लोगों का गुस्सा सिर्फ इस आभासी दुनिया में निकल रहा है, सरकार की पाबंदियों से कहीं यह गुस्सा-यह विरोध वास्तव में सड़कों पर आ गया तो हालात बेकाबू हो जाएंगे? सरकार को अपने विरोध में उठने वाली आवाजों को बंद करने की बजाए उन पर उचित ध्यान देना चाहिए, इसी में देश, प्रजातंत्र और जनता की भलाई है।