Thursday, June 30, 2011

माया इसी साल करवा सकती हैं विधानसभा चुनाव

भट्ठा पारसौल की घटना ने यूपी के सियासी पारे को चढ़ा दिया है। जिस तरह यूपी सरकार और कांग्रेस पार्टी में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है उसने यूपी के सियासी हलकों में हलचल मचा रखी है। यूपी पुलिस के तथाकथित पुख्ता सुरक्षा बंदोबस्त को धता बताकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी मोटर साइकल से सुबह-सवेरे भट्ठा पारसौल के ग्रामीणों के बीच जा पहंुचने से माया सरकार की जो किरकिरी हुई उसका बयान नहीं किया जा सकता है। लगभग 12 घंटे के सियासी ड्रामे के बाद यूपी पुलिस ने फौरी तौर पर राहुल की गिरफ्तारी दिखाई और कुछ ही घंटों बाद उन्हें दिल्ली बार्डर पर छोड़कर गले में फंसी राहुल नाम की हड्डी से छुटकारा पाया। राहुल ने वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित होकर या फिर किसी अन्य निजी या दलीय स्वार्थ के वशीभूत होकर भट्ठा पारसौल में गांव वालों के बीच वक्त बिताया, उनके दुःख-दर्दे को सुना, समझा और अनुभव किया हो लेकिन एक बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जब यूपी पुलिस भट्ठा पारसौल के आस-पास दो किलोमीटर के दायरे में चिड़िया को भी उड़ान नहीं भरने दे रही थी तो वहां राहुल गांधी का पहुंचना कोई छोटी घटना नहीं है। अपनी झेंप मिटाने के लिए पहले यूपी सरकार का बयान आया कि भट्ठा पारसौल में रात को ही धारा 144 को हटा लिया गया था लेकिन फिर उसी रात राहुल को उन्हीं धाराओं में बंद करना आखिरकर खिसयानी बिल्ली खंभा नोचने की कहावत को ही सिद्व करता है। किसानों के दुःख-दर्दे और उनके साथ यूपी पुलिस के अमानवीय व्यवहार और बर्बरता का जिक्र राहुल ने भट्ठा पारसौल के किसानों के समूह के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी बताया है और राहुल ने यूपी सरकार पर किसानों की मौत के झूठे आंकड़ें और बर्बरता के फोटो और अन्य सुबूत भी पेश किए हैं। किसान विरोधी विचारधारा और भट्ठा पारसौल में जो कुछ भी माया सरकार और उनके जाबांज अफसरों ने किया उसके लिए पूरे देश भर में  माया सरकार के किसान और जन विरोधी छवि का निर्माण हुआ है। और जिसने भी भट्ठा पारसौल की हकीकत को सुना, देखा या पढ़ा उसने तीखे शब्दों में यूपी सरकार को भला-बुरा जरूर कहा।

भट्ठा पारसौल की घटना ने बैठे-बैठाए विपक्ष को मायावती के खिलाफ एक ठोस व बड़ा मुद्दा थमा दिया है। मायावती ने भी कांग्रेस और विपक्षी दलों पर तीखे वार किए हैं और उन्हें अपने गिरेबां में झांकने की सलाह भी दे डाली। अपनी सरकार के चार साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में मायावती ने प्रदेश के विकास हेतु करोड़ों रूपये की योजनाओं की घोषणा कर विकासमुखी सरकार के दर्शन करवाने की कोशिश तो जरूर की लेकिन भट्ठा पारसौल की घटना मायावती का पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है। मायावती को बखूबी ये मालूम है कि विपक्ष उनकी सरकार को सत्ता से बाहर करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। भट्ठा पारसौल की घटना को कांग्रेस ने जोर-षोर से उछाला है और केंद्र से यूपी में राष्ट्रपति शासन की मांग भी की है। केंद्रीय गृहमंत्री पी0 चिदंबरम से लेकर कांग्रेस के यूपी कोटे के केंद्रीय मंत्री और सांसद गाहे-बगाहे यूपी सरकार पर निशाने  साधने से चूकते नहीं है। राहुल गांधी यूपी सरकार और विशेषकर बहन मायावती के सबसे बड़ा सिरदर्द बने हुए हैं। राहुल के साथ उनकी टीम मेम्बर दिग्विजय सिंह, रीता बहुगुणा जोषी, पीएल पुनिया, बेनी प्रसाद वर्मा, जगदम्बिका पाल आदि कांग्रेसी नेता माया सरकार पर तीखे प्रहार करते ही रहते हैं। कांग्रेस के अलावा सपा, भाजपा, रालोद और पीस पार्टी भी चुनावी दंगल में कूदने को पूरी तरह से तैयार है। बसपा की तर्ज पर सपा, कांग्रेस, भाजपा और अन्य दल अभी से संभावित उम्मीदवारों की लगातार धोषणाएं कर रहे हैं। अंदर ही अंदर सब की तैयारी लगभग पूरी हो भी चुकी है। प्रदेश में छोटे दलों ने एक संयुक्त मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ने का मन बनाया है। रालोद, पीस पार्टी, बीएस4 आदि लगभग दर्जनभर दल मिलकर बड़े दलों की गुणा-भाग ध्वस्त करने की तैयारियों में जुटे हुए हैं। मायावती हर काम में मनमर्जी चलाती हैं और जहां उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती वहां वो या तो नया कानून बना देती हैं या फिर कानून को ताक पर रखकर मनमानी करने से बाज नहीं आती हैं। प्रदेश में धरना, प्रदर्षन और आंदोलन के लिए कानून बनाकर मायावती ने लोकतंत्र का गला घोंटने की तैयारी की है। इस कानून का व्याप्क तौर पर प्रदेश और देश  में विरोध हो रहा है। विपक्षी दलों के साथ ही साथ जन संगठनों ने इस कानून का भारी विरोध किया है। पंचायत चुनावों में धन और बाहुबल के सहारे बसपा ने अपने चेहतों को खास सीटों पर बिठाया था उसी तर्ज पर मेयर चुनाव की प्रक्रिया में भी परिवर्तन कर अपनों को मेयर की सीट पर बैठाने के सपने देख रही मायावती को राजभवन से झटका उस समय लगा जब राज्यपाल ने संशोधित कानून पर हस्ताक्षर ही नहीं किए। नाराजगी, सिर-फुटौव्वल, गुटबाजी से बचने के लिए पंचायत चुनावों में किसी भी दल ने चुनावी टिकट नहीं दिया था। लेकिन अपरोक्ष रूप से सभी दल अपने उम्मीदवारों का समर्थन और उन्हें जिताने की तिकड़मे भिड़ाते रहे। मायावती चाहती थी कि प्रदेश में निकाय चुनाव बिना पार्टी के चुनाव चिन्ह के हों लेकिन मायावती की इस चालबाजी को उच्च न्यायालय ने रोक लगाकर माया के सपने चकनाचूर कर दिए हैं। असल में माया अपने दल की कमजोरियों को बखूबी जानती और समझती हैं। माया को पता है कि शहरी क्षेत्रों में बसपा के पास कोई बड़ा जनाधार नहीं है ऐसे में निकाय चुनावों में भाजपा, कांग्र्रेस और सपा का पलड़ा ही भारी रहेगा। और अगर निकाय चुनावों का विधानसभा चुनावों का लिटमस टेस्ट मान लिया जाए तो प्रदेश में बसपा के विरूद्व हवा बह सकती है जिससे बसपा को भारी नुकसान होगा। हाई कोर्ट के निर्णय के बाद ही माया ने विधानसभा चुनावों की तैयारियों को और जोर-शोर से शुरू कर दिया। सरकार के चार साल पूरे होने पर आयोजित समारोह में माया ने कार्यकर्ताओं और पार्टी पदाधिकारियों को चुनाव के लिए तैयार रहने का ऐलान कर ही दिया है। माया कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहती कि विपक्ष उन पर हावी हो पाए इसलिए संभावना यह व्यक्त की जा रही है कि दिनों दिन प्रदेश में विपक्षी दलों के मुखर विरोध और तीखे हमलों के साथ अपने ही दल के नेताओं, मंत्रियों और विधायको की करतूतों से परेशान मायावती इसी साल अक्टूबर या नवंबर में चुनाव करवाने का मन बना रही हैं।

विपक्ष माया से खार खाए बैठा है और वो कोई भी ऐसा मौका जिससे माया सरकार की बदनामी और किरकरी हो अपने हाथ से छोड़ना नहीं चाहता है। चुनाव होने में अभी एक साल का समय शेष है और इस एक साल में हवा किस तरफ बह जाए किसी को इसका अंदाजा नहीं है। रिवायत के अनुसार जो गद्दी पर होता है दोष भी उसके माथे पर लगता है और जो भी नफा-नुकसान होता है वो उसी के खाते में जाता है। जहां मायवती को गद्दी पर रहते हुए चुनाव लड़ने का फायदा मिलेगा वहीं सरकार ने अपने कार्यकाल में प्रदेश के किसान, गरीब, महिलाओं, पिछड़ों, दलितों और जरूरतमंदों की बेहतरी के लिए जो भी कुछ किया है उसका हिसाब-किताब माया को प्रदेश की जनता को देना होगा। विपक्ष लगातार माया सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाता आ रहा है। सरकार अपने बचाव में चाहे लाख दलीले दे लेकिन दाल में कुछ काला है, कि संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार प्रदेश में उधोग-धंधे चौपट हो रहे हैं, निवेशक प्रदेश से मुंह फेर चुके हैं, बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है, सरकार सरकारी चीनी मिलों को औने-पौने दामों पर अपने चेहतों को बांट रही है और राजस्व के सबसे बड़े स्त्रोत आबकारी में जो मनमानी, गुण्डागर्दी, खुली लूट और एकछत्र राज चलवाया जा रहा है वो किसी से छिपा नहीं है। प्रदेश में विकास कार्यों के नाम पर जो खुली लूट हो रही है उसका हिसाब माया को चुनाव के समय तो देना ही होगा। वहीं समय रहते बसपा का कुनबा संभालने, व्यवस्थित करने में भी मायावती को कसरत तो करनी ही होगी, वहीं मंत्रियों, नेताओं, विधायकों और मुंहलगे अफसरों की करतूतों पर डैमेज कंट्रोल करना भी कोई आसान बात नहीं है। देखा जाए तो मायावती चारों ओर से घिरी हुई है और पूरा विपक्ष केवल एक ही मकसद अर्थात बसपा सरकार को हटाने के मकसद साथ चुनाव मैदान में उतरेगा।

माया सरकार के काम-काज के पिछले चार साल का रिर्काड देखा जाए तो सरकारी किताबो और फाइलों में चाहे जो भी बड़े-बड़े दावे किए जाएं लेकिन असलियत यह है कि माया ने साल 2007 में गद्दी पर बैठते ही सूबे में पार्कों, स्मारकों, दलित महापुरूषों और खुद अपनी मूर्तियां लगवाने के अलावा कोई नया या अनूठा काम नहीं किया है जिसके उसकी पीठ थपथपाई जा सके। वहीं सरकारी विभागों में बढ़ता भ्रष्टाचार, धांधली, कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति माया सरकार की पेशानी पर बल डालने के लिए काफी है। माया सरकार पर जब भी विकास विरोधी होने के आरोप लगे उसने केंद्र सरकार पर आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करती ही नजर आई लेकिन हकीकत में उसने काम करने की गंभीर कोशिश की भी नहीं है। लगभग हर मुद्दे पर माया सरकार केंद्र सरकार पर आरोप लगाकर ही अपनी नाकामियों को ढकने का जो नाटक करती रही है उसका खामियाजा भी इन चुनावों में उसे भुगतना होगा। अगर ये मान भी लिया जाए कि केंद्र ने प्रदेश के विकास हेतु वांछित धनराशी नहीं भेजी है लेकिन जो भी धन केंद्र से प्रदेश सरकार को प्राप्त हुआ है अगर उसी को ईमानदारी से विकास कार्यों में लगाया जाता तो प्रदेश की सूरत में बदलाव आ सकता था। मानाकि प्रदेश बड़ा है और समस्याएं भी कम नहीं है लेकिन छोटे-छोटे कदमों और प्रयासों से ही बड़े-बड़े कामों को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। लेकिन माया सरकार का हर कदम और बयान राजनीति से प्रेरित होता है ऐसे में सरकार और सरकारी अमला दिल खोलकर सरकारी खजाने को लूट रहा है और जनता को दिखाने के लिए माया केंद्र सरकार पर यूपी की अपेक्षा का रटा-रटाया आरोप लगाकर अपना पल्ला आसानी से झाड़ लेती हैं। जो इक्का-दुक्का भले काम माया के शासन में हुए भी हैं उन्हें सरकारी मशीनरी ठीक तरह से प्रचारित ही नहीं कर पाई और जनता के बीच विपक्षी दलों का एक ही मैसेज गया कि मायावती का सारा ध्यान मूर्तियों, पार्कों और स्मारकों में ही लगा है। वहीं मायावती ने पिछले चार सालों में प्रदेश के आम आदमी से रूबरू होने की कोई नीति या कवायद ही नहीं कि माया केा उनके चेहते अफसरों और मंत्रियों ने जो समझा दिया माया ने आंख मूँद  कर उसे सत्य माना लेकिन कुर्सी के आगे पीछे चक्कर लगाने वाले अफसर सत्ता बदलते ही गिरगिट की भांति रंग बदल लेते हैं। ऐसे में जनता की नाराजगी का सीधा नुकसान माया को ही भुगतना होगा उनके चेहते अफसरों को नहीं ऐसे में आम आदमी से माया की दूरी उनके लिए बड़ा सिरदर्द बनेगी। मार्च माह के प्रदेष दौरों के दौरान मायावती को कई स्थानों पर जनता की नारजगी का सामना करना पड़ा था। वहीं प्रदेश में बढ़ते अपराध, दलितों के साथ बढ़ते अत्याचार, बलात्कार और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों का ग्राफ मायावती के लिए चिंता का बड़ा कारण है। वही विपक्ष चुनावी बेला में माया सरकार के एक दर्जन से अधिक दागी मंत्रियों और विधायकों का मुद्दा भी जोर-शोर से उछालेगा।

प्रदेश में तय समय से चुनाव होने में अभी लगभग एक साल का समय शेष  है लेकिन विपक्ष के तीखे तेवरों और हमलों से बिलबिलाई और झुंझलाई मायावती ये कभी नहीं चाहेगी कि विपक्ष को बैठे-ठाले उनकी सरकार को घेरने के मुद्दे मिल जाए। अभी लगभग सभी दल निकाय चुनावों की तैयारियों में जुटे हुए हैं क्यों कि निकाय चुनाव के नतीजे आगामी विधानसभा चुनावों पर व्यापक असर डालेंगे वहीं अभी हाल ही में पांच प्रदेषों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे भी यूपी की सियासत पर खासा असर डाल सकते हैं। वहीं दल बदल की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। अभी हाल ही में बाराबंकी जिले के प्रभावशाली  बसपा नेता फरीद महफूज किदवाई ने बसपा छोड़ अपने पुराने समाजवादी परिवार में शामिल हो गए हैं। किदवाई का सपा में जाना बसपा के लिए भारी झटका है। किदवाई की भांति दूसरे कई विधायक भी चुनावी बेला में बसपा का दामन छोड़ कर किसी और का दामन थाम लें तो क्यों अचरज की बात नहीं होगी। वहीं एक ही महीने में बसपा की दो विधायकों शेखर तिवारी को इंजीनियर मनोज गुप्ता और विधायक आनंद सेन को शशि  हत्याकांड में हुई उम्रकैद की सजा ने भी बसपा की छवि को गहरा धक्का लगाया है। वहीं राजधानी लखनऊ में दो-दो सीएमओ की हत्याओं ने बिगड़ती कानून व्यवस्था, सरकारी महकमों में व्यापत भ्रष्टाचार और ठेकेदार, नेताओं और अफसरों की मिलीभगत का खोल कर रख दिया है। वर्तमान विधानसभा में बसपा के 226, सपा के 87, भाजपा के 48, कांग्रेस के 20, रालोद के 10, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी के 1 और 9 निर्दलिय विधायक हैं। संख्या के हिसाब से तो बसपा का पलड़ा भारी लगता है लेकिन माया के इन चार सालों के कार्यकाल में जो कुछ भी हुआ है वो बसपा के खिलाफ ही जाता है। इन हालातों में माया जितनी देरी करेंगी उनके मुसीबतों में लगातार इजाफा होता जाएगा और विपक्ष को उन्हें घेरने काफी समय मिलेगा। ऐसे में माया समय से पहले चुनाव करवा सकती हैं। सूबे में जो सियासी हवाएं बह रही हैं उनसे समय से पहले चुनाव होने की खुशबू आ रही है।

Wednesday, June 29, 2011

मशाल बुझनी नहीं चाहिए

जंतर-मंतर में अनशन कर गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के विरूद्व जो शंखनाद किया है वो असल में काबिलेतारीफ है। बरसों-बरस से भ्रष्टाचार की चक्की में  पिस रही देश  की जनता को जगाने और आम आदमी को उसके भीतर छिपी शक्ति का एहसास अन्ना के आंदोलन ने करा दिया। लोक पाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में सिविल सोसायटी के सदस्यों को शामिल करवाकर अन्ना ने प्रशासन और संवैधानिक मसलों पर आम आदमी की सच्ची भागीदारी को सुनश्चित भी किया है। भ्रष्टाचार देश की व्यवस्था और तंत्र में लगी वो लाइलाज बीमारी है जो सरे आम देश के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वास्थ्य को लगातार खराब कर रही है। सरकारी महकमों से लेकर देश के कोने-कोने में भ्रष्टाचार का भूत सीना तान कर विचरण कर रहा है और सब कुछ जानते, समझते हुए भी देश को आदमी बिना किसी कष्ट और प्रतिरोध के भ्रष्ट व्यवस्था का शीश  झुकाकर या फिर निजी स्वार्थों को साधने के लिए पोषक और हितेषी बना हुआ है। लाखों भ्रष्टाचारियों की भीड़ में अगर इक्का-दुक्का आवाज भ्रष्टाचार के खिलाफ उठती भी है तो वो भीड़ में  दब कर रह जाती है। ऐसे विपरित और विषम परिस्थितियों में अन्ना ने जिस हिम्मत और संघर्ष की राह सारे देश को दिखाई है उसने आम आदमी को भ्र्रष्टाचार से लड़ने की हिम्मत देने के साथ ही साथ एक नयी सोच को भी जन्म दिया है कि भ्रष्टाचार से मिलकर लड़ा और जीता जा सकता है।
आजादी से लेकर अगर आज तक कच्चा-चिट्ठा खंगाला जाए तो सैंकड़ों घोटालों और गड़बड़ियों की लंबी फेहरिस्त आपको मिलेगी। दिल्ली के तख्त पर चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो सच्चाई यह है कि देश को लूटने और भ्रष्टाचार का ग्राफ ऊपर चढ़ाने में किसी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लगभग सभी दल और सैंकड़ों नेता भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हुए हैं। हाल ही में उजागर हुए आदर्श हाउसिंग, राष्ट्रमंडल खेल और 2जी स्पेक्ट्रम घोटालों ने देष की अर्थव्यवस्था को तो बुरी तरह प्रभावित किया ही है वहीं अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को गहरा धक्का लगा है। आज देश  में हर क्षेत्र और विभाग में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला और कब्जा है। भ्रष्ट व्यवस्था घुन की भांति देश के आम जनमानस के हिस्से के अनाज से लेकर विकास का पैसा और सामग्री चट कर रही है और गरीब आदमी आज भी तिल-तिल कर मरने को मजबूर है। भ्रष्टाचार के कारण गरीबों के लिए संचालित की जा रही लाखों-करोड़ों रूपयों की योजनाएं नाकाम साबित हो रही है। योजनाओं का लाभ अपात्रों या फिर काले धन के रूप में सरकारी अफसरों, मंत्रियों और बाबुओं के बैंक बैंलेस को ही बढ़ा रहा है। अनाज, स्वास्थ्य सेवाएं, रोजगार, विकास, पर्यावरण, शिक्षा और अन्य अनेक क्षेत्रों में देश के आम आदमी और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों के लिए जो भी योजनाएं चलाई जाती हैं वो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। सरकारी अमला और एजेंसियां लंबी चौड़ी कागजी कार्रवाई से सरकारी फाइलों पर ही विकास, उत्थान, उन्मूलन और झूठे आंकड़ें की बाजीगरी को ही अपनी उपलब्धि मानते हैं। जनता का दुःख-दर्दे और पीड़ा सुनने का समय किसी के पास भी नहीं है। जिन तथाकथित प्रतिनिधियों को हमने और आपने चुनकर संसद और विधानसभा में भेजा है वो अपने और अपनों के लिए सुख-सुविधाएं और आराम के तमाम दूसरे साधन जुटाने में ही व्यस्त हैं।

राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के अनुसार देश में आम आदमी के पास राजनीतिक दलों की मदद लेना या उनका पिछलग्गू बनना एक तरह से मजबूरी ही है। क्यों कि राजनीतिक दलों के अलावा देश की जनता के पास ऐसा कोई बड़ा संगठन या मंच उपलब्ध नहीं है जिसका प्रयोग वो देश की सरकार को जगाने और अपनी दुःख-तकलीफ बताने के लिए कर सकें। सरकार को घेरने के लिए विपक्षी दल ही आम आदमी का एकमात्र सहारा बनते हैं। लेकिन अंदर ही अंदर सब राजनीतिक दल अपने वोट बैंक और दल की नीतियों को ध्यान में रखकर ही आंदोलनों का खाका खींचते हैं और अपने हितों के लिए ही आम आदमी की अपार ताकत को ‘यूज’ करते हैं। परिणामस्वरूप आम आदमी की असली आवाज कहीं दबकर रह जाता है। राजनीतिक दल अपना हित साधने के बाद जनहित से जुड़े मुद्दों और मसलों को किनारे रख देते हैं ऐसे में आम आदमी खुद को अपाहिज, असमर्थ और अनाथ अनुभव करने लगते हैं। मंच के अभाव में बरसों बरस जनता राजनीतिक दलों की फुटबाल बनी रही और हमारे तथाकथित नेता जनता को इधर से उधर उछालते रहे। राजनीतिक दलों की मिलीभगत और षडयंत्र को अन्ना के अनशन ने छिन्न-भिन्न कर दिया है। आज लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल अन्ना और उनकी टीम से घबराया हुआ है। अन्ना ने आम आदमी को एक सशक्त और ठोस मंच प्रदान किया है। असलियत यह है कि अंदर ही अंदर देश का आम आदमी भ्रष्टाचार से ऊब चुका है और भ्रष्टाचार से स्थायी रूप से निजात चाहता है। जंतर-मंतर पर उमड़े जनसमूह और देश के कोने-कोने से मिले जनसमर्थन ने अन्ना के मनोबल को तो बढ़ाया ही वहीं सरकार को भी ये चेता दिया कि जनता को कम करके आंकना या उनके धीरज की परीक्षा लेना ठीक नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्व देश भर में बने वातावरण ने हाल ही में पांच प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनाव परिणामों पर व्याप्क प्रभाव डाला है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सत्ताधारी दलों की जो दुर्गति जनता ने की है वो भ्रष्टाचार के विरूद्व आम आदमी की भावनाओं और क्रोध का ही प्रदर्शन तो है।

भ्रष्टाचार किसी भी देश के माथे पर कलंक तो है ही वहीं देश के आर्थिक स्त्रोतों और संसाधनों का भी भारी क्षति पहुंचाता है। भ्रष्टाचार के कारण देश में विकास कार्य बाधित होते हैं और आदमी विकास की लहर से वंचित रह जाता है। देश के आम आदमी को असल में ये मालूम ही नहीं है कि उसके कल्याण और उत्थान के लिए हर साल करोड़ों रूपये का बजट पास होता है। नेता, अफसर और ठेकेदार की तिगड़ी मिलकर भ्रष्टाचार का पालन-पोषण करती है और मिलकर मलाई काटती है। इस देश में आम आदमी इतना बेबस और असमर्थ है कि वो देश की संसद तक तो क्या इलाके के कारपोरेटर तक अपनी आवाज नहीं पहुंचा सकता है। सरकारी मकड़जाल और पेचीदा नीतियां आम आदमी को कुछ समझने का मौका ही नहीं देती हैं। जिस देश में आधे से अधिक आबादी निरक्षर और गांवों में निवास करती हो वहां चालाक, धूर्त और भ्रष्ट सरकारी अमला भोली-भाली जनता को अपने चंगुल में फंसाकर फाइलों और सरकारी कागजों में विकास की गंगा बहा देता है। विडम्बना यह है कि देश की पढ़ी लिखी जनता के पास इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वो देश में हो रहे अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार और आम आदमी से जुड़े मुद्दों का विरोध कर सके। जनता की इसी मजबूरी और हालात का लाभ चालाक, स्वार्थी और धूर्त तथाकथित नेता उठाते हैं और जनता का शोषण करते रहते हैं।

अन्ना ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने और साफ-सुथरी व्यवस्था के लिए जो पाक अभियान षुरू किया है उससे देश के आम आदमी को बड़ी उम्मीद और आस है। कहावत है कि एक अकेला चना, भाड़ नहीं फोड़ सकता है उसी तरह एक अकेले अन्ना या उनकी टीम के सदस्य भी भ्रष्टाचार तक आंकठ में डूबी व्यवस्था और तंत्र का चाल-चेहरा और चरित्र अपने दम पर बदल नहीं सकते हैं। अन्ना की असली षक्ति हम-आप और हर भारतीय है। आज आवशयकता इस बात की है कि अन्ना ने भ्रष्टाचार के घने अंधेरे को चीरने के लिए जो मशाल जलाई है उसे हम सब को मिलकर मशाल को जलाए रखना होगा। क्योंकि भ्रष्टाचार के विरूद्व लड़ाई लंबी और मुशकिलें भरी है। ऐसे में हम सब को कंधे से कंधे और कदम से कदम मिलाकर काम करना और चलना होगा तभी आसुरी और भ्रष्ट ताकतों से हम लोहा ले पाएंगे। क्योंकि ये सच्चाई है कि जब जनता एक मंच पर आकर सस्वर चिल्लाने लगती है तो शक्तिशाली सत्ता और सिंहासन हिलने लगते हैं।