Thursday, July 28, 2011

इमली बांध बाबा मंदिर

भारत भूमि को प्रांरभ से ही देवभूमि होने का गौरव प्राप्त है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेश हो जहां ऋषि-मुनियों की चरणरज न पहुंची हो। समय-समय पर साधु-संतों ने संतप्त मानवता को सत्य शिक्षा व ज्ञान प्रदान कर शीतलता प्रदान की। इसी अनवरत श्रृंखला में उ0प्र0 की राजधानी लखनऊ के ग्रामीण अंचल में स्थित इमली बांध बाबा मंदिर जनपदवासियों के लिए अपार श्रद्वा का केंद्र है। जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर लखनऊ-फैजाबाद मुख्य मार्ग पर पूर्वोत्तर दिशा में ये पवित्र स्थल अवस्थित है। चिनहट ब्लाक के गांव उत्तरधौना के मजरे तारापुरवा में ये मंदिर आता है।

गांव के बुजुर्गों के अनुसार बाबा बैसवारा (सिसोदिया वंषज) ठाकुर थे। बाबा मूल रूप से जनपद रायबरेली (डोडियाखेड़ा) के रहने वाले थे। नवाबी शासन काल में बाबा व ठाकुर बिरादरी के काफी लोग जनपद रायबरेली से राजधानी लखनऊ स्थानातंरित हो गए थे। बाबा के वंशजों ने ही जनपद लखनऊ का गांव उत्तरधौना, पपनामऊ व जनपद बाराबंकी का गांव बस्ती हरौड़ी बसाया था। बाबा जन्म से ठाकुर व कर्म से ब्राहाण थे। इंदिरा नहर पर बांध निर्माण के दौरान कई अड़चनें आ रही थी तब एक स्थानीय ग्रामीण के कहने पर ठेकेदार ने बाबा के स्थान पर मन्नौती मांगी । कहते हैं कि उस दिन के बाद से बांध का कार्य निर्बाध रूप से चला व मन्नत के अनुसार ठेकेदार ने बाबा का चबूतरा व षिव मंदिर का निर्माण करवाया। पूर्व में यहां इमली का बांध बना था व पूरे इलाके में इमली के पेड़ों का घना जंगल था इसलिए मंदिर का नामकरण इमली बांध बाबा मंदिर हो गया। बाबा का वास्तविक नाम क्या था किसी भी बुजुर्ग को इसकी जानकारी नहीं है लेकिन बाबा के चमत्कारों के किस्से यहां-छोटे बड़े सबकी जुबान पर हैं।

मंदिर खुले व विशाल प्रांगण में निर्मित है। चारों ओर फैली हरी वनस्पति सबको अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर लेती है। चबूतरे पर सफेद संगमरमर की शिला पर बाबा का काल्पनिक चित्र अंकित है। बाबा का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है किसी भक्त ने अपनी कल्पना से बाबा का चित्र संगमरमर की शिला पर अंकित करवा दिया था। पहले इस स्थान पर इमली का वृक्ष था। वर्तमान में यहां पर बरगद, पीपल व नीम का वृक्ष है। बाबा का चित्र किसी के पास उपलब्ध नहीं है। मंदिर में छोटी-बड़ी सैंकड़ों घण्टियां बंधी हैं जो भक्तों की आस्था व विशस का प्रतीक हैं। बाबा के मंदिर के आगे दायीं ओर सुंदर यज्ञषाला निर्मित है। यज्ञशाला से आगे हनुमान जी, शंकरजी का मंदिर स्थित है। मंदिर श्रृंखला में आगे मां दुर्गा का मंदिर निर्माणाधीन है। भव्य प्राकृतिक वातावरण में घिरा मंदिर खुले विशाल प्रांगण में स्थित है। मंदिर प्रांगण में पेड़-पौधों की भरमार है। जो मंदिर क्षेत्र को अद्भुत सुशमा प्रदान करते हैं। मंदिर के पार्शव में तालाब है जो कि इमली बांध बाबा का तालाब के नाम से प्रसिद्व है। पहले इस तालाब में भरपूर पानी रहता था पवित्र सरोवर में स्नान कर भक्त बाबा के दर्शन करते थे। वर्तमान में तालाब सूख चुका है।

बाबा के मंदिर के सामने शिवाला व हनुमान जी का प्राचीन मंदिर स्थित है। दोनों मंदिर ठेकेदार के बनवाये हुए हैं। मंदिर के साथ पुजारी जी का कमरा बना है। भक्तों व यात्रियों की सुविधा हेतु मंदिर परिसर में रैन बसेरा निर्मित है। मंदिर की कोई प्रबंध समिति नहीं है मंदिर की व्यवस्था आस-पास के गांव की पंचायतें मिलकर सामूहिक रूप से करती हैं।

आस-पास के क्षेत्रों में मंदिर की बड़ी मान्यता है। भक्तों का विश्वास है कि बाबा के दरबार से आज तक कोई निराश नहीं लौटा है। मंदिर की चारों दिशाओं में उत्तरधौना, धांवा, सेमरा, पपनामऊ व अनौराकलां गांव बसे हैं। पूरे जंमार के गांवों में जब भी कोई नई बहू आती है तो वो पहली बार खाना बनाकर बाबा को भोग लगाती है तदुपरांत उसका आगमन पूर्ण माना जाता है। ये परंपरा बरसों से पूरे इलाके में प्रचलित है। ग्रामीणों के अनुसार स्थानीय तारापुरवा के बालक राम व छत्तौना के राधे बाबा ने मन्नत पूरी होने पर अपनी जीभ ही काटकर बाबा पर चढ़ा दी थी। अगली सुबह उनकी जीभ पूर्ववत हो गई। बाबा के दरबार से सैकड़ों निःसंतानों को संतान का फल मिला।

स्थानीय ग्रामीण जानवर के बच्चा व दूध न देने पर बाबा के यहां मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर मंदिर में श्रद्वा से दूध चढ़ाते हैं। प्रथा के अनुसार आस-पास के गांव की लड़कियां अपने बच्चों का मुण्डन बाबा के स्थान पर ही करती हैं। मंदिर की देखभाल बाबा शोभादास व रामसजीवन दास करते हैं। बाबा रामसजीवनदास सतनामी अखाड़े के महान संत बाबा जगजीवन राम जी के चेले हैं।

हर महीने की पूर्णिमा को मंदिर परिसर में भारी मेला लगता है। सप्ताह के प्रत्येक सोम व शुक्रवार को मन्नौती मांगने व भेंट चढ़ाने वालों की लंबी कतारें लगती हैं। आषाढ़ व कार्तिक माह की पूर्णिमा में मंदिर में विषेष पूजा-अर्चना व भण्डारे का प्रबंध होता है। ग्रामीण क्षेत्र में स्थित ये देव स्थल प्रशासन की उपेक्षा के कारण विकसित नहीं हो पाया है। मुख्य मार्ग से लगभग डेढ किलोमीटर की दूरी पर मंदिर स्थित है। मंदिर का संपर्क मार्ग अर्ध निर्मित है। वर्षा ऋतु में पानी भर जाने से भक्तों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ता है।

Wednesday, July 27, 2011

बहन जी को चढ़ी है खुमारी और चैनलों की है तैयारी

नोएडा एक्सटेंशन के गांव हैबतपुर, बिसरख, इटैडा, घघोला, रोजा याकुबपुर, देवला के अलावा बादौली, घोड़ीबछेड़ा, कोडली बागर, सलारपुर खादर के किसानों की याचिका पर सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट मंे मंगलवार को होगी। इन गांवों के किसानों के वकीलों का कहना है कि तीन गांवों पर फैसला सुनाए जाने की संभावना ज्यादा है। ये हैं रोजा याकुबपुर, देवला और एक्सप्रेस-वे से सटा बादौली गांव। मंगलवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट से निकलने वाले निर्णय पर नोएडा एक्सटंेंशन का भविष्य काफी हद तक निर्भर करता है, सुनवाई से कई दिन पहले ही न्यूज चैनलों और मीडिया के लिए नोएडा एक्सटेंशन में जमीन अधिग्रहण का मसला ‘हाॅट केक’ बना हुआ है। लगभग संपूर्ण मीडिया इस मुद्दे की लाइव कवरेज, किसान पंचायत, निवेशकों के मांगों और प्रदर्शन के साथ ही साथ किसानों की पंचायत लगाकर मसले को विस्तार से समझाने और सरकार पर दबाव बनाने और किसानों को उनका हक और अधिकार दिलाने की कोशिश में रात-दिन एक किये है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि किसान, बिल्डर और नोएडा एक्सटेशन में सपनों के घर का सपना संजोए लोगों की हाहाकार और मांगों पर ध्यान देने की बजाय यूपी सरकार मदमस्त हाथी की भांति आराम फरमा रही है। नोएडा एक्सटेंशन में जमीन से जुड़ी समस्याओं और किसान-पुलिस संघर्ष की गाथा किसी से छिपी नहीं है बावजूद इसके सरकार मुद्दे को उलझाने और कानूनी तौर अपना पक्ष मजबूत करने में व्यस्त है। सरकार इस मुद्दे को जितना हल्का करके ले रही है उतना ये मुद्दा असल मंे है नहीं। ऊपरी तौर पर ये मसला किसानों से जुड़ा दिखाई देता है लेकिन आज इसमें बिल्डर और निवेशक भी शामिल हो चुके हैं। जो समस्या किसी समय सैंकड़ों किसानों से जुड़ी थी आज वो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर लाखों लोगों को प्रभावित कर रही है। लेकिन माया सरकार के भ्रष्ट, सुस्त, कामचोर और कमीशनखोर अफसर और कर्मचारी कानों में तेल डाले बैठे हैं और सूबे की जनता दर-दर भटकने और आंदोलन करने को विवश है।

गौरतलब है कि पिछले एक दशक में नोएडा और नोएडा एक्सटेंशन में विकास और उलूल-जलूल बहाने बनाकर यूपी सरकार ने किसानों से उनकी उपजाऊ जमीन को हड़पने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक अनुमान के अनुसार पिछले एक दशक में सरकार ने कुल 85 हजार एकड़ जमीन सरकार ने किसानों से अधिग्रहीत की। नोएडा में 1976 से 1997 के बीच जिन 11 गांवों की जमीन पुरानी अधिग्रहण पॉलिसी के तहत अधिग्रहीत की गई थी, वहां के किसानों ने सोमवार को एमपी सुरेंद्र सिंह नागर और चेयरमैन नोएडा अथॉरिटी बलविंदर कुमार से मुलाकात कर अपनी छह प्रमुख मांगें रखीं। किसानों का कहना है कि उन्हें भी पांच प्रतिशत जमीन दी जाए। हरौला, निठारी, चैड़ा सादतपुर, अट्टा, छलेरा बांगर, मोरना, नयाबांस, झुंडपुरा, रघुनाथपुर, गिझौड़, आगाहपुर व बरौला गांव के किसान शामिल थे। शाहबेरी और पतवाड़ी गांव के किसानों के हक में फैसला आने के बाद दूसरे गांव के किसानों के दिल में भी ये उम्मीद जगी है कि कोर्ट उनके हक में फैसला सुनाएगा।

पूरे मामले में किसान, निवेशक और बिल्डर ही इधर-उधर भटकते और बयानबाजी करते नजर आ रहे हैं लेकिन सरकार पूरे सीन से गायब है लेकिन लोकतंत्र के चैथे स्तंभ प्रेस ने किसानों और निवेशकों के हक और हकूक की लड़ाई का बीड़ा उठा रखा है। नोएडा जल रहा है और सरकार आराम फरमा रही है। असल में भट्ठा पारसौल में किसानों और पुलिस के बीच हुयी गोलीबारी और लूटपाट ने माया सरकार को कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा है। कांग्रेस युवराज राहुल गांधी ने भट्ठा पारसौल के किसानों की समस्या और दुख-दर्दे का साथी बनकर माया सरकार को कदम कदम पर घेरने की कारगार रणनीति से माया सरकार पर किसान विरोधी होने की मुहर लगा दी। बची खुची कसर राहुल की पदयात्रा और अलीगढ़ के नुमाइश मैदान में आयोजित किसान महापंचायत ने पूरी कर डाली। पूरे प्रकरण पर गौर किया जाय तो भट्ठा पारसौल में पुलिस-प्रशासन का तांडव माया सरकार के ताबूत में आखिरी कील तो नहीं लेकिन किसान विरोधी साबित जरूर कर गया। राहुल की पदयात्रा और किसान पंचायत से घबराई माया समय से पूर्व चुनाव करवाने की तैयारी तो कर ही रही है वहीं शाहबेरी और पतवाड़ी के किसानों के हक में फैसला आने के बाद सरकार ने इस मुद्दे पर मुंह ने खोलने की शायद कसम खा ली है। विधानसभा चुनावों के मद्देनजर मायावती ये नहीं चाहती है कि सरकारी बयानबाजी और कार्यवाही से विपक्षियों को बैठे-ठाले कोई मुद्दा मिले। वहीं पिछले दो तीन महीनों सरकार की जो किसान विरोधी छवि बनी है, अभी सरकार उसी के डैमेज कंट्रोल पूरा नहीं कर पाई है। ऐसे में जब राहुल गांधी, अजीत सिंह और मुलायम सूबे में पूरी तरह से सक्रिय है ऐसे में किसानों से जुड़े मसलों पर बयानबाजी करके सरकार किसी पचड़े मेें पड़ना नहीं चाहती। सरकार को मालूम है कि कानून दाव पेंच में उलझाकर ही इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। नोएडा अथॉरिटी के चेयरमैन बलविंदर कुमार वकीलों की लंबी चैड़ी फौज के साथ इलाहाबाद में डटे हैं। फैसला चाहे किसी के पक्ष में आये यूपी सरकार फिलहाल इस मामले में हाथ डालने से बच रही है क्योंकि माया नहीं चाहती है कि चुनावों से पहले फिर से किसान आंदोलन की आग में भड़के और सरकार को चुनावों में किसानों, निवेशकों के गुस्से का खामियाजा उठाना पड़े। देखा जाए तो जो जिम्मेदारी सरकार और जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोगों को निभानी चाहिए थी वो डयूटी मीडिया निभा रहा है। अगर माया ये सोच रही है कि उनके आंखें मूंदने से समस्या टल जाएगी तो वो खुशफहमी का शिकार हैं, जिसका खामियाजा उन्हें आगामी चुनावों में भुगतना होगा।

Tuesday, July 26, 2011

‘अमर’ के लिए ही क्यों होता है मुलायम के दिल में ‘कुछ-कुछ’

कैश फॉर वोट कांड में जिस तरह नित नए खुलासे हो रहे हैं उसमें बड़े-बड़ों के दामन पर छींटे पड़ते दिखाई दे रहे हैं। कोर्ट की फटकार के बाद आखिकर तीन साल बाद दिल्ली पुलिस ने इस मामले में संजीव सक्सेना और सुहैल हिंदुस्तानी को गिरफ्तार किया है। संजीव और सुहैल से मिली जानकारी के बाद समाजवादी पार्टी के पूर्व महासचिव राज्यसभा सांसद अमर सिंह से दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रंाच ने पूछताछ की। अमर सिंह से पूछताछ में के आधार पर धीरे धीरे जांच का दायरा फैलता जा रहा है। सपा सांसद रेवती रमण सिंह और कांग्रेसी नेता अहमद पटेल का नाम भी सामने आ रहा है। लेकिन इन तमाम बातों के बीच सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह के दिल में अपनी पार्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह के लिए एकाएक जागा प्रेम कुछ ओर ही संकेत करता है। क्योंकि राजनीति में हर बयान में गूढ़ अर्थ और स्वार्थ छिपा होता है ऐसे में मुलायम सिंह की मुख से अमर सिंह के लिए ‘मुलायम’ बातें सुनकर कुछ अटपटा लगना स्वाभाविक है। क्योंकि जो अमर सिंह सपा को मिटाने और मुलायम सिंह को उसकी औकात बताने की धुड़की और धमकी देता है उसकी तरफदारी किस मजबूरी और स्वार्थवष मुलायम सिंह कर रहे हैं। क्या सपा सांसद रेवती रमण सिंह को बचाने के लिए या फिर आगामी यूपी विधानसभा चुनावों में सपा की छवि साफ-सुथरी रखने की कवायद में मुलायम अमर सिंह की तरफदारी कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुलायम अमर के बहाने कांग्रेस को लपेटने के जुगाड़ में हैं। दाल में कुछ तो काला जरूर है क्योंकि मुलायम के अमर प्रेम के पीछे की कहानी में पेंच और राज से इंकार नहीं किया जा सकता। कोई खास वजह है तभी तो सियासी अखाड़ें के पुराने धुरंधर मुलायम सिंह अपने धुर विरोधी के तरफदारी और हिमायत कर रहे हैं।

गौरतलब है कि 22 जुलाई 2008 को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा आयोजित विश्वास मत के दौरान गैरहाजिर रहने के लिए भाजपा के तीन सांसदों अशोक अर्गल, महावीर भगोरा और फग्गन सिंह कुलस्ते को खरीदने की कयावद शुरू की गई थी। पूर्व एसपी नेता अमर सिंह और कुछ कांग्रेसी नेताओं ने उससे 2008 में मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास मत के समर्थन में वोट के लिए कुछ बीजेपी सांसदों से सौदा करने के लिए संपर्क किया था। अमर सिंह के पूर्व सहयोगी संजीव सक्सेना को कुछ सांसदों के यहां रुपये पहुंचाने का आरोप है। सांसदों ने आरोप लगाया था कि उन्हें तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा आयोजित विश्वास मत के दौरान गैरहाजिर रहने के लिए पैसे दिए गए थे। इस मामले में तीन साल के बाद भी दिल्ली पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। 15 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए पूछा कि अब तक किसी को हिरासत में लेकर पूछताछ क्यों नहीं की गई। कोर्ट की फटकार के बाद दिल्ली पुलिस ने गजब की फुर्ती दिखाते हुये संजीव सक्सेन और सुहैल हिन्दुस्तानी को गिरफ्तार किया है लेकिन जैसे-जैसे जांच आगे खिसक रही है राजनीतिक बयानबाजी और माहौल गर्माने लगा है।

पूरे प्रकरण में मुलायम की अमर सिंह की तरफदारी करना ये साफ तौर पर चुगली करता है कि दाल में कुछ काला है। मुलायम अमर सिंह से अपनी पुरानी दोस्ती का फर्ज नहीं निभा रहे हैं बल्कि राजनीतिक नफे-नुकसान और गुणा-भाग को ध्यान में रखकर ही वो अमर सिंह का पक्ष ले रहे हैं। सपा सांसद रेवती रमण सिंह का जांच में नाम आने की भनक लगते ही मुलायम ने अमर के तरफदारी शुरू कर दी। अमर के प्रति सहानुभूति दिखाकर मुलायम ने एक पत्थर से दो निशाने लगाये। मुलायम के बयान की आड़ में रेवती रमण सिंह को कुछ मदद तो मिलेगी ही लेकिन इससे बढ़कर मुलायम ने इस मामले में राजनीति घुसेड़कर राजनीतिक माहौल का श्रीगणेश कर दिया है। असल में मुलायम यूपी में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों में विरोधियों खासकर कांग्रेस के हाथ कोई मुद्दा बैठै बैठाए थमाना नहीं चाहते हैं, और अगर सपा के दामन पर कीचड़ उछलता है तो उसका सीधा फायदा यूपी में कांग्रेस को ही मिलेगा। कांग्रेस को घेरने की नीयत से ही मुलायम ने अमर के पक्ष में बयानबाजी करके अपरोक्ष रूप से कांग्रेस आलाकमान और पीएम को कटघरे में खड़ा किया है।

मुलायम ने मीडिया के सामने कहा कि अमर सिंह के साथ अन्याय हो रहा है। उन्हें संकट में डालने की यह साजिश है और उन्हें मामले में फंसाया जा रहा है। मुलायम ने सवालिया लहजे में कहा , कि हमें (सपा) क्या फायदा था ? क्या समाजवादी पार्टी सरकार में शामिल हो रही थी ? क्या हमें मंत्री पद मिल रहा था ? मुलायम के सवाल चाहे कितने मासूम हो लेकिन उसके अर्थ और निहतार्थ बहुत ही गहरे हैं, कैश फॉर वोट का असल लाभ तो मनमोहन सिंह की सरकार को मिला था ना कि मुलायम सिंह को। पर्दे के पीछे का खेल अमर, मुलायम और कांग्र्रेस आलाकमान बखूबी जानता है। मुलायम ने सोची समझी रणनीति के तहत अमर सिंह के कंधे पर बंदूक रखकर कांग्रेस द्वारा यूपी में बुने जा रहे चुनावी घोंसले में सीधा निशाना साधा हैै, ये आना वाला वक्त ही बताएगा कि मुलायम का ‘अमर’ प्रेम और कांग्रेस पर निशाना कितना असरदार साबित होगा। लेकिन इस सारी बयानबाजी के बीच कोर्ट के आदेश के बाद तीन साल बाद खुली फाइल को शायद एक बार फिर ठंडे बस्ते में डालने की स्क्रिप्ट का प्रथम अध्याय मुलायम सिंह ने लिख दिया है।

Sunday, July 24, 2011

देश ब्लैकबेरी के बगैर जी सकता है, शाहबेरी के बिना नहीं

राष्ट्रीय राजमार्ग यानी एनएच 58 पर बसा गांव शाहबेरी देश के उन तमाम गांवों में से एक है जिसकी खेती योग्य जमीन विकास के नाम पर सरकार ने अधिग्रहित की थी। लेकिन शाहबेरी गांव के किसान भाग्यषाली निकले क्योंकि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को किसानों को उनकी जमीन वापिस करने का आदेश दिया है। विकास के नाम पर अधिग्रहित की गई जमीन को सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को ऊंचे दामों में बेचकर कमीशन की मोटी मलाई काटी थी लेकिन शाहबेरी के किसानों ने इंसाफ की आस नहीं छोड़ी और अन्ततः सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैंसला सुनाकर न्यायपालिका पर आम आदमी की आस्था को जिंदा रखा। गौरतलब है कि पिछले एक दशक में ग्रेटर नोएडा में लगभग 85000 हजार एकड़ जमीन प्राधिकरण ने अधिग्रहित की है। वर्तमान में शाहबेरी गांव में सात बिल्डरों द्वारा तकरीबन पचास हजार फ्लैट बनाने का काम जोरों पर था। ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने किसानों को बाजार भाव से काफी कम मुआवजा दिया गया लेकिन वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को ऊंचे दामों पर बेची थी। शाहबेरी में बन रहे छोटे से छोटे फ्लैट की कीमत आधा करोड़ के करीब है। असल में शाहबेरी का निवासी बनने को देश की वो क्लास उत्सुक है जो ब्लैकबेरी मोबाइल हाथ में लेकर घूमती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने ‘ब्लैकबेरी क्लास’ के सपनों के महल को चकनाचूर कर डाला है। अदालत के सकारात्मक व खेती-किसानी के प्रति नरम और सहयोगी रवैये से ये उम्मीद जगी है कि शाहबेरी जैसे देश के अन्य हजारों गांव ब्लैकबेरी क्लास का ठिकाना बनने से बच जाएंगे।

किसी जमाने में मोटे तौर पर जमीन के दो ही उपयोग थे, एक घर बनाने और दूसरा खेती के लिए। लेकिन उदारीकरण की बयार में चांदी-सोने और षेयर बाजार की भांति जमीन भी निवेष का सौदा बन गयी। पिछले एक दशक में तेजी से उभरे नव धनाढय वर्ग ने दिल खोलकर जमीन में निवेश किया। विकास और उलूल-जलूल बहानों का सहारा लेकर लगभग हर सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को थाली में सजाकर जमीनों का तोहफा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पिछले दो दशक में रियल एस्टेट कारपोरेट के लिए मुनाफे का सौदा साबित हुआ है, कुकरमुत्ते की तरह देशभर में उग आयी रियल एस्टेट कंपनियों और बिल्डरों ने खेती योग्य हजारों एकड़ जमीन को कांक्रीट के जंगल में तब्दील कर डाला। शेयर मार्केट से पिटे ओर घाटा खाए निवेशकों को जमीन में निवेश सुरक्षित और मुनाफे का सौदा लगने लगा है। परिणामस्वरूप देशभर में जमीन के रेट में जर्बदस्त उछाल तो आया ही है वहीं लगभग हर शहर के चारों ओर खेती की जमीन को खरीदने का जनून और पागलपन चरम पर है। सरकारी मशीनरी को घूस और कमीशन खाने से ही फुर्सत नहीं है। सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण को अगर जमीन हड़पना कहा जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। ग्रेटर नोएडा में सरकार ने हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण जिस उद्देश्य से किया था, उसे बिल्डरों के हाथों मंहगे दामों में बेचने और कमीशन की काली कमाई खाने के अलावा सरकार ने विकास के नाम पर कुछ खास नहीं किया।

देश की तेजी से बढ़ती आबादी और उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक मकान और अनाज की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। हरित क्रांतियों ने देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाया है लेकिन पिछले दो दशकों से किसानों का रूझान व्यवासायिक खेती की ओर होने से पारंपरिक खेती को बहुत नुकासान पहुंचा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दखलअंदाजी और सरकार की खेती विरोधी नीतियों और नीयत के कारण किसान आत्महत्याएं करने को विवश हुये हैं। असल में खेती किसानी का असली मुनाफा बिचौलिये और बड़ी कंपनियों द्वारा खा जाने के कारण खेती आज घाटे का सौदा साबित हो रही है। परिणामस्वरूप किसान खेती-किसानी से विमुख हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण के वर्तमन अपंग कानून के कारण सबसे अधिक अधिग्रहण खेती योग्य भूमि का ही हुआ है। जिस जमीन पर कभी हरे भरे-पूरे खेत और फसले लहलहाती थी आज वहीं मल्टीस्टोरी बिल्डिंग खड़ी हैं। देश में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल काफी तेजी से कम हो रहा है और दूसरी और दुगनी तेजी से कांक्रीट का जंगल फैल रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में बेतहाशा बढ़ती आबादी को बसाने के लिए सबसे अधिक खेती योग्य जमीन का अधिग्रहण पिछले दो दशकों में हुआ है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अर्थात एनसीआर की सीमा से सटे यूपी, हरियाणा के कई जिले एनसीआर का हिस्सा बन चुके हैं। बढ़ती आबादी को आशियाने और तमाम अन्य उत्तम सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए ही खेती वाली जमीन का अधिग्रहण धडल्ले से किया गया। असल में लाखों करोड़ों कमाने वाली जमात दिल्ली की भागदौड़ और भागमभाग भरी जिंदगी से उबकर दिल्ली के आस-पास के इलाकों में रिहाइष के ठिकाने ढूंढने लगी। नोटों से भरी जेब, ऊंचे सपनो और पावर से लबरेज ब्लैकबेरी जमात ने जब भी दिल्ली से थोड़ा बाहर देखा किसी गरीब किसान को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा, शाहबेरी और तमाम दूसरे गांव इस जमात के ठिकाने बनने लगे और बेचारे किसान अपने हक के लिए लाठी और गोली खाते रहे।

गौरतलब है कि विकास के नाम पर खेती योग्य जमीन के अधिग्रहण का रोग आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था। मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में बना था, समय-समय पर हुये संशोधनों के बावजूद कानून में बदलाव की जरूरत है। कई सरकारें आई और गयी लेकिन भूमि अधिग्रहण और उससे जुड़ी समस्याओं के समाधान में किसी ने भी गंभीरता नहीं दिखाई। किसान की आवाज और दुख दर्दे को अनसुना करके सरकारें जमीनन का अधिग्रहण निजी स्वार्थों की पूर्ति और कारपोरेट घरानों के मुनाफे के लिए करती रहीं। मामला जब हद से ऊपर हुआ तो किसानों के तथाकथित नेताओं और सामाजिक संगठनों ने सरकार की इस जबरदस्ती और गुंडई के खिलाफ मरियल आवाज उठानी शुरू की। किसानों के हितेषी बनने की होड़ हर राजनीतिक दल में है लेकिन जमीन अधिग्रहण से जुड़ी असल चिंता और समस्या की जानकारी न तो नेताओं को है और न खुद किसानों को। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि सारी समस्या कम मुआवजे को लेकर है लेकिन असल समस्या शायद कुछ और है जिसे आज न तो नेता समझ रहे हैं और न ही किसान। गौरतलब है कि जिन किसानों को मुआवजा मिला भी, वो उसका सदुपयोग न के बराबर ही कर पाए। ये कड़वी सच्चाई है कि नोएडा क्षेत्र के हजारों किसान भारी भरकम मुआवजा पाने के बाद भी आज दिल्ली और आस पास के इलाकों में मामूली नौकरी और दो जून की रोटी का जुगाड़ करते दिख जाते हैं।

उदारवाद की हवाओं ने देश में एक नयी जमात को जन्म दिया है। इस नव धनाढय जमात की महत्वकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति के वास्ते हर शहर में खेती योग्य जमीन की बलि दी जा रही है। संपूर्ण एनसीआर क्षेत्र में उधोगपति, मल्टीनेशनल कंपनियों के एक्जिक्यूटिव और आफिस, तथाकथित नेता और बड़े ओहदे पर आसीन और सेवानिवृत्त महानुभावों का आधिपात्य और साम्राज्य है। भोले-भाले और अनपढ़ किसानों को मुआवजे और नेतागिरी के फेर में उलझाकर चालाक और भ्रष्ट नेता खेती वाली जमीन को मोटी कमीशन के खातिर हड़प रहे हैं। देश की तथाकथित वीआईपी और ब्लैकबेरी जमात के आशियाने और दूसरी जरूरतों को पूरा करने की चाहत में नेता, कारपोरेट और माफियाओं की तिगड़ी किसानों को उनके आषियाने, रोजगार और मातृभूमि से एक साथ बेदखल करने को अमादा है, ये कड़वी हकीकत है। आज जो क्लास हाथ में ब्लैकबेरी मोबाइल पकड़कर खेत और खलिहान की छाती पर अपने सपनों का आशियाना बसाने को बेताब है। वो जमात और उसके पैरोकार इस बात को भूल जाते हैं कि जब किसान और खेत ही नहीं होंगे तो उनके अन्न-पानी का प्रबंध और रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी होंगी। ये सच है कि इस देश में ब्लैकबेरी के बिना तो जीया जा सकता है लेकिन शाहबेरी के बगैर नहीं।

Saturday, July 23, 2011

राहुल की ‘नौटंकी’ माया को भारी न पड़ जाए

ये तो लगभग तय हो ही चुका है कि यूपी में विधानसभा चुनाव समय से पूर्व होंगे। राजनीतिक गलियारों और आफिसों में गहमागहमी और चहल-पहल का माहौल बनने लगा है। सभी दलों ने अपने सिपाहसिलारों और सिपाहियों को चुनावी रण की तैयारी के अंतरिम आर्डर जारी कर दिये हैं। जहां बाकी दल चुनाव की तैयारियों में दिन रात एक कर रहे हैं वहीं सूबे की सीएम मायावती अपनी सरकार के दामन लगे दागों को छुड़ाने और डैमेज कंट्रोल की कार्यवाही में लगी हैं। डा0 सचान हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौंपकर सरकार पहले ही बैकफुट पर थी, अब राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाले की जांच कैग से कराने की सिफारिश कर एक बार फिर सरकार कटघरे में खड़ी दिखाई दे रही है। दिनों-दिन बिगड़ती कानून व्यवस्था, सिर उठाते किसान आंदोलन, जमीन अधिग्रहण से जुड़े मामलों पर कोर्ट की सख्ती और जमीन वापिसी के आदेश, भ्रष्टाचार और घोटालों में डूबी, दागी मंत्रियों और विधायकों का बोझ ढोती माया सरकार को निर्धारित समय से पूर्व चुनाव करवाने में ही जीत और दुबारा सरकार बनाने की उम्मीद दिखाई दे रही है। लेकिन जिस तरह कांग्रेस के युवराज लगभग हर मोर्च पर माया सरकार को खुली चुनौती दे रहे हैं उससे ये उम्मीद लगाई जा रही है कि कही राहुल की ‘नौटंकी’ मायावती पर भारी न पड़ जाए।

गौरतलब है कि बसपा ने राहुल की पदयात्रा, किसान महापंचायत, और समय-समय पर दलितों के घर जाने, खाना खाने और रात बिताने को ‘नौटंकी’ बताती है। जबकि अंदरूनी बात यह है कि माया इस समय सूबे में दिनों-दिन बढ़ते और लोकप्रिया होते राहुल फैक्टर से परेशन और डरी हुई है। राहुल मिशन 2012 की कड़ी में इन दिनों पूर्वी यूपी के दौरे पर हैं। सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में सनी हुई माया सरकार पर राहुल रूक-रूककर घातक और कठोर प्रहार कर रहे हैं उससे सरकार की बड़ी फजीहत हो रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले के मुद्दों को राहुल ने ही उठाया था और आरटीआई के तहत सरकार से जानकारी मांगी थी। खुद के दामन पर कीचड़ उछलते देख माया ने एनआरएचएम की जांच और आडिट कैग से करवाने का आदेश आनन-फानन जारी कर दिया। असल में माया और लगभग सभी दूसरों दलों ने राहुल को कभी सीरियस तरीके से लिया ही नही। राहुल को बच्चा, मुन्ना और चाकलेट बेबी कहकर सभी उन्हें पालिटिक्स का ट्रैनी समझते रहे। लेकिन मिशन 2012 की सफलता के लिए माया सरकार को हर मौके पर घेरने और सरकार को कटघरे में खड़ा करने से चूके नहीं। भट्ठा पारसौल की घटना ने राहुल के हाथ में एक बड़ा मुद्दा थमा दिया। पुलिस चैकसी और पहरे को धता बताकर जिस तरह राहुल भट्ठा पारसौल किसानों के बीच जा पहंुचे उसने पूरे देश को चैंका दिया। पदयात्रा और अलीगढ़ के नुमाइश मैदान में किसान महापंचायत कर राहुल ने बसपा, रालोद के साथ लगभग सभी विपक्षी दलों को हिला दिया। 2009 के आम चुनावों में राहुल फैक्टर ने ही कांगे्रस को 21 सीटे दिलाई थी बताते चले कि 2004 के चुनावों में कांग्रेस ने 4 सीटें जीती थीं। वहीं राहुल के मिशन 2012 की टीम जिसमें दिग्विजय सिंह, रीता बहुगुणा जोषी, प्रमोद तिवारी, जगदंबिका पाल, बेनी प्रसाद वर्मा, जतिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, पीएल पुनिया और श्रीप्रकाष जायसवाल शमिल हैं, माया सरकार को सत्ता से बेदखल करने में दिन रात एक किये हुए हैं। हो सकता है कल तक सियासी गलियारों में राहुल यूपी में बिग फैक्टर न रहे हो लेकिन आज राहुल फैक्टर माया और अन्य दलों की टेंशन की वजह है।

किसी जमाने में ब्राहाण, दलित और मुस्लिम कांगे्रस का वोट बैंक समझा जाता था, लेकिन प्रदेश में सपा, बसपा और अन्य दलों के उभरने से कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक उसकी बपौती न रहा। ब्राहाण, दलित और मुस्लिम वोट बैंक को टारगेट करके राहुल मिश 2012 को सफल बनाने में जुटे हैं और माया राहुल के हर कदम और चाल को नौटंकी करार देकर अपना भय, चिंता और घबराहट छुपाने का असफल प्रयास कर रही है। आम चुनावों में कांग्रेस को बढ़त दिलाकर राहुल ने जहां वाहवाही बटोरी तो वहीं बिहार विधानसभा चुनावों में उनका कोई असर दिखाई नहीं दिया। समूचे विपक्ष और खासकर बसपा खुद को फ्रंटफुट रखने की चाहे जितनी कोषिश करे लेकिन सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता है। विपक्ष के हमलों, बयानबाजी और आलोचना से बेपरवाह राहुल मिषन 2012 की पगडंडी पर सधे कदमों से चले जा रहे हैं। माया को यह भूलना नहीं चाहिए कि पिछले विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को भाी पूर्ण बहुमत मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। आज माया सरकार के खिलाफ जो माहौल बन रहा है, उसमें राहुल की नौटंकी माया पर भारी भी पड़ सकती है।

Wednesday, July 20, 2011

नवंबर में हो सकते हैं यूपी विधानसभा चुनाव

प्रदेश की दिनों-दिन बदहाल होती कानून व्यवस्था और विपक्षी दलों के हमलों से परेशान मायावती ने इसी साल विधानसभा चुनाव करवाने का मन बना लिया है। सूत्रों की माने तो सरकार ने अंदर ही अंदर इसकी तैयारी भी कर ली है और अगले माह मानसून सत्र के दौरान सरकार यूपी विधानसभा चुनाव की सिफारिष कर सकती है। कहा तो ये जा रहा है कि खुफिया रिपोर्टो के आधार पर सरकार ने निर्धारित समय से छह माह पूर्व ही चुनाव करवाने का मन बनाया है लेकिन असलियत यह है कि भ्रष्टाचार, तीन-तीन सीएमओ की हत्या, रेप की खेप, दलित अत्याचार की बढ़ती घटनाओं, मजदूर, किसान की बदहाली का लंबी होती कहानियों और राहुल गांधी की सक्रियता ने बसपा सुप्रीमों की नींदें उड़ा रखी हैं। वहीं अपने मंत्रियों, विधायकों और पदाधकारियों की हरकतों ने भी माया की मुसीबतों में इजाफा किया है। दिनों-दिन विरोधी माहौल के बढ़ते आभा मंडल से घबराई माया ने इसी साल संभवतः नवंबर माह में चुनाव करवाने का मन बना लिया है। खुफिया रिपोर्टो के अनुसार अगर सरकार निर्धारित समय से पूर्व चुनाव करवा लेती है तो वो दुबारा सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती है। सत्ता के नषे में चूर माया पर आज चहु ओर से मुसीबतों का पहाड़ टूटा हुआ है। सरकार के विरूद्व जनता का गुस्सा और विरोध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। सत्ता विरोधी वातावरण और विरोधियों की चालों से निपटने के लिए माया ने निर्धारित समय से पूर्व चुनाव करवाने का इरादा कर लिया है, पिछले दिनों राहुल की किसान पंचायत के बाद माया ने पार्टी पदाधिकारियों की मीटिंग के दौरान बसपाईयों को राहुल की काट तो बताई ही थी वहीं चुनाव के लिए कमर कसने का फरमान भी सुनाया था। अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो इसी साल नवंबर में विधानसभा चुनाव का अखाड़ा सज जाएगा।

गौरतलब है कि राहुल गांधी यूपी सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बने हुए हैं। राहुल के साथ उनकी टीम मिशन 2012 में दिन रात एक किये है। दिग्विजय सिंह, रीता बहुगुणा जोशी, पीएल पुनिया, बेनी प्रसाद वर्मा, जगदम्बिका पाल आदि कांग्रेसी नेता माया सरकार को घेरने का कोई मौका चूकते नहीं हैं। कांग्रेस के अलावा सपा, भाजपा, रालोद और पीस पार्टी भी चुनावी दंगल में कूदने को पूरी तरह से तैयार है। बसपा की तर्ज पर सपा, भाजपा और अन्य दल संभावित उम्मीदवारों की धोषणा आए दिन कर रहे हैं। प्रदेश में छोटे दलों ने एक संयुक्त मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ने का मन बनाया है। रालोद, पीस पार्टी, बीएस4 आदि लगभग दर्जनभर दल मिलकर बड़े दलों की गुणा-भाग ध्वस्त करने की तैयारियों में जुटे हुए हैं। अंदर ही अंदर सबकी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। असल में जिन मुद्दों को मायावती सत्ता के नशे में चूर होकर हल्के में ले रही थी वहीं अब उनकी गले की फांस बनते जा रहे हैं। राहुल को यूपी में बिग फैक्टर ने समझने वाली माया आज सबसे अधिक राहुल से ही भयभीत है। भट्ठा पारसौल की घटना से लेकर अलीगढ़ में किसान पंचायत ने माया को हिला कर रख दिया है। सपा और रालोद भी अंदर ही अंदर यही चाहते हैं कि राहुल फैक्टर के और अधिक ऐक्टिव होने से पूर्व चुनाव उनकी सेहत के मुफीद होगा क्योंकि अगर कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक उसकी ओर रूख करता है तो निश्चित तौर पर दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ी जातियों और किसानों की राजनीति करने वाले कई दलो की दुकानों के षटर डाउन हो जाएंगे वहीं कांग्रेस सोशल इंजीनियरिंग के मुख्य घटक ब्राहाण वोट को भी प्रभावित करने में सक्षम है। ऐसे में सोशल इंजीनियरिंग की हवा से फूले बसपा के हाथी की हवा निकलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

मायावती ऊपर से तो कठोर और सख्त दिखाई देती हैं। अपने पहले तीन कार्यकाल में उनकी यही छवि आम जनमानस के दिलों में बसी थी। सूबे की नौकरशाही उनके सामने पड़ने से घबराती थी। अपराधी और काले कामों में लिप्त हाथ यूपी से बाहर अपना ठिकाना ढूंढते थे। लेकिन 2007 में पूर्ण बहुमत के दम पर अपनी सरकार बनाने के बाद से ही माया ने मनमर्जी और तानाशाही का ऐसा राज चलाया कि मानो उन्हें दुबारा जनता के दरबार में हाजिरी लगानी ही नहीं है। पिछले चार सालों में बड़ी से बड़ी मुसीबत को हवा में उड़ाते हुए माया ने मनमाफिक और मुनमुताबिक जो चाहा वो किया। प्रदेश की जनता के खून-पसीने की कमाई के अरबों रूपयों को स्मारकों, पार्कों और मूर्तियों में लगाकर मायावती ने एक तानाशाह की भांति जनता के हक के पैसे को अपनी ख्वाहिशों और निजी लाभ के लिए व्यर्थ गंवा डाला। माया ने सरकार के चार साल के रिपोर्ट कार्ड को खूब तबीयत से सजाया संवारा तो जरूर है लेकिन जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था और प्रशासन के मामले में सरकार हर मोर्च पर असफल रही है। प्रदेष में शराब माफिया का राज है। अपने चेहते ठेकेदारों और माफियाओं को औने-पौने दामों में चीनी और कपड़ा मिले बेचकर माया ने प्रदेश की जनता और श्रमिकों के साथ धोखा किया है। पिछले चार सालों में प्रदेष में माफिया और ठेकेदारों का साम्राज्य स्थापित और मजबूत हुआ है। सरकार का लगभग हर मंत्री, विधायक और बसपा पदाधिकारी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से ठेकेदारी और दलाली में लिप्त है। कानून व्यवस्था को बढ़ा चढ़ाकर पेश करने वाली मायावती की पार्टी के कई मंत्री, विधायक और पदाधिकारी सीधे तौर पर अपराधों में लिप्त हैं और जेल की षोभा बढ़ा रहे हैं। प्रदेश में नियम, कानून की सरेआम धज्जिया उड़ाई जा रही है। सूबे के लगभग हर विभाग में सीएम फंड के नाम से खुली वसूली पिछले चार साल से जारी है। महिलाएं, बुजुर्ग, किसान, छात्र, शिक्षक, वकील, कर्मचारी अर्थात समाज का हर वर्ग माया सरकार की ज्यादितयों से परेशान है। कुछ समय पूर्व तक जो लोग ये कहा करते थे कि माया को टक्कर दे पाने की हिम्मत किसी दल में नहीं है आज उनके सुर बदले हुये हैं। अब ये चर्चा आम है कि माया के लिए ये चुनाव आसान नहीं होगा। राजनीतिक गलियारों और आम आदमी के बीच चल रही इन चर्चाओं और जमीन हकीकत से बसपा सुप्रीमों भी अनजान नहीं है, इसलिए स्थिति के बद से बदतर होने से पूर्व ही चुनाव करवाने का दांव चलकर मायावती अपने विरोधियों का धूल चटाने के मंसूबे पका चुकी है।

कांग्रेस आलाकमान के माउथ पीस हैं दिग्विजय

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की बैटरी इन दिनों फुल चार्ज है। अपने विवादित बयानों के लिए मशहूर दिग्विजय कांग्रेस में फिलहाल वहीं भूमिका निभा रहे हैं जो किसी जमाने में अमर सिंह सपा में निभाया करते थे। पूरे एक दशक तक मध्य प्रदेश पर राज करने वाले दिग्गी को धीर, गंभीर स्वभाव और कार्य कुशल नेता समझा जाता है। हिन्दी पट्टी के राज्यों में दिग्गी की अच्छी पकड़ और मान-सम्मान है। यूपी में राहुल के मिशन 2012 को सफल बनाने की मुहिम में जुटे दिग्विजय अपनी छवि और कद भूलकर विवादित बयानबाजी और सड़कछाप हरकतों पर आमादा हैं। सोनिया और राहुल के मुंहलगे दिग्गी कांग्रेस आलाकमान का माउथ पीस बनकर एक सधे हुये तीरअंदाज की भांति चुनावी निशाना साधने में लगे हैं। ऐसे में कभी उनके निशाना पर बाबा रामदेव, कभी अन्ना हजारे और अक्सर आरएसएस आ जाती है। हालिया मुंबई धमाकों में हिंदु संगठनों पर निशाना साधकर दिग्गी एक बार फिर विवादों में घिरे है लेकिन इन सब से बेफ्रिक दिग्गी भोपाल में भाजयुमो के कार्यकर्ताओं के साथ सड़क छाप गुण्डों की भांति हाथा पायी करने पर गर्व महसूस कर रहे हैं। किसी जमाने में धीर-गंभीर दिग्गी की गिनती आज जोकरों और मानसिक रूप से दिवालिये नेता के रूप में होने लगी है। पता नहीं किस स्वार्थवष दिग्गी खुद अपनी छवि धूमिल करने को उतारू हैं। माले गांव बम विस्फोट, 26/11 के मुंबई हमले से ठीक पहले एटीएस चीफ हेंमत करकरे से बातचीत का खुलासा, लादेन के बारे में सम्मानजनक टिप्पणी, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के खिलाफ तीखी आलोचना एंव धमकी और मुंबई में हालिया सीरियल बम विस्फोट के लिए हिंदु संगठनों के खिलाफ बोलने तक का दिग्गी राजा ने जब-जब अपना मुंह खोला एक नये विवाद को जन्म दिया। दिग्गी किसकी वाणी बोल रहे हैं और वो ऐसा क्यों बोल रहे हैं वो देश के आम आदमी को भी अब समझ आ चुका है।

गौरतलब है कि दिग्गी को यूपी में कांग्रेस को पुर्नजीवित करने की अहम् जिम्मेदारी कांग्रेस आलाकमान ने सौंपी थी उस समय यूपी में कांग्रेस को कोई पुरसाहाल नहीं था। राजनीतिक बनवास भोग रही कांग्रेस को मेन स्ट्रीम में लाने और सुर्खियों में बने रहने के लिए विवादित बयानबाजी का आसान और घटिया रास्ता दिविजय ने अपनाया और काफी हद तक वो इसमें कामयाब भी रहे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने इसमें दिग्गी का बखूबी साथ निभाया और मायावती और बसपा सरकार को निशाने पर रखकर उन्होंने भी विवादित बयानों का रिकार्ड स्थापित किया। जब दिग्गी को ये अहसास होने लगा कि मीडिया और विपक्षी दल उनके बयानों को तवज्जों दे रहे हैं तो उन्होंने अपने बयानों की विवादों की चाशनी में ओर डुबोना शुरू कर दिया। आज यूपी में कांग्रेस अपना परंपरागत वोट बैंक वापिस पाने को बेताब है ऐसे में दिग्विजय सिंह चुनावी रणनीति और कार्ययोजना के तहत ही सूबे के अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ी जातियों की सहानुभूति और वोट बैंक को ध्यान में रखकर जानबूझ कर विवादित बयानबाजी कांग्रेस आलाकमान की षै पर कर रहे हैं। कांग्रेस का निषाना सूबे का मुस्लिम वोट बैंक है जो आज राजनीतिकं दोराहे पर खड़ा है। कांग्रेस को लगता है कि हिंदु संगठनों की निंदा और हिदु आंतकवाद को प्रचारित और स्थापित करके वो मुस्लिम वोट पाने में कामयाब हो जाएगी और दिग्विजय इसी थ्योरी पर काम कर रहे हैं। दुर्दांत आंतकवादी ओसाम बिन लादेन को ‘लादेन जी’ और आजमगढ़ जिले के संजरपुर जाकर कट्टरपंथियों को सहलाना-फुसलाना कांग्रेस की चुनावी फिल्म का ही हिस्सा था।

कांग्रेस आलाकमान को लगता है कि यूपी में उन्हें अपनी खोई हुयी जमीन तभी वापिस मिल पाएगी जब उनका परंपरागत वोट बैंक उनके झण्डे के तले आ जाएगा। गौरतलब है कि मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातिया बरसों-बरस तक कांग्रेस का मजबूत और पक्का वोट बैंक रही हैं। माया की बसपा और मुलायम की सपा ने कांग्रेस के मजबूत किले में सेंध लगाकर उसे कुर्सी की दौड़ से बाहर ही कर दिया था। पिछले आम चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता से उत्साहित होकर कांग्रेस आलाकमान खासकर राहुल ने अपना सारा ध्यान यूपी में लगा रखा है। जिस तरह से राहुल और उनके विश्वस्त मंत्री और नेता यूपी में सक्रिय हैं वो राहुल के मिषन 2012 का ही हिस्सा है। इसी कड़ी में दिग्विजय सिंह राहुल और सोनिया गांधी का माउथपीस बनकर वो सब कुछ अपनी जुबान से उगल रहे हैं जिसकी रचना कांग्रेस के रणनीतिकारों ने यूपी के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर रची है। विवाद बढ़ने और मीडिया के ष्षोर मचाने पर कांग्रेस खुद को दिग्विजय के बयान से अलग कर तो लेती है लेकिन उसे जो कहना होता है वो दिग्विजय के जरिये कहलवाकर मुस्लिमों, दलितों, अल्पसंख्यकों को कदम-कदम पर ये जता देती है कि कांग्रेस ही आपके हक और हकूक के लिए लड़ने वाली अकेली पार्टी है।

देष की सुरक्षा और दूसरे अहम मसलों पर विवादित बयान देकर अगर दिग्गी ये सोचते हैं कि उन्हें राहुल और सोनिया का आषीर्वाद मिलता रहेगा तो वो भयंकर भूल कर रहे हैं क्योंकि राजनीति में रिषतों से अधिक जरूरत का महत्व होता है आज कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक को वापिस पाने का बैचेन है उसके लिए उसे दिग्गी जैसे सिरफिरे नेता की जरूरत है और जब जरूरत पूरी हो जाएगी उस दिन दिग्गी को दूध में से मक्खी की तरह बाहर कर दिया जाएगा। हो सकता है ये बात आज दिग्गी को समझ न आए लेकिन इतिहास में दिग्गी जैसे महानुभावों के कई किस्से दर्ज हैं शायद दिग्गी के पास उन किस्सों को पढ़ने की फुर्सत नहीं है। जनता भी कांग्रेस और दिग्विजय के इरादे का बखूबी समझती है सोनिया-राहुल के अंधभक्त और माउथपीस दिग्गी राजा अपनी छवि को खुद ही मिटाने पर उतारू हैं, भगवान उन्हें सदबुद्वि दे।

पुनिया साहब, यूपी के बाहर भी दलित रहते हैं

यूपी के बाराबंकी से कांग्रेसी सांसद एवं पूर्व नौकरशाह पन्ना लाल पुनिया को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर केंद्र सरकार ने उनके कंधों पर भारी जिम्मेदारी डाल रखी है। लेकिन एससी आयोग का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद पुनिया का सारा ध्यान और राजनीति केवल यूपी में मायावती सरकार को घेरने, यूपी में कांग्रेस की खोई जमीन वापिस पाने तथा दलितों का सच्चा मसीहा बनने के इर्द-गिर्द ही मंडराती है। किसी जमाने में मायावती के सबसे विष्वस्त अफसर रहे पुनिया आज अपनी पुरानी लेडी बॉस की नींद हराम किये हुये हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुनिया जिस पद को आसीन हैं उस का कार्यक्षेत्र संपूर्ण भारत है या फिर केवल यूपी। क्यों पुनिया को यूपी से बाहर दलितों पर होने वाले अत्याचार, शोषण, अन्याय की घटनाएं दिखाई नहीं देती हैं। आखिरकर पुनिया एक संवैधानिक पद का निर्वाहन कर रहे हैं ऐसे में उनका एक विशुद्व राजनीतिज्ञ की भांति आचरण गंभीर सवाल पैदा करता है। पुनिया की इस दलित और वोट बैंक की राजनीति के चलते अनुसूचित जाति आयोग का काम काज और गरिमा को ठेस पहुंची है। वहीं पुनिया के यूपी प्रेम और वोट बैंक की ओछी पालिटिक्स के चलते देश भर में दलितों और अनुसूचित जाति से जुड़ी शिकायतों और समस्याओं के प्रभावी निराकरण में अनावश्यक विलंब और परेशानी हो रही है। सही मायनो में पुनिया ने राष्ट्रीय स्तर के आयोग को राजनीति की वहज से एक प्रदेष के सीमित दायरे में बांध दिया है, जिसके चलते देशभर के दलितों और अनुसूचित जाति के लोगों को दुःख-तकलीफ और अन्य अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।


गौरतलब है कि नौकरशाह से राजनेता बने पुनिया का कार्यपालिका और विधायिका दोनों से पुराना नाता रहा है। किसी जमाने में पुनिया की गिनती मायावती के चेहते अफसरों में होती थी। पूर्व में माया सरकार में पुनिया सीएम के मुख्य सचिव की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाया करते थे। पुनिया के पूर्व अनुभव और दलित होना ही उनके लिए मुफीद साबित हुआ और सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने राजनीति का रास्ता चुन लिया। माया और बसपा का तिया-पांचा करने के लिए ही कांग्रेस ने उन्हें अपने कैंप में जगह दी। कांग्रेस की सोच यह थी कि यूपी में माया को टक्कर देने के लिए किसी मजबूत दलित नेता की जरूरत है और पुनिया को पार्टी में उसी खाली स्थान भरने के लिए लाया गया और उन्हें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष भी बनाया गया। जिस खास मकसद से पुनिया को कांग्रेस में लाया गया था उसमें तो वो कामयाब रहे लेकिन उनके केवल यूपी पर केन्द्रित होने का खामियाजा देश भर में दलित और अनुसूचित जाति सुमदाय के लोग भुगत रहे हैं।

सोनिया और राहुल के विश्वस्त पुनिया कदम-कदम पर यूपी की माया सरकार को घेरने के मौका तलाशते हैं और खुद को मायावती के बाद दलितों का सबसे बड़ा नेता और मसीहा साबित करने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। बसपा की बामसेफ की तर्ज पर यूपी में कामसेफ बनाकर पुनिया ने कर्मचारी वर्ग को कांग्रेस के पाले में लानेका सफल दाव चल दिया है। बाबा रामदेव पर तीखे प्रहार करके पुनिया मीडिया में छाये रहने की कला भी बखूबी जानते है और यूपी में अनुसूचित जाति और दलितों पर होने वाले अत्याचार और अन्याय की घटनाओं पर वो व्यक्तिगत दौरे कर त्वरित कार्यवाही करते हैं लेकिन पता नहीं पुनिया साहब को यूपी से बाहर देश के कोने-कोने में आये दिन दलितों और अनुसूचित जाति के साथ होने वाले अत्याचार, अपराध और अन्याय दिखाई क्यों नहीं देते हैं। दूर दराज की बात तो अलग है अभी हाल ही में पंजाब के मुक्तसर जिले की अपर सत्र न्यायाधीश परवीन बाली को पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने बिना किसी कारण के पद से हटाकर अनोखी मिसाल देश के सामने पेश की है। एक दलित महिला एवं जज परवीन बाबी ने अपनी लगन, मेहनत और योग्यता के बलबूते सीनियर जुडिशल सर्विस में एससी कोटे में प्रथम व जनरल कोटे में पांचवा स्थान पाकर सिविल जज की नौकरी हासिल की थी। 2008 बेच की इस महिला दलित जज को बिना किसी कारण उसके पद से हटाकर हाई कोर्ट ने देश भर के महिला अधिकारों के लड़ने-भिड़ने वाले संगठनों और देशवासियों का सोचने पर विवष किया है कि आखिरकर कहां हमारा समाज बदला है। पुनिया साहब को इस बात का संज्ञान लेकर इस मामले की छान-बीन करवानी चाहिए और एक प्रतिभावान दलित महिला जज का न्याय और उसका अधिकार दिलवाने के लिए प्रयास करना चाहिए।

पुनिया साहब मूलतः हरियाणा के निवासी हैं ऐसे में उन्हें बखूबी मालूम होगा कि हरियाणा में यूपी से अधिक जाति संघर्ष की घटनाएं होती हैं और वहां पर दलितों के प्रति भेदभाव और हिंसा की घटनाएं यूपी से किसी भी मामले में कम नहीं होती हैं। हरियाणा के मिर्चपुर में दलितों के साथ जो कुछ हुआ था वो पूरे देश की जनता जानती हैं। हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान के अलावा देश के कई अन्य राज्यों में कांग्रेसी सरकारें हैं और वहां भी आये दिन दलितों और अनुसूचित जाति समुदाय पर अत्याचार और अन्याय की खबरें सुनने को मिलती हैं लेकिन पुनिया साहब का सारा ध्यान यूपी और मायावती को घेरने में बीतता है। परवीन बाली तो पढ़ी-लिखी और जज के पद पर आसीन थी तब भी उसे एक दलित और महिला होने का अभिशप झेलना पड़ा। देश में दलितों और अनुसूचित जाति की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अशिक्षित और मूलभूत सुविधाओं और संविधान प्रदत अधिकारों से वंचित है। ऐसे में देश के हजारों गांवों और कस्बों में रहने वाली दलित और अनुसूचित आबादी किस हाल में जी रही होगी का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। लेकिन हमारे कर्ता-धर्ता शुद्व राजनीति में मस्त हैं। पुनिया साहब को लखनऊ और यूपी के अलावा भी देश के दूसरे राज्यों का भी दौरा करना चाहिए। पुनिया साहब ये माना कि आप कांग्रेस के सांसद हैं और सोनिया राहुल की कृपा से आपको राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष का पद मिला हुआ है लेकिन राजनीति के साथ ही साथ अपने काम और धर्म को मत भूलिए क्योंकि जिस जनता ने आपको वोट देकर इस स्थान पर पहंुचाया है वो आपको आपकी हैसियत भी बता सकती है। इसलिए आपसे निवेदन है कि यूपी ही नहीं देश भर में दलितों और अनुसूचित जाति के कल्याण और भलाई के लिए भी समय निकालिए और सच्चे मन से अपनी बिरादरी और इस देश की जनता का भला करिए।