Tuesday, February 21, 2012

64 सालों में 60 फीसद के लिए शौचालय नहीं

‘यह अजीब देश है जहां 60 प्रतिशत आबादी खुले में शौच करने जाती है लेकिन मोबाइल फोन धारकों की संख्या 70 करोड़ पहुंच गर्इ है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का यह बयान खुद उनको और यूपीए सरकार को तो कटघरे में खड़ा करता ही है, वहीं देश की सच्ची और करूण तस्वीर को भी बखूबी बयां करता है। विश्व के तमाम विकासशील देशों में भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति ठीक-ठाक है, और सरकार खुद को बड़ी तेजी से उभरती शकित और मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में दुनिया के सामने पेश करती है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आजादी के 64 सालों बाद भी आबादी के बड़े हिस्से तक मामूली बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। कस्बों और गांवों की ही नहीं शहरों व महानगरों की दशा भी दयनीय और चिंताजनक है। रमेश ने सरकार द्वारा चलाये जा रहे सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) पर चिंता जतार्इ। उन्होंने कहा कि इस अभियान को मात्र एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। रमेश ने कहा कि महिलाएं शौचालय नहीं मोबाइल फोन मांग रही हैं। एशिया-प्रशांत क्षेत्रीय सहस्राबिद विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2011-12 को जारी करते हुए रमेश ने कहा कि महिलाएं शौचालय नहीं, मोबाइल फोन मांग रही हैं, स्वच्छता काफी कठिन मुद्दा है। जब देश का केंद्रीय मंत्री चिंता जता रहा हो तो समस्या की गंभीरता और गहरार्इ का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। डब्लयूएचओ और युनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में खुले में शौच करने वालों की संख्या 1.2 बिलियन है, जिसमें से 665 मिलियन भारत के निवासी हैं।

गौरतलब है कि साफ-सफार्इ का प्रदूषण प्रभाव काफी व्यापक होता है। सतही जल के तीन-चौथार्इ संसाधन प्रदूषित है ओर अस्सी फीसदी प्रदूषण मात्र सीवेज लाइन के कारण हैं। कमजोर साफ सफार्इ की परिस्थितियों विशेष रूप से स्लम्स में होती है। जिनसे हैजा, और आंत्रशोध की बीमारियां फैल जाती है। समूचे भारत में जलीय बीमारियों से काफी बड़ी संख्या में नश्वरता होती है और उससे लोगों के जीवन और उत्पादकता की दृषिट से काफी बोझ बढ़ जाता है। पर्यावरणीय स्वास्थ्य बोझ के लिए साठ फीसद के लिए जल और साफ सफार्इ की बीमारियां जिम्मेदार है। आज भारत की गिनती विश्व के उन देशों में की जा रही है, जो सर्वाधिक गंदे एवं प्रदूषित हैं। ग्रामों, कस्बों एवं शहरों की सड़कों पर कूड़े-कचरे के ढेरों को देखा जा सकता है। यहां ऐसी झोपड़-पटिटयां हैं, जहां शौचालय की कोर्इ व्यवस्था नहीं है। बच्चों को नित्य-क्रिया के लिए नालों, पोखरों और नदियों के किनारे बैठा देखा जा सकता है। हमारे देश में अधिकांश लोगों की यह सामान्य आदत है कि जब भी, विशेषरूप से प्रात:काल रेलगाड़ी रेलवे स्टेशनों पर खड़ी होती है, यात्री तभी शौच क्रिया से निवृत्त होते है जिसके कारण मल पटरियों पर जमा होता रहता है। यही कारण है कि एक विदेशी प्रतिनिधि मण्डल द्वारा यह लज्जाजनक की गर्इ टिप्पणी ‘भारत एक विशाल शौचालय है’

ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिरकर इन हालातों के लिए जिम्मेदार कौन है? देश को आजादी मिले 64 साल हुए हैं और मोबाइल सेवाओं को लांच हुए लगभग ढार्इ दशक बीते हैं, सही मायनों में देश के आम आदमी तक मोबाइल की पहुंच को अभी एक दशक भी नहीं हुआ है। मोबाइल, इंटरनेट और डिश टीवी को आम आदमी तक पहुंचाने में सरकार और मल्टी नेशनल कंपनियां जितनी गंभीर और प्रयासरत हैं, अगर उस मेहनत का दस फीसद ध्यान भी अगर कस्बों, गांवों और नगरों में शौचालय बनाने की ओर दिया जाए तो हालात बदल सकते हैं। रमेश ने अपनी कमी को खुद इशारा करने की हिम्मत तो जुटार्इ लेकिन ये वो कड़वी हकीकत और सच्चार्इ है जिसे सुनकर सारी दुनिया के सामने हमारी गर्दन झुक जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 5161 शहरों में से 4861 शहरों में सीवरेज की व्यवस्था ही नहीं है। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में 12.04 मिलियन शहरी खुले में शौच करते थे। 5.48 मिलियन शहरी घरों में सामुदायिक शौचालय का प्रयोग करते थे और 13.4 मिलियन घरों के निवासी शेयरेड शौचालय प्रयोग करते थे। भारत की 125 करोड़ जनसंख्या से लगभग 5 लाख टन मानव मल प्रतिदिन पैदा होता है। अधिकांशत: मानव-मल को बिना उपचार के गडढों, तलाबों, नदियों आदि में डाल दिया जाता है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्रो में आबादी का बड़ा हिस्सा शौचालय के अभाव में खुले में शौच करता है। शौचालय, सीवरेज व्यवस्था और साफ-सफार्इ के अभाव में गंभीर और संक्रामक रोगों का फैलना देश में आम बात है, और इसका सबसे बड़ा शिकार कम उम्र के बच्चे होते हैं। भारत के अधिकांश कस्बों एवं नगरों में स्वच्छता की समुचित सुविधाएं न होने के कारण लोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक परिस्थितियों में निवास करते हैं। जिसके फलस्वरूप झोपड़पटिटयों आदि में अक्सर महामारी फैलती है। आंकड़ों के हिसाब से हर साल दुनिया भर में तकरीबन 2 मिलियन बच्चे डायरिया, 6 लाख सेनीटेशन से जुड़े तमाम रोगों और बीमारियों के कारण एवं 5.5 मिलियन बच्चे हैजा के कारण मरते हैं। इन बच्चों में एक बड़ा आंकड़ा भारतीय बच्चों का होता है। युनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन पांच साल से कम आयु के एक हजार बच्चे डायरिया, हैपाटाइटिस और सैनिटेशन से जुड़ी दूसरी कर्इ बीमारियों की वजह से काल के मुंह में समा जाते हैं। देश के स्वास्थ्य को खराब करने और नागरिकों को गंभीर बीमारियां देने के अलावा सेनिटेशन की सुविधाओं के अभाव में वातावरण में प्रदूषकों की मात्रा भी बढ़ रही है, वही पर्यावरण और पारिस्थितिक का क्षरण और हास हो रहा है।

आंकड़ों से इतर अगर देखा जाए तो देश के मैट्रो सिटिज से लेकर गावं-कस्बे में सुबह-शाम खुले में शौच करते सैंकड़ों लोग देखे जा सकते हैं। शौचालय के अभाव में सबसे अधिक परेशानी का सामना महिलाओं, वृद्वों और बच्चों को करना पड़ता है। देश में बलात्कार के मामलों में शिकार महिलाओं का अगर कारण खोजा जाए तो गांवों और कस्बों में अक्सर ऐसी घटनाएं शौच के लिए आते-जाते ही घटित होती हैं। लेकिन जिम्मेदार सरकारी अमला और व्यकित अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते नजर आते हैं। जब देश का मंत्री यह कह रहा हो कि 60 फीसद आबादी खुले में शौच करने जाती है तो इसका मतलब है कि असल में यह आंकड़ा 70 से 75 फीसद से कम नहीं होगा। यह विडंबना है कि देश में 11 पंचवर्षीय योजनाओं और तमाम दूसरी योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के बावजूद देश की तीन चौथार्इ आबादी शौचालय जैसी मामूली और जरूरी सुविधा से वंचित है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने 2017 तक खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया है, लेकिन पूर्व के अनुभवों के आधार पर ऐसा संभव होता दिखार्इ नहीं देता है। लाल फीताशाही और सरकारी अमले का भ्रष्टाचार में लिप्त होना सीधे तौर पर विकास को प्रभावित करता है। बड़े शहरों और महानगरों में जनता थोड़ी जागरूक और पढ़ी-लिखी है यह समझकर विदेशों और तमाम दूसरी संस्थाओं से चंदा बटोरने की नीयत से कुछ काम किया जाता है। गांवों-कस्बों और दूर-दराज के इलाकों में तो फाइलों का पेट भरने की कार्रवार्इ होती है। जयराम रमेश ने बुनियादी मुददे और आमजन से जुड़ी बड़ी और गंभीर समस्या को जाने-अनजाने हवा दी है और स्वयं अपनी कमियों और सरकारी योजनाओं में चल रही गड़बडि़यां, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की ओर इशारा भी किया है। जिस तेजी से देश की आबादी बढ़ रही है, उसी अनुपात में शहरीकरण और स्लम भी बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में सरकार को तमाम दूसरी योजनाओं के साथ देश के प्रत्येक नागरिक के लिए शौचालय की सुविधा उपलब्ध करवाने के काम को प्राथमिकता के आधार पर जरूरी काम करना चाहिए। क्योंकि अगर दो दशकों में 70 करोड़ मोबाइल फोन धारक बन सकते हैं तो सरकार नागरिकों को बेहद मामूली और आवश्यक बुनियादी सुविधा उपलब्ध करवा पाने में सफल क्यों नहीं हो पायी, ये सोचने को मजबूर करता है। दुनिया के नक्षे पर बड़ी तेजी से उभरते भारत और नागरिकों के यह बेहद शर्म की बात है कि 60 फीसदी आबादी आजादी के 64 सालों बाद भी खुले में शौच करने जाती है।

Monday, February 20, 2012

इजरायली अधिकारी पर हमले के मायने

राजधानी दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री आवास के पास इजरायली दूतावास की कार में हुए बम विस्फोट ने एक बार फिर सुरक्षा एजेंसियों की चुस्ती और सतर्कता की पोल खोल दी है। हार्इ सिक्योरिटी जोन में अति आधुनिक तरीके से घटना को अंजाम देकर आंतकियों का सुरक्षित निकल जाना यह दर्शाता है कि लंबे-चौड़े दावे करने वाली सुरक्षा एजेंसिया सफेद हाथी से ज्यादा कुछ नहीं हैं।

हमले के बाद लकीर पीटने और इधर-उधर बिखरे सबूत बटोरने के अलावा सुरक्षा एजेंसियां और जिम्मेदार विभाग कुछ नहीं करते हैं। देश के भीतर विदेशी दूतावास की गाड़ी पर आंतकी हमला गंभीर मामला है। यह आंतरिक सुरक्षा और सुरक्षा एजेंसियों के लिए खुली चुनौती भी है। हमले के तीन-चार दिन बीत जाने के बाद भी देश की उच्च सुरक्षा एजेंसियों के हाथ खाली हैं। हमलावारों के बारे में पुख्ता जानकारी और सुराग न जुटा पाना सुरक्षा एजेंसियों के नकारेपन का ही सुबूत है।

नवंबर 2008 में मुंबर्इ पर हुए आतंकवादी हमले के बाद आंतकवाद पर प्रभावी कार्रवार्इ और लगाम लगाने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया था। मगर उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्र में आतंकियों ने अत्याधुनिक तरीके से घटना को अंजाम देकर सुरक्षा एजेंसियों को सोचने को मजबूर किया है कि वे सुरक्षा बलों और एजेंसियों से दो कदम आगे की सोचते हैं और जहां जिस वä चाहें घटना को अंजाम दे जाते हैं।

इजरायली दूतावास की गाड़ी पर हमला विदेश नीति और विश्व बिरादरी में भारत के रिश्ते बिगाड़ने की एक बड़ी वारदात है। हमले के कुछ देर बाद जिस तरह र्इरान और इजरायल के बीच जुबानी जंग छिड़ी, उससे ऐसा लगता है कि आंतकी संगठनों ने अपने दुश्मन को टारगेट करने के लिए सुरक्षा के हिसाब से कमजोर भारत को चुना है, जो चिंता का बड़ा कारण है।

गौरतलब है कि पिछले डेढ दशक में भारत में हुए आतंकी हमलों में मारे गए लोगों का सरकारी आंकड़ा 1658 और घायलों का आंकड़ा 700 के लगभग है। पिछले एक दशक में देशभर में हुये आंतकी हमलों में मृतकों और घायलों का आंकड़ा हजारों में है। आतंकी हमले और घटना के बाद कुछ समय तक सुरक्षा एजेंसिया, जिम्मेदार विभाग और सरकार मुद्दे के प्रति पूरी गंभीरता और तेजी दिखाते हैं, लेकिन एकाध महीने के भीतर ही गाड़ी पुरानी पटरी पर लौट आती है।

पिछले वर्ष दिल्ली हार्इकोर्ट के गेट पर हुए बम ब्लास्ट के बाद भी सुरक्षा एजेंसियों ने खूब चुस्ती-फुर्ती दिखार्इ थी, लेकिन इस बार आंतकियों के हार्इ सिक्योरिटी जोन में नयी तकनीक से हमला करके सुरक्षा एजेंसियों को सकते में डाल दिया है और जता दिया है कि उनको रोक पाना आसान नहीं है। वर्ष 2001 में संसद पर जब आतंकी हमला हुआ था, तब देशभर में खूब हो-हल्ला मचा था। लेकिन संसद पर हमले के बाद देश में दो दर्जन से अधिक आंतकी घटनाएं घट चुकी हैं।

सुरक्षा एजेंसियों के तमाम दावों और सख्ती के परखच्चे उड़ाते आतंकी संगठनों ने ट्रेन, मंदिर, सेना कैंप, रामजन्म भूमि और हैदराबाद की मक्का मसिजद अर्थात जहां चाहा वहां हमला किया। पिछले दो दशकों में आतंकी संगठनों ने देश के अंडर एक बड़ा नेटवर्क तैयार किया है। अब तो उनकी हिम्मत इतनी बढ़ गयी है कि वो हार्इ सिक्योरिटी जोन और प्रधानमंत्री निवास के निकट हमला करने का हौंसला जुटा चुके हैं।
इजरायल दूतावास की कार पर हुए हमले ने सुरक्षा तंत्र की पोल-पट्टी तो खोली ही है, वहीं सरकारी दावों और बयानों की सच्चार्इ भी पूरे देश के सामने आ गयी है। संसद पर हमले से लेकर ताजा बम ब्लास्ट तक हर बार घटना के बाद सरकार ने आतंकवाद से सख्ती से निपटने के बयान तो जरूर जारी किये, लेकिन जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। सरकार चाहे जितने लंबे-चौड़े दावे और कार्यवाही का आश्वासन दे, लेकिन आतंकी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं।

वर्तमान में आंतकवाद की समस्या से विश्व के कर्इ राष्ट्र ग्रस्त हैं। यह एक वैशिवक समस्या है जो दिनोंदिन बदतर रूप लेती जा रही है। दुनियाभर में हथियारों की सुलभ उपलब्धता, धन की पर्याप्त आपूर्ति, सैन्य प्रशिक्षण की वजह से आतंकियों का गहरा संजाल विकसित हो गया है। कर्इ देशों द्वारा आंतकवाद की चुनौती को स्वीकार करने पर उसे रोकने की मंशा के बावजूद यह समस्या दिन प्रतिदिन जटिल एवं घातक होती जा रही है।

भारत में भी ये समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है। लचर और लंगड़ी विदेश नीति, अपाहिज कानून और न्याय व्यवस्था, राजनीतिक इच्छााशक्ति की कमी के कारण सीमापार और देश के भीतर पनपने वाले आतंकवाद पर प्रभावी रोक नहीं लग पा रही है। वोट बैंक की गंदी और घटिया राजनीति, अव्यावहारिक, असंवेदनशील और अगंभीर राजनीतिक बयानबाजी देश की जनता को भ्रमित और चिढ़ाती है, वहीं आंतकियों का हौंसला भी बुलंद करने का काम करती है। असल में आंतक और आंतकियों से सख्ती से न निपटने की लचीली नीति और राजनीति के कारण ही आंतकी हर बार सरेआम वारदात करने में कामयाब हो जाते हैं और सरकार मुआवजा और बनावटी सख्ती दिखाने के अलावा कुछ नहीं करती है।

हमला र्इरान ने कराया हो इजरायल या फिर किसी अन्य ने, लेकिन धमाके के लिए भारत की धरती का चुना है, किसी बड़े खतरे का संकेत है। अमेरिकी-इजराइली गठजोड़ काफी समय से र्इरान के ऊपर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा रहा है और अप्रत्यक्ष रूप से भारत पर भी दबाव डाल रहा है कि वह र्इरान से अपने हितों को त्याग कर सम्बन्ध विच्छेद कर ले। उसी कड़ी की साजिश इजरायली दूतावास की कार पर हुआ बम विस्फोट हो सकता है।
भारत को इन देशों की हरकतों के ऊपर गंभीर रूप से नजर रखने की जरूरत है। काफी दिनों से आर्थिक रूप से विश्व मानचित्र पर उभर रहे भारत को पिछाड़ने के लिये चीन युद्ध की बात पशिचमी मीडिया द्वारा व्यापक स्तर पर प्रचारित की जाती रही है।

भारत को ऐसी घृणित कोशिशों और चालों से होशियार रहने की आवश्यकता है। वहीं सुरक्षा एजेंसियों को और पुख्ता तैयारी एवं अतिरिक्तह सर्तकता बरतने की जरूरत है, क्योंकि जिस तरह हार्इ सिक्योरिटी जोन और सुरक्षा तंत्र को धत्ता बताकर आतंकियों ने ब्लास्ट को अंजाम दिया, वो यह साबित करता है कि आंतकी सुरक्षा बलों की तैयारियों और दिमाग से आगे सोचते हैं और वो कहीं भी हमले को अंजाम देने में सक्षम हैं।

चुनावी मौसम में निखरता कांग्रेसी त्रियाचरित्तर

ऐसा लगता है कांग्रेस नेता और मंत्री जान-बूझकर बाटला हाउस विवाद को थमने नहीं देना चाहते। गाहे-बगाहे उसके जख्म को कुरेदते रहते हैं। ताजा मामला केन्द्रिय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से जुड़ा है।अल्पसंख्यकों के वोट और समर्थन के लालच में केन्द्रिय कानून मंत्री एवं कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने बयान दिया कि बाटला हाउस मुठभेड़ की तस्वीरें देखकर सोनिया गांधी रो पड़ी थीं। असल में सोनिया रोयी थी या नहीं ये तो सोनिया जाने, लेकिन आंतकवाद जैसे संवेदनशील और आम आदमी की सुरक्षा से जुड़े मसले पर चंद वोटों की खातिर की गयी बयानबाजी से कांग्रेसी नेता क्या साबित करना चाहते हैं कि वो मुसलमानों के सबसे बड़े हितेषी और हमदर्द हैं। उन्हें किसी मुस्लिम आंतकवादी की मौत पर बड़ा दुख पहुंचता है, आंखों से आंसू निकल आते हैं। या फिर कांग्रेसी नेता यह बताना चाहते हैं कि उनके राज में ही मुस्लिम सुरक्षित और खुशहाल जीवन बसर कर सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में खुर्शीद ने एक चुनावी सभा में कहा, ‘जिस वर्ष बाटला हाउस एनकाउंटर हुआ था उस समय मैं हुकुमत में नहीं था, बावजूद एक वकील की हैसियत से मैं कपिल सिब्बल और दिगिवजय सिंह के साथ सोनिया जी के पास गया और उन्हें मुठभेड़ की तस्वीरें दिखार्इं तो वह रोने लगीं और प्रधानमंत्री के पास जाने को कहा था। खुर्शीद के इस नाटकीय बयान पर भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने पूछा कि ‘क्या बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा और संसद हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मियों के लिए भी सोनिया के आंसू फूट पड़े थे।
दरअसल कांग्रेस बाटला हाउस के जख्मों को जान बूझकर छेड़ती रहती है और इस मूढ़भेद से उपजी सहानुभूति को वोटों में बदलने की फिराक में रहती है। पार्टी आला कमान की शह पर ही पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने बाटला हाउस मुठभेड़ के दौरान आजमगढ़ के संजरपुर जाकर सरकार की परेशानियां बढ़ा दी थीं। बाटला हाउस पर एक के बाद एक नाटकीय बयान देने वाले कांग्रेस नेता भूल जाते हैं कि खुद कांग्रेसी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इसे जायज ठहरा चुके हैं। तो सवाल है कि सनसनी खेज बयानबाजियों के बहकावे में यूपी का मुसलमान आता दिख रहा है ?

आजादी से लेकर आजतक देश पर सबसे अधिक राज कांग्रेस पार्टी ने ही किया है, और बरसों-बरस तक अधिकतर राज्यों में कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री रहे हैं। ऐसे में यह सवाल अहम है कि कांग्रेस ने मुसलमानों की भलार्इ और कल्याण के लिए क्या किया? मुसलमानों के कल्याण और विकास के लिए कौन सी दूरदर्शी सोच रखी? मुस्लिम वोटों के चंद दलाल के जरिये धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़े कांग्रेस आखिर उत्तर प्रदेश में किस मुगालते में है। आजादी के 64 साल बाद भी कांग्रेस के कारण ही मुस्लिम की बजाय वोट बने हुए हैं। असल में कांग्रेस या किसी भी दूसरे दल की नजर में देश के मुसलमानों की हैसियत वोट के अलावा कुछ नहीं है। स्वार्थ सिद्धि के लिए मुस्लिम वोटों के सौदागार और पैरोकार नेता देश के आम मुसलमान की नजर में खुद को उनका सबसे बड़ा हमदर्द और उनके सुख-दुख में शरीक होने वाला साबित करने की गरज से चुनाव में जानबूझकर मुस्लिमों से जुड़े विभिन्न संवेदनशील मुददों को उठाते है। इस दौड़ में सबसे आगे कांग्रेसी नेता रहते हैं, काग्रेसी नेता मौके-बेमौके यह सिद्ध करने की कोशिश में दिखार्इ देते हैं कि देश में मुसलमानों के हितेषी कांग्रेस पार्टी हैं, अन्य कोर्इ दूसरा दल नहीं।

मुस्लिम वोटों के लालच में चुनाव की घोषणा से पूर्व यूपीए सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों को साढ़े चार फीसद आरक्षण और बुनकरों की कर्ज माफी का चारा फेंका था। राहुल का मुस्लिम उलेमाओं और धर्म गुरूओं के चरणों में लोटना और धूल चाटना असरकारी न होते देखकर मुसलमानों को जज्बातों को जगाने के लिए आलाकमान की शह पर पार्टी के बातूनी और विवादित बयानों के लिए मशहूर दिगिवजय सिंह ने बाटला हाउस के गड़े मुर्दे को उखाड़ा। दिगिवजय के बयान का सीधा खामियाजा राहुल को आजमगढ़ के शिबली कालेज में छात्रों के विरोध के रूप में झेलना पड़ा। मौके की नजाकत को भांपकर राहुल ने दिगिवजय से किनारा कर लिया। लेकिन बाटला हाउस का मुददा भुनाने की फिराक में पड़ी कांग्रेस ने इस बार देश के कानून मंत्री सलमान खुर्षीद को आगे किया। सलमान ने घटना को जायज और नाजायज ठहराने की बजाय कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के दुख-दर्दे और आंसुओं का घोल बनाकर मुस्लिम वोटरों की गोलबंदी की पुख्ता योजना बनार्इ। लेकिन विरोधियों की तीखी आलोचना और पार्टी को नए संकट में घिरते देख कांग्रेस महासचिव दिगिवजय सिंह ने यह कहकर की यह सलमान की निजी राय है पार्टी की नहीं, मामला शांत कराने की कोशिश की। मामला और बयानबाजी तो फिलहाल बंद हो गयी है लेकिन कांग्रेस का असली चरित्र और चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है कि वोटों के लालच में कांग्रेस जानबूझकर मुस्लिम समुदाय से जुड़ी घटनाओं और मुददों को हरा रखना चाहती है, असल में उसे किसी की फिक्र या चिंता नहीं है।

कांग्रेस को मुस्लिम युवाओं की इतनी फिक्र है तो उसके हाथ किसी राजनीतिक दल या जनता ने बांधे नहीं है। पिछले 64 सालों में कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए क्या किया है यह देश के मुसलमानों से बेहतर कोर्इ दूसरा नहीं जानता। सोची समझी रणनीति और साजिश के तहत ही देश पर सबसे लंबे समय तक एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी ने कभी मुसलमानों को उचित मान-सम्मान और हिस्सा नहीं दिया जिसके वो हकदार थे। कांग्रेस ने ही देश में मुसलमानों को वोट बैंक में तब्दील किया है, ये कड़वी हकीकत है। कांग्रेस को दुख इस बात का नहीं है कि देश के मुसलमान बदहाली की जिंदगी बसर कर रहे हैं या फिर वो शिक्षा, रोजगार में पिछड़े हैं। कांग्रेस का असल दुख यह है कि जात-पात की राजनीति के जो बीज उसने बोए थे आज उसकी फसल दूसरे दल काट रहे हैं, कांग्रेस की असली चिंता यह है कि उससे नाराज, रूठे और मुंह मोड़ चुके मुस्लिम वोट वापिस उसके खेमे में आ जाए। इसलिए कांग्रेस को मुसलमानों की याद चुनावों के वक्त सबसे अधिक आती है। सलमान और दिगिवजय जैसे नेताओं की असलियत जनता भी समझती है। बाटला हाउस पर कांग्रेसी नेताओं के मगरमच्छी आंसू चुनावी सैलाब में पार्टी की नैया पार लगाएंगे या डुबोयेंगे ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन अहम सवाल यह है कि कांग्रेस को चुनावों के वक्त ही मुसलमानों और उनकी दुख तकलीफ की याद क्यों आती है।

नेता यूँ न करते गाली-गलौज

चुनाव के समय नेताओं का एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना, तीखे शब्द बाण चलाना, बेतुकी, आधारहीन एवं ओछी बयानबाजी करना आम आदमी की नजर में आम बात हो सकती है, लेकिन खुद नेता ऐसा नहीं सोचते हैं। उनकी जुबान से जो कुछ भी निकलता है वो घंटों के चिंतन-मंथन और सोच-समझ के बाद किसी खास वजह से ही निकलता है।
मीडिया की सुर्खियां बटोरने, आम आदमी को अपने पक्ष में करने, विरोधियों पर हमला करने, उनकी पोल-पटटी खोलने और भविष्य की रणनीति का खुलासा करने के लिए नेता भाषण और बयानबाजी करते हैं। जब बात विस्तार से समझानी हो या फिर कई मुद्दों को एक साथ समेटना हो तो प्रेस कांफ्रेस की मदद ली जाती है। ये अलग बात है कि आम आदमी इन संकेतों को पूरी तरह से समझ नहीं पाता है और नेताओं के बहकावे में आकर अपने बुद्धि को किनारे रखकर उनकी कही को सच और सही मानने की भूल कर बैठता है।
नेताओं की बयानबाजी और विरोधियों के लिए प्रयोग की जा रही भाषा, भाव-भंगिमा पर थोड़ा सा भी ध्यान दिया जाए तो सारी कहानी आसानी से समझ में आ जाती है। लेकिन आम जनता के पास इतना समय नहीं होता है कि चालाक, धूर्त और लम्पट नेताओं की चालबाजियों और साजिशों को समझने बैठे। ऐसे में वह नेताओं की बयानबाजी को हंसी-चुहल और नौटंकी से अधिक कुछ नहीं समझता। अपनी इस दशा के लिए नेता खुद ही जिम्मेदार हैं।
एक हद तक मीडिया भी नेताओं के सुर में सुर मिलाता है। वह अपने निजी स्वार्थ और अपने धंधे को ध्यान में रखकर नेताओं की बयानबाजी और भाषण का विश्लेषण राजनीतिक दल और नेताओं के मूड और रिश्तों के हिसाब से लिखता-दिखाता है। नेता-मीडिया की इस तथाकथित जुगलबंदी में आम आदमी हर बार ठगा जाता है, और नेता सारे गुनाह करने के बाद भी हाथ झाड़कर साफ निकल जाते हैं।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और नेताओं ने एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगाई और लगा रहे हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने और धूल चटाने की नीयत से खूब तीखी बयानबाजी भी हुई। अगर यह समझा जाए कि नेता एक दूसरे से खार खाते हैं या फिर एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, तो हम-आप बिल्कुल गलत समझते हैं। राजनीति व्यापार और नेता एक कुशल और चालाक व्यापारी की भांति अपनी कमियों को दबाने और अच्छाइयों को प्रचारित करने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं।
भाजपा की फायरबिग्रेड कही जाने वाली नेत्री उमा भारती यह कहती हैं कि चुनाव बाद किसी दल से अगर गठबंधन हुआ तो वो गंगा में समाधि ले लेंगी। कांग्रेसी दिग्विजय सिंह का बयान कि चुनाव बाद किसी भी दल से समझौता नहीं होगा या फिर यह कि अगर सूबे में किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो राष्ट्रपति शासन लगेग। सलमान खुर्शीद कहते हैं कि बाटला हाउस कांड की फोटो देखकर सोनिया के आंसू निकल आए थे, या फिर अल्पसंख्यकों के आरक्षण संबंधी बयान। बेनी का पुनिया को बाहरी बताना हो या फिर राबर्ट-प्रियंका की बयानबाजी। ये बयान या शब्द अनायास ही इन नेताओं के मुंह से नहीं निकले हैं।
बयानबाजी किसी खास मकसद से की जाती है। एक-एक बयान को लेकर घंटों चिंतन-मंथन का दौर चलता है, यह अलग बात है कि नेता उसे अपने मुखारविंद से उवाचते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनका निजी बयान है। कभी कभार दांव उलटा पड़ने पर पार्टी यह कहकर कि यह अमुक की निजी राय है, खुद को विवाद से अलग कर लेती है। लेकिन नेताओं के मुंह से निकला एक-एक शब्द सोची-समझी रणनीति या कार्ययोजना का हिस्सा ही होता है।
हां, कभी कभार जोश, कुंठा, निराशा या निजी कारणों से जुबान फिसल भी जाती है, लेकिन ऐसे मामले कम ही होते हैं। अधिकतर मामलों में सुर्खियों में बने रहने के लिए नेता विवादास्पद और अजीब बयान देकर खुद को ज्ञानी, चिंतक, विचारक और भीड़ से अलग दिखाने की जुगत में लगे रहते हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपने ऊटपटांग हरकतों, फूहड़ अंदाज और देहाती बोली और अजब-गजब बयानों के लिए मीडिया के केंद्र में बने रहते हैं।
जब सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यह कहते हैं कि वो बलात्कार पीडि़तों को मुआवजा और नौकरी देंगे या फिर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी बोलते हैं कि बलात्कारियों का हाथ काटने वाली सरकार चाहिये तो इसका कोई मतलब होता है। असल में नेता अपनी तीखी जुबान से आम आदमी और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और ऐसे नेता हमेशा चर्चा में बने रहते हैं। दिग्विजय जैसे दर्जनों महासचिव कांग्रेस में होंगे, लेकिन आज अगर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सूबे की जनता जानती-पहचानती है तो उसके पीछे उनकी विवादित बयानबाजी का बड़ा योगदान है।
बाटला हाउस इनकाउंटर पर बयान देकर दिग्विजय ने मुस्लिम वोटरों की गोलबंदी की कोशिश की थी। ये अलग बात है कि उनका दांव उलटा पड़ गया और राहुल ने उनसे किनारा करने में भलाई समझी, लेकिन पिछले चार सालों से कांग्रेसी नेत्री रीता बहुगुणा जोशी, पीएल पुनिया, बेनी प्रसाद वर्मा, दिग्विजय सिंह बयानबाजी के कारण ही सुर्खियों में बने रहे। रीता बहुगुणा का आज जो कद और साख है उसके पीछे उनकी प्रदेश सरकार पर हमलावर प्रवृत्ति, आलोचना और तीखी बयानबाजी का बड़ा योगदान है।
मायावती पर सीधे हमले करके रीता बहुगुणा ने खुद का सूबे की राजनीति में स्थापित कर लिया। भाजपा में उमा भारती, विनय कटियार, कलराज मिश्र, नितिन गडकरी, वरूण गांधी और योगी आदित्यनाथ तीखी बयानबाजी के जाने जाते हैं। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह, आजम खां भी किसी से कम नहीं हैं ।
जब मायावती मंच पर चढ़कर दलित मतदाताओं को बसपा की सरकार न होने पर उनके साथ होने वाले जुल्मों का बयान करती है या फिर दलित स्वाभिमान को लेकर जोशभरती है तो भीड़ में जादू का असर होता है। मीडिया और बुद्धिजीवी नेताओं के बयानों के विभिन्न पक्षों की सकारात्मक और नकारात्मक व्याख्या और टीका-टिप्पणी करता है, लेकिन आम आदमी या मतदाता जिसके पास उतनी सूक्ष्म बुद्धि या चिंतन का समय नहीं है वो तो अपने प्रिय नेता की बात को पत्थर की लकीर और स्थापित सत्य मानता है।
उत्तर प्रदेश में दो चरणों का मतदान हो चुका है और पांच चरणों का मतदान अभी शेष है। ऐसे में मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने और उन्हें अपने पाले में लाने के लिए नेताओं की जुबान तीखी होती जाएगी और विरोधियों पर हमलावर होने की प्रवृत्ति में भी बढ़ोतरी होगी। विवादास्पद बातें कहकर ही नेता और राजनीतिक दल अपनी गलतियों को छुपाते एवं ढकते हैं और विरोधियों को नंगा करते हैं ।जो कुछ भी वो बोलते हैं उसकी आड़ में कोई मकसद, मतलब या फिर संदेश छुपा होता है। यह अलग बात है कि कोई कितना समझ पाता है, लेकिन नेता हर बार अपनी चाल में कामयाब हो जाते हैं। 

Sunday, February 12, 2012

सूत न कपास : सीएम पद के लिए बेनी-पुनिया कर रहे बकवास

कांग्रेस के कुर्मी चेहरे एवं केन्द्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और दलित चेहरे एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पन्ना लाल पुनिया की लड़ाई थमने का नाम नहीं ले रही है. ताजा घटनाक्रम में बेनी बाबू ने बाराबंकी सांसद पीएल पुनिया को बाहरी बता विवाद को जन्म दे दिया है. मंत्री वर्मा ने दरियाबाद विधानसभा क्षेत्र में पुनिया के लिए ये बात कही. दरियाबाद से वर्मा का बेटा राकेश कांग्रेस प्रत्याशी हैं. बेनी ने कहा पुनिया पंजाब के हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं है. ये बयान पुनिया के उस बयान से जोड़ कर देखा जा रहा है जिसमें पुनिया ने कहा था कि पार्टी ने किसी नेता को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया है.
ऐसे में आज जब उन्होंने कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया को पंजाब का निवासी बता डाला तो कांग्रेस की गुटबाजी भी उभरकर सामने आ गयी. असलियत यह है कि बेनी बाबू अभी से ही अपने को प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री मान चुके हैं और उनके लिए कांग्रेस हाई कमान भी कोई खास मायने नहीं रखता. बताते चले कि बेनी प्रसाद उत्तर प्रदेश में कुर्मियों के बड़े नेता माने जाते हैं, और मध्य एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनका अच्छा प्रभाव व रसूख है. वहीं पुनिया भी कांग्रेस और प्रदेश के रसूखदार दलित नेता हैं, सूबे के दलित उन्हें पूरा आदर व मान देते हैं. खुद को भावी मुख्यमंत्री का योग्य और सक्षम उम्मीदवार साबित करने की जंग में बेनी और पुनिया के बीच छिड़ी लड़ाई से अगले छह चरणों के मतदान और मिशन 2012 को गहरा धक्का लगने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. विवाद को ठंडा करने के लिए दिग्विजय सिंह ने वर्मा को संयम बरतने की सलाह दी है. सिंह कहा कि दोनों ही पार्टी के कद्दावर नेता हैं. वर्मा को ऐसे बयान नहीं देने चाहिए.
पीएल पुनिया और बेनी के बीच छिड़ी लड़ाई कोई नयी नहीं है. केन्द्र में पद मिलने के बाद भी दोनों महानुभावों का अधिकतर समय यूपी में ही बीतता है. असल में पुनिया और बेनी दोनों की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी है. यह बात पार्टी हाइकमान से लेकर आम कार्यकर्ता तक को बखूबी मालूम है. दोनों को पार्टी और मंत्रिमंडल में महत्व देने की पीछे उनकी जाति का फैक्टर सबसे सबल पक्ष रहा है. कांग्रेस ने दलितों को साधने के लिए पुनिया और कुर्मियों को अपने पाले में लाने के लिए बेनी को खूब तवज्जों दी जाती है. सपा छोड़कर कांग्रेस में आए बेनी बाबू के पीछे स्ट्रांग कुर्मी वोट बैंक है, तो वहीं नौकरशाह से नेता बने पीएल पुनिया को मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के गरज और इरादे से पार्टी में खास जगह दी गयी है. कांग्रेस ने बेनी और पुनिया दोनों को केन्द्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण पद सौंप रखे हैं, बावजूद इसके दोनों का अधिकतर समय यूपी में ही बीतता है. बेनी बाबू के अजेंडे में केन्द्र की कुर्सी से ज्यादा सूबे की कमान महत्वपूर्ण हैं.
लखनऊ एयरपोर्ट से लेकर बहराइच तक मेन सड़क के किनारे इस्पात मंत्रालय के लगे बड़े-बड़े होर्डिंग बेनी बाबू की राजनीतिक महत्वकांक्षा और मन में दबी भावनाओं का खुलकर प्रदर्शन करते हैं. पीएल पुनिया भी यूपी से जुड़े दलित अत्याचार, अपराध के मुद्दे को अति गंभीरता से लेते हैं, जिसके चलते राष्ट्रीय स्तर का आयोग यूपी में ही सिमटकर रह गया है. बेनी और पुनिया दोनों एक दूसरे को पटखनी देने और एक दूसरे पर शब्द बाण चलाने का कोई अवसर छोड़ते नहीं है. बेटे के चुनाव प्रचार में व्यस्त बेनी बाबू को जैसे ही वोटिंग के दिन फुर्सत मिली उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पुनिया पर हमले करने में देरी नहीं की और उन्हें बाहर का बताकर मुख्यमंत्री की रेस से बाहर करने का अचूक दांव चला. फिलहाल पुनिया ने इस मुद्दे पर सधा जवाब देकर एक बार फिर यह साबित किया कि वे संगठन के दायरे में रहने वाले नेता हैं. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि बेनी और पुनिया मुख्यमंत्री बनने के सपने किस आधार पर देख रहे हैं.
विधानसभा में कांग्रेस के 22 विधायक हैं, राहुल बाबा की दिन रात की मेहनत और दलित एवं मुसलमान प्रेम की बदौलत बहुत ज्यादा छलांग लगाकर कांग्रेस दुगनी सीटें पा जाएगी इससे ज्यादा कुछ होने वाला नहीं है. वोटरों को भरमाने और बरगालाने के लिए सभी दल अपने दम पर सरकार बनाने के दावे ठोंक रहे हैं लेकिन असलियत किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेस की हालत और प्रदर्शन से राहुल खुद ही झुंझलाए और झल्लाए हुए हैं, उनकी हताशा, निराशा और चुनाव नतीजों की झलक वाराणसी में हुई प्रेस कांफ्रेस में दिख ही चुकी है, ऐसे में जो थोड़ा बहुत बेहतरी होने की संभावना है भी वो बेनी और पुनिया जैसे नेताओं की बयानबाजी और झगड़े की वजह से मिट्टी में मिल रही है. आज कांग्रेस आलाकमान पार्टी को सूबे में आईसीयू से बाहर निकालने में जुटा है और उसके नेता खुद को मुख्यमंत्री की दौड़ में अव्वल बनाने में जुटे हैं, बेनी और पुनिया के झगड़े को देखकर पुरानी कहावत न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ साबित होती है.

जो माया के अपने थे, अब होने लगे मुलायम के

नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया की चाल और मूड से देश में होने वाली गतिविधियों और भावी परिवर्तनों को आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि जनता और शासन के मध्य ये तीनों एक पुल की भांति होते हैं, और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से इनका सत्ता और जनता से गहरा जुड़ाव और रिश्ता होता है। ऐसे में अगर इन तीनों की चाल, मूड, भाषा, स्वभाव और कार्यशैली में बदलाव दिखाई दे तो यह समझ लेना कुछ होने वाला है या फिर बदलाव के संकेत है। बसपा शासनकाल में जो लोग सता के नाक के बाल थे वो एक-एक करके किसी न किसी बहाने से उससे दूर छिटक रहे हैं, या दूर होने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। माया मेमसाहब के सबसे करीबी नौकरशाह केन्द्र में प्रतिनियुक्ति के लिए अर्जी लगा रहे हैं तो बहनजी के खासम खास उद्योगपति भी बोरिया बिस्तर समेटने की कवायद में जुट गये हैं।
बदलाव की हवाओं से मीडिया भी अछूता नहीं है, बदलाव के खुशबू सूंघकर मीडिया ने चाल और भाषा बदल दी है। ये चर्चा जनता में भी आम है कि अबकि बदलाव तो जरूर होगा। आम आदमी के मन में यह सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि सत्ता की चाबी किसको मिलेगी। अलग-अलग विचार और गणित हैं, लेकिन कुल मिलाकर बदलाव होगा ये बात तय हो चुकी है। खुफिया और मीडिया रिपोर्ट के आधार पर नौकरशाह इस बात को सबसे पहले समझ गये कि बहनजी की सरकार बनना मुश्किल है, ऐसे में सत्ता से दूरी बनाने में ही भलाई है। पंचम तल में बैठने वाले बहनजी के खासमखास नौकरशाह ने तो चुनाव की घोषणा से पहले ही समाजवादी पार्टी में लाइजनिंग और मेल-जोल बढ़ाना शुरू कर दिया था, सूत्रों की माने तो नेताजी के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव की लखनऊ में आयोजित शादी की रिसेप्शन पार्टी का सारा प्रबंध इसी नौकरशाह के चम्मचों ने किया था।
चुनावी शंखनाद के साथ ही बसपा सरकार के डूबते जहाज से कूदने और साथ छोड़ने वाले अफसरों की लाइन ही लग गयी। हालत यह है कि बहनजी की आंख, कान और हाथ माने जाने वाले एक दर्जन से अधिक अफसर बदलाव की सुगबुगाहट के बीच केंद्र में प्रतिनियुक्ति के लिए राज्य सरकार के समक्ष अर्जी लगा चुके हैं। प्रतिनियुक्ति चाहने वालों में मुख्य सचिव अनूप मिश्र के अलावा पंचम तल के ताकतवर नौकरशाह रवीन्द्र सिंह, जेएन चौम्बर, प्रदीप शुक्ला, आरपी सिंह, अनिल संत, सुशील कुमार, मोहम्मद मुस्तफा और कई आईपीएस आफिसर भी हैं। इसके अलावा बहनजी के करीबी एक दर्जन के करीब आईएएस और आईपीएस अफसरों ने समाजवादी खेमे में आमद दर्ज करा ली और इन दिनों ये महानुभाव सपा नेताओं को पटाने और आगे की गोटियां फिट करने में समय बिता रहे हैं। नौकरशाहों की तरह बहनजी के आर्थिक स्त्रोतों अर्थात उद्योगपतियों ने भी बहनजी और सत्ता से दूरी बनानी शुरू कर दी है।
बहनजी के राज में सोनभद्र से लेकर नोएडा तक की बेशकीमती जमीनें लूटने और प्राकृतिक संसाधनों के लुटरे जेपी ग्रुप ने तमाम विकास योजनाओं के काम से हाथ खींच लिया है, बैंक गारंटी के तौर पर जमा धनराशि की वापसी की कार्रवाई शुरू कर दी है। जेपी ग्रुप के पास ही बहनजी के ड्रीम प्रोजेक्ट यमुना एक्सप्रेसवे का ठेका था। लेकिन बदलाव की सूंघ लगते ही कम्पनी ने काम बंद करने और पीछे हटने में ही भलाई समझी है। बहनजी के सबसे खास उद्योगपति और शराब माफिया पोंटी चड्डा ने भी सोची समझी रणनीति और बहन जी को दुबारा सत्ता हासिल होते न देख दूरी में ही भलाई समझ आ रही है। सूत्रों की माने तो पोंटी जिस तरह से बसपा से दूरी बना रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अगला शासन मायावती का नहीं होगा। पोंटी को बखूबी पता है कि पिछले पांच सालों में उनके और माया सरकार के करीबी रिश्तों को लेकर खूब चर्चा हुई है, ऐसे में अगर कोई अन्य सरकार बनी तो वह उनकी कम्पनी को अछूत समझकर किनारे लगा सकती है। यह बात यह बिजनेस मैन होने के नाते पोंटी कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। जानकार तो यहां तक कहते हैं कि पोंटी ने ही अपने ठिकानों पर खुद आयकर विभाग के छापे की कार्रवाई करवाई है। छापों के बाद अब कोई यह नहीं कह पाएगा कि पोंटी के पास काले धन की खान है दूसरा पोंटी के करीबी यह कहते हुए बसपा को उसका ‘हक’ देने से बच जाएंगे कि उन्होंने कुछ कमाया ही नहीं तो देंगे कैसे।
सपा सुप्रीमो के साथ पोंटी के अच्छे संबंध रहे हैं, मुलायम ने बसपा से गठबंधन सरकार के जमाने में पोंटी को मायावती से मिलवाया था। ऐसे में मुलायम की नजरों में पाक-साफ दिखने के लिए अपने कांग्रेसी संबंधों की मदद से पोंटी ने आगे की राह साफ कर ली है। बदलाव की हवा जेपी ग्रुप और पोंटी चड्डा के अलावा कई दूसरे औद्योगिक घरानों ने सूंघ ली है। सूत्रों के अनुसार इस बार औद्योगिक घरानों ने सबसे अधिक चंदा सपा को ही दिया है और परिवर्तन भांपकर औद्योगिक घराने आगे की रणनीति को समाजवादी नजरिये से देखने-समझने की जुगत में लगे हैं। ऐसे में मीडिया जगत को बखूबी पता है कि सूबे में अगली सरकार बसपा की नहीं होगी यह तय है। ऐसे में बसपा को कम कवरेज से लेकर मीडिया जगत में हलचल और भावी सरकार से जुड़े पत्रकारों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाने की कार्रवाई भी शुरू हो चुकी है। अधिकतर अखबार प्रबंधन और मीडिया हाउस अखबार और चैनल की बागडोर यूपी में उनके हाथ में सौंप रहा है जिनका समाजवादी पार्टी से मधुर संबंध हैं। सूबे में चुनावी मौसम में दर्जनों नये अखबार और चौनल इस कड़ी का हिस्सा है, और लगातार अखबार और चैनल के उच्च पदों पर परिवर्तन और नयी नियुक्तियां परिवर्तन की संभावना की वजह से ही हैं।
लब्बोलुआब यह है कि सूबे की सत्ता में परिवर्तन होगा, यह नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया के बदले रूख और चाल से समझा जा सकता है। असल में होगा क्या है यह तो चुनाव परिणाम ही तय करेंगे लेकिन सत्ता के सबसे करीबी लोगों और संगठनों में अचानक बदलाव, हलचल और तेजी दिखाई दे तो कहानी समझ में आ ही जाती है और यूपी में जिस तरह से नौकरशाह, उद्योगपति और मीडिया में जो अस्वाभाविक परिवर्तन दिख रहे हैं, वो साफ तौर पर सत्ता परिवर्तन की चुगली कर रहे हैं।