Friday, December 04, 2009

हम ‘खिलाते’ हैं इसलिए वो ‘खाते’ हैं



भ्रष्टाचार की विरूद्व जनजागरण की मुहिम चलाने वाला विज्ञापन ‘हम खिलाते हैं इसलिए वो खाते हैं’ देश  में व्याप्त भ्रष्टाचार की गहरी परतों को उधेड़ कर रख देता है। मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भ्रष्टाचार के दोषी अधिकारियों की संपत्ति जब्त करने के पक्ष में हैं। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भ्रष्ट अधिकारियों की लगाम कसने और कानून को प्रभावी बनाने की वकालत कर रहे हैं। वहीं राज्य मंत्री पृथ्वीराज चहवाण भ्रष्टाचार को देश के  आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। विश्व  के भ्रष्टतम देशों में हमारी गिनती होती है। सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को खत्म करने और भ्रष्टों की लगाम कसने के लिए समय-समय पर देश में भ्रष्टाचारा विरोधी अभियान चलाए जाते है, गोष्ठियां आयोजित की जाती है, कड़ी कार्रवाई की धुड़की दी जाती है, बावजूद इसके दिनों दिन आमजीवन में भ्रष्टाचार का सामाजीकरण और स्थायीकरण हो रहा है। दो चार दिन की सख्ती व रोक के बाद ‘करप्शन मेल’ अपने पुराने ट्रेक पर दौड़ने लगती है। देश में बढ़ते भ्रष्टाचार की खबर हर खासो आम को है लेकिन असल दिक्कत यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन। ताजा मुहिम में विधायिका व न्यायापालिका ने संयुक्त रूप से भ्रष्टाचार के विरूद्व सख्त तेवर अपनाए है ऐसे में एक बार फिर ये आस जगी है कि भ्रष्टों पर कानूनी शिकंजा कसा जाएगा और देश की जनता को साफ सुथरा प्रशासन व लोक व्यवस्था मिल पाएगी।

लोक-व्यवस्था में भ्रष्टाचार को सरकारी कामकाज की उपभोक्तावादी कार्य संस्कृति के तौर-तरीकों  का पर्याय कहा जाये, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया में जवाबदेही और पारदर्शिता का  अभाव है तो दूसरी ओर कानून की धौंस पट्टी के चलते भ्रष्टाचार के तौर तरीको का विकास सुगम है। इसी कारण आज देश की अर्थ-व्यवस्था में औद्योगिक विकास की दर में कमी, राजकोष में करोड़ों का घाटा और राजस्व वसूली में घोर अनियमितताएं उभर कर सामने आयी है। प्रदूषण नियंत्रण रोकने का कानून हो, चाहे खाद्य पदार्थो मे अपमिश्रण को रोकने का कानून हो, जटिल विधानो की अतार्किक परिभाषाएं गढ़ कर धन उगाही की कुसंस्कृति जारी है। मौजूदा कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार सर्वमान्य भौतिकवादी और प्रयोगवादी सिद्धान्त हो चुका हैं इसके कारण बेरोजगारी में भी इजाफा हुआ और विकास की दर मे भी कमी आयी है। नतीजा यह भी निकला कि लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया खर्चीली हुई और अब सरकारी नुमांइदो के हौसले इतने बुलन्द है कि वे भ्रष्टाचारियो की जांच रपट में भी लीपा-पोती करने में बाज नहीं आ रहे है। मौजूदा कार्य संस्कृति में नियुक्ति से लेकर ट्रान्सफर  पोस्टिंग तक एक धंधा बन चुका है। सूचना के अधिकार ने थोड़ी लगाम तो कसी है लेकिन अभी कसावट की काफी गुंजाइश बाकी है।
कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार का ताना-बाना राजनैतिक दलों, नौकरशाहों , राजनेताओं और अवसरवादी तत्वों ने बुना है। इसके पीछे देश की पेचीदा कानूनी प्रक्रिया, रैंक और फाइल व्यवस्था भी है। इस कार्य संस्कृति ने लोकतंत्र को गरीबी, अज्ञानता और असमानता की तराजू पर रखकर लोक कल्याण को ‘भ्रष्टमेव जयते‘ को आत्मघाती सिद्धान्त दिया है। इसके चलते देश नव साम्राज्यवादियों के आगे आत्म समर्पण कर चुका है। भ्रष्टाचार की पैदाइश लोकतंत्र में लोक और तंत्र की विफलता का कारण बनती जा रही हैं इस कार्य संस्कृति में सरकारी नुमांइदे यह जानते है क़ि वे भ्रष्टाचार का सरकारीकरण रोक नहीं सकते है। असलियत यह है कि राजनीतिक दल राजनेता, या सरकारी नुमांइदे  भ्रष्टाचार को खत्म करने की लफ्फाजी तो करते है लेकिन वह यह बताने की हैसियत नहीं रखते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों और सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को सरल और तर्कसंगत कैसे करेंगे?  सत्तारूढ़ दलो की स्थिति यह है कि वे सरकारी काम को पारदर्शी बनाने का नारा तो देते है, लेकिन सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को कैसे पारदर्शी बनायेंगे, इसकी योजना जनता के सामने नहीं लाते है। राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपना दामन पाक साफ बताना चाहते हैं, जबकि भ्रष्टाचार के पीछे राजनेताओ और नौकरशाही का गठजोड़ है। भ्रष्टाचार और सरकारी कामकाज के बीच मैतक्य स्थापित किया जा रहा है। कानून ओर जनतंत्र का मखौल उड़ाया जा रहा है।
शासकों ने शासन के हितों को संरक्षित करने की बजाय खुद के हितों को सर्वोपरि मानकर ऐसी प्रक्रिया को चुना है जिसमें शासक की जिम्मेदारी और जवाबदेही का अभाव बना रहे। सरकारी कामकाज में समयबद्धता के सिद्धान्त को सरकारी मशीनरी ने ही दरका दिया है। भ्रष्टाचार ने सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को कुतार्किक और कुसंगत भी बना दिया है। इसके चलते आम जनता का विश्वास सरकारी प्रक्रिया से डिगा है और भ्रष्टाचारी संस्कृति आज सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो रही है। आज रिश्वत देने वाला भला ही शरमा जाए लेकिन लेने वाला बड़ी बेशर्मी से बेहिचक व बेखौफ होकर रिशवत मांगता व स्वीकारता है।

वर्तमान कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से बहुत गहरा रिश्ता है। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया का आयाम आज उपभोक्तावादी हो चुका है। सरकारी कामकाज और भ्रष्टाचारियो के बीच ऐसा  मतैक्य स्थापित हो चुका है, सदाचार, नैतिकता, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, सामाजिक दृष्टिकोण, राष्ट्रहित जैसे मूल्यवान शब्दों की पहचान खो चुकी है। जुगाड़बाजी, अपराधिक गिरोहबन्दी, न्यस्त स्वार्थो की पूर्ति, अनैतिक कार्यो से कोई परहेज न रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अपराधियो से दुरभिसंधि के चलते राजनीतिक दल सरकारी कामकाज को दलीय निष्ठा को चोला पहनाने की नीयत रखते है। अपराध और भ्रष्टाचार के बीच पनपी राजनीतिक ठेकेदारी और निरंकुश नौकरशाही सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने म बाधक सिद्ध हुई है। राजनैतिक दलों के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करने वाली सरकारी मशीनरी इस स्थिति में नहीं रह गयी हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए वह नियमों के विवेक पूर्वक लागू करे इसका अर्थ है कि सरकार खुद    नहीं चाहती है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। राजनेताओं  को भ्रष्टाचार का पहला पाठ सत्तारोहण के साथ ही नियमों को परिभाषाओ के साथ समझाया जाता है।
सरकारी मशीनरी खुद ही कानूनों में ‘‘किन्तु‘‘ ‘‘परन्तु‘‘ के आश्चर्यजनक सिद्धान्त को प्रतिपादित करती है। एक तरफ सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को उदारवादी चोला पहनने का प्रयास किया जाता है तो दूसरी ओर इंस्पेक्टर राज के द्वार खोले जाते हैं ऐसी स्थिति मे अगर कोई राजनेता यह दावा करे कि उसने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की पहल की है, तो यह सरकारी कामकाज से पनपा एक पाखण्ड ही माना जायेगा। राजनीतिक दलों और सरकारी मशीनरी के सामने भ्रष्टाचार से बड़ी चुनौती यह है कि सबसे पहले उन नौकरशाहों, राजनेताओ और अवसरवादियो को पहचानने का प्रयास करें, जो अपराधियो से दूरभिसन्धि कर भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने में जुटे हैं दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकारी मशीनरी को प्रशासन की जवाबदेही से सम्बद्ध करना पडेगा साथ ही प्रक्रिया और विवके से जुड़े प्रशासनिक एकाधिकारवाद को खत्म कर शासन के प्रत्येक हिस्से में उत्तरदायित्व का निर्धारण करना होगा। चूंकि भ्रष्टाचार की जड़ शक्ति ओर विवेक का एकाधिकारवाद छिपा है इसलिए सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण मे सामयिक बदलाव लाये इसका अर्थ यह है कि अधिकारो का विके्रन्द्रीकरण हो और प्रत्येक स्तर पर जवाबदेही और जिम्मेदारी तय हो।

विभिन्न देशों के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2007 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्षों की तुलना में वर्ष 2007 में भारत में भ्रष्टाचार के स्तर में कुछ कमी आई है। ताजा रिपोर्ट में भारत का भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई,  करप्शन  परसेप्शन इंडेक्स) 3.5 आंकलित किया गया है, जो पिछले वर्ष 2006 में 3.3,  2005 में 2.9 तथा 2004 व 2003 में 2.8-2.8 रहा था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2007 की रिपोर्ट में सर्वोच्च स्थान आइसलैण्ड, फिनलैण्ड व न्यूजीलैण्ड को संयुक्त रूप से प्राप्त हुआ है।  एशियाई देशों में चीन का इस सूची में स्थान जहां भारत से कुछ ऊपर है, वहीं श्रीलंका को 92वें, नेपाल को 131वें, पाकिस्तान को 138वें तथा बांग्लादेश को 162वें स्थान पर इसमें रखा गया है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल वर्ष 2007 की रिपोर्ट में 180 देशों की सूची में भारत का 72वां स्थान है। इसका अर्थ यह है कि सूची में भारत से नीचे देशों की संख्या 108 है। तात्पर्य यह है कि 108 देशों में भ्रष्टाचार का स्तर भारत से अधिक है। वर्ष 2006 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 163  देशों की सूची में भारत का स्थान 70वां रहा था। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के अनुसार 1998 में 654 और 1999 में 684 सिविल सेवक रिश्वतखोरी में दोषी ठहराए गए जबकि वर्ष 2000 में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। सिविल सेवकों पर षिंकजा कसने के लिए कानून मंत्री ने संविधान के अनुच्छेद 310 और 311 को समाप्त कर इनके बदले अनुच्छेद 309 के तहत नया विधेयक परित करने का संकेत दिया है

असलियत में सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार जन संस्थाओं का आत्मविश्वास  डिगाता है और जनता के लेनदेन की कीमत बढ़ाता है। भ्रष्टाचार समाज की स्थिरता, सुरक्षा तथ कानून के शासन को पैदा करता है। विश्व बैंक से जुड़ी एक संस्था का आंकलन है कि एक खरब से ज्यादा डालर का हर साल दुनिया में रिश्वत के तौर पर भुगतान किया जाता है। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए किसी ऐसे प्रणाली को विकसित करने की आवश्कयता होगी, जिसमे राजनीतिक मुखिया से लेकर प्रशासनिक ‘‘दाता‘‘ और क्षमताओ का दम्भ भरने वाली सरकारी मशीनरी को जवाबदेह बनाया जा सके। इसके लिए जरूरी हे कि देश में नयी वित्तीय प्रशासनिक निर्णयात्मक सम्परीक्षा प्रणाली यानी ‘‘डिसिजन मेंकिग अडिट प्रणाली‘‘ और प्रसाशनिक आचार संहिता के बीच मतैक्य स्थापित हो। साथ ही सरकार को योजनागत और अयोजनागत वित्तीय ढांचे को भी पारदर्शी बनाने का प्रयास करना चाहिए। मौजूदा कार्यसंस्कृति में तो भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरण ही हुआ है।

5 comments:

  1. जबर्दश्त पकड़ है राजनीती पर आपकी ....पत्रकार जो हैं ..... फिर प्रोफाइल देखी.... फीचर्स, रिपोर्ट, लघुकथाएं व कविताएं ‘नालायक’ लघु कथा संग्रह प्रकाशन के लिए तैयार....वाह....अग्रिम बधाई ....!!

    '' ताजा मुहिम में विधायिका व न्यायापालिका ने संयुक्त रूप से भ्रष्टाचार के विरूद्व सख्त तेवर अपनाए है ऐसे में एक बार फिर ये आस जगी है कि भ्रष्टों पर कानूनी शिकंजा कसा जाएगा और देश की जनता को साफ सुथरा प्रशासन व लोक व्यवस्था मिल पाएगी...'' ....दुआ है ये दिन जल्द नसीब हो ....!!

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  2. kripya corruption unmulan ke upay bhi sujhayen...................jo likha hai wo bahut badhiya hai ............lekhni k dhani lagte hain aap bahut bahut badhai....

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  3. शुक्रिया मित्र. सिर्फ इसलिए ही नहीं की आपने मेरी गुफ्तगू में शामिल होकर मेरे साथ गुफ्तगू की बल्कि आपकी गुफ्तगू के जरिये मुझे आपके ब्लॉग का चक्कर लगाने का मौका मिला. आपके बारे में जानकर और आपके लेख पढ़ कर मुझे लगा की किस-किस टोपिक पर आपको बधाई दूँ. समझ में नहीं आ रहा है. इसलिए एक साथ सभी टोपिक के लिए आप से गुफ्तगू करू. वाकई बहुत अच्छे लेख है और इन लेखो पर हम सब को विचार भी करना आवश्यक है. मैंने आपके ब्लॉग का अनुशरण कर लिया अब तो में नियमित रूप से आपके ब्लॉग का चक्कर काटता रहूँगा. बाकि रही बात आपके लेख की तो घूसखोरी, दहेज़ और फोन पर आपके लेख सहरानीय है. पुन बधाई.

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  4. you are absolutely right......corruption is the big scar on the forehead of our nation and always start and promote at our level. Today we take oath not to promote corruption. cogrates for writing on very senstive and current topic.

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