
पर्यावरण प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन गैसों का प्रभाव कचरा प्रबंधन पर समय-समय पर खबरें व विशेषज्ञ कमेटियों की रिपोर्ट प्रकाशित होती रहती हैं। पर्यावरण प्रदूषण के वर्तमान आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो यह स्पष्ट है कि हमारे आज से ज्यादा खतरनाक हमारा आने वाला कल होगा। जिस तेजी से धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, मौसम चक्र गड़बड़ाता जा रहा है। नदियों का जलस्तर कम हो रहा है, ग्लेशियर पिघलते जा रहे है, नदियों जहरीले नालों का रूप धारण कर रही है, पीने के पानी के लिए देश में हाहाकार मचा हुआ है कचरे के ढेर लगातार बढ़ रहे है, प्लास्टिक का प्रयोग बंद नहीं हो रहा है असलियत यह है कि सब कुछ ठीक नहीं है और असलियत भी शायद यही है।
नदियो की बात की जाए तो राष्ट्रीय नदी गंगा अत्यधिक प्रदूषण का शिकार है। पतित पावनी गंगा में रोजाना लाखो टन कचरा बिना किसी शोधन के सीधे धकेल दिया जाता है। देश में हाइड्रोपावर प्रोजेक्टों की आई बाढ़ के कारण गंगा सुरंगों में कैद हो रही है। नदी का जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि ऋषिकेश व हरिद्वार को छोड़कर अन्य किसी स्थान पर गंगा में स्नान या आचमन करना जोखिम का काम है। गंगा की भांति यमुना, गोदावरी, गोमती, वरूणा, महानंदा आदि सैकड़ो छोटी-बड़ी नदियां प्रदूषण के कारण जहरीली‘ हो चुकी हैं। बढ़ता औद्योगीकरण व शहरीकरण कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। देश में कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोदिन कम हो रहा है। फसलों में यूरिया, डीएवी व कीटनाशकों के लगातार बढ़ते प्रयोग से भूमि प्रदूषण बढ़ रहा है व भूमि की ऊर्वरा शक्ति भी क्षीण हो रही है। यह जहरीले रसायन भूमि बंजर तो बना ही रहे हैं वहीं इन की वजह से पक्षियो व तमाम अन्य वनस्पतियों के अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है।

मानाकि देश की आबादी व जरूरतों के हिसाब से उद्योग अनिवार्य हैं। उद्योग धंधे लगाना कोई बुरी बात भी नहीं है। यह खुला तथ्य है कि औद्योगिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा में बिल्कुल उलटा संबंध है। आज शयद एक कोई ऐसा आधुनिक उद्योग हो जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाला न हो। इसलिए कोई उद्यमी यह गांरटी नहीं ले सकता कि उसके उद्योग से पर्यावरण को क्षति नहीं पहुचेंगी। इसलिये किसी नये उद्योग की स्थापना में केवल यह देखा जाता है कि इससे पर्यावरण को कम से कम से नुकसान हो। लेकिन इसका फार्मूला तय करना भी कठिन है। फिर भी यदि केंद्र और राज्य सरकार ईमानदारी से चाहे तो इस प्रक्रिया को और सरल और पारदर्शी बनाया जा सकता है और पर्यावरण का नष्ट करने से बचाया जा सकता है।
प्रदूषण नियंत्रण के लिए जिम्मेदार सरकारी व गैर सरकारी एजेंसिया कागजी कार्रवाई में अधिक विश्वास करती हैं। विकास की दुहाई देकर कहीं नदियो का बहाव रोक दिया जाता है, तो कहीं हरे भरे वृक्षों का सफाया कर दिया जाता है अपवाद स्वरूप कुछ ऐजेंसियों संस्थाओं को किनारे रख दिया जाए तो पर्यावरण के नाम पर फर्जी संस्थाएं व संगठन लाखो करोड़ो हर साल डकार जाते है। प्रदूषण जैसी बड़ी समस्या को महज पौधारोपण, पेन्टिग प्रतियोगिता या पैदल मार्च कर निपटाने की कोशिशे ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही हैं। सरकारी मशीनरी असलियत से बखूबी वाकिफ है, लेकिन जिम्मेदारियों से भागने की प्रवृत्ति के चलते जानबूझकर आंखें बंद किए रहती है। ज्यादा हुआ तो किसी कारण स्टार होटल के एसी हाल या रूम में बैठकर ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा कर ली जाती है। देश की नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए समय-समय पर आंदोलन, अनशन या फिर मोटी-मोटी रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। देश में नदी प्रदूषण लगातार गंभीर हो रहा है और सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके ही झूठी वाहवाही लूट रही है।
पर्यावरण संरक्षण व प्रदूषण की रोकथाम के लिए हमारे पास कानून व नियम तो हैं लेकिन उनकी सख्ती से लागू करने की इच्छा शक्ति का सर्वथा अभाव है। सरकार व पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों व पर्यावरणविदों को देश भर में जनजागरण अभियान चलाकर आम आदमी को पर्यावरण से जुड़े मसलों में प्रति जागरूक करना होगा क्योंकि जब तक जनता जागरूक नहीं होगी तब तक सारे उपाय निष्फल व निरर्थक ही होंगे। वहीं सरकारी मशीनरी के पेंच कसना भी निहायत जरूरी है, अगर समय रहते प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रभावी व कारगर कदम नहीं उठाए गए तो बढ़ते प्रदूषण का कहर हमें और आने वाली पीढ़ियों को निगल जाएगा।
very true........keep this writing spirit alive.
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