Monday, February 20, 2012

नेता यूँ न करते गाली-गलौज

चुनाव के समय नेताओं का एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना, तीखे शब्द बाण चलाना, बेतुकी, आधारहीन एवं ओछी बयानबाजी करना आम आदमी की नजर में आम बात हो सकती है, लेकिन खुद नेता ऐसा नहीं सोचते हैं। उनकी जुबान से जो कुछ भी निकलता है वो घंटों के चिंतन-मंथन और सोच-समझ के बाद किसी खास वजह से ही निकलता है।
मीडिया की सुर्खियां बटोरने, आम आदमी को अपने पक्ष में करने, विरोधियों पर हमला करने, उनकी पोल-पटटी खोलने और भविष्य की रणनीति का खुलासा करने के लिए नेता भाषण और बयानबाजी करते हैं। जब बात विस्तार से समझानी हो या फिर कई मुद्दों को एक साथ समेटना हो तो प्रेस कांफ्रेस की मदद ली जाती है। ये अलग बात है कि आम आदमी इन संकेतों को पूरी तरह से समझ नहीं पाता है और नेताओं के बहकावे में आकर अपने बुद्धि को किनारे रखकर उनकी कही को सच और सही मानने की भूल कर बैठता है।
नेताओं की बयानबाजी और विरोधियों के लिए प्रयोग की जा रही भाषा, भाव-भंगिमा पर थोड़ा सा भी ध्यान दिया जाए तो सारी कहानी आसानी से समझ में आ जाती है। लेकिन आम जनता के पास इतना समय नहीं होता है कि चालाक, धूर्त और लम्पट नेताओं की चालबाजियों और साजिशों को समझने बैठे। ऐसे में वह नेताओं की बयानबाजी को हंसी-चुहल और नौटंकी से अधिक कुछ नहीं समझता। अपनी इस दशा के लिए नेता खुद ही जिम्मेदार हैं।
एक हद तक मीडिया भी नेताओं के सुर में सुर मिलाता है। वह अपने निजी स्वार्थ और अपने धंधे को ध्यान में रखकर नेताओं की बयानबाजी और भाषण का विश्लेषण राजनीतिक दल और नेताओं के मूड और रिश्तों के हिसाब से लिखता-दिखाता है। नेता-मीडिया की इस तथाकथित जुगलबंदी में आम आदमी हर बार ठगा जाता है, और नेता सारे गुनाह करने के बाद भी हाथ झाड़कर साफ निकल जाते हैं।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और नेताओं ने एक-दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगाई और लगा रहे हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने और धूल चटाने की नीयत से खूब तीखी बयानबाजी भी हुई। अगर यह समझा जाए कि नेता एक दूसरे से खार खाते हैं या फिर एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, तो हम-आप बिल्कुल गलत समझते हैं। राजनीति व्यापार और नेता एक कुशल और चालाक व्यापारी की भांति अपनी कमियों को दबाने और अच्छाइयों को प्रचारित करने का कोई मौका नहीं गंवाते हैं।
भाजपा की फायरबिग्रेड कही जाने वाली नेत्री उमा भारती यह कहती हैं कि चुनाव बाद किसी दल से अगर गठबंधन हुआ तो वो गंगा में समाधि ले लेंगी। कांग्रेसी दिग्विजय सिंह का बयान कि चुनाव बाद किसी भी दल से समझौता नहीं होगा या फिर यह कि अगर सूबे में किसी दल को बहुमत नहीं मिला तो राष्ट्रपति शासन लगेग। सलमान खुर्शीद कहते हैं कि बाटला हाउस कांड की फोटो देखकर सोनिया के आंसू निकल आए थे, या फिर अल्पसंख्यकों के आरक्षण संबंधी बयान। बेनी का पुनिया को बाहरी बताना हो या फिर राबर्ट-प्रियंका की बयानबाजी। ये बयान या शब्द अनायास ही इन नेताओं के मुंह से नहीं निकले हैं।
बयानबाजी किसी खास मकसद से की जाती है। एक-एक बयान को लेकर घंटों चिंतन-मंथन का दौर चलता है, यह अलग बात है कि नेता उसे अपने मुखारविंद से उवाचते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनका निजी बयान है। कभी कभार दांव उलटा पड़ने पर पार्टी यह कहकर कि यह अमुक की निजी राय है, खुद को विवाद से अलग कर लेती है। लेकिन नेताओं के मुंह से निकला एक-एक शब्द सोची-समझी रणनीति या कार्ययोजना का हिस्सा ही होता है।
हां, कभी कभार जोश, कुंठा, निराशा या निजी कारणों से जुबान फिसल भी जाती है, लेकिन ऐसे मामले कम ही होते हैं। अधिकतर मामलों में सुर्खियों में बने रहने के लिए नेता विवादास्पद और अजीब बयान देकर खुद को ज्ञानी, चिंतक, विचारक और भीड़ से अलग दिखाने की जुगत में लगे रहते हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपने ऊटपटांग हरकतों, फूहड़ अंदाज और देहाती बोली और अजब-गजब बयानों के लिए मीडिया के केंद्र में बने रहते हैं।
जब सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यह कहते हैं कि वो बलात्कार पीडि़तों को मुआवजा और नौकरी देंगे या फिर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी बोलते हैं कि बलात्कारियों का हाथ काटने वाली सरकार चाहिये तो इसका कोई मतलब होता है। असल में नेता अपनी तीखी जुबान से आम आदमी और मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और ऐसे नेता हमेशा चर्चा में बने रहते हैं। दिग्विजय जैसे दर्जनों महासचिव कांग्रेस में होंगे, लेकिन आज अगर मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सूबे की जनता जानती-पहचानती है तो उसके पीछे उनकी विवादित बयानबाजी का बड़ा योगदान है।
बाटला हाउस इनकाउंटर पर बयान देकर दिग्विजय ने मुस्लिम वोटरों की गोलबंदी की कोशिश की थी। ये अलग बात है कि उनका दांव उलटा पड़ गया और राहुल ने उनसे किनारा करने में भलाई समझी, लेकिन पिछले चार सालों से कांग्रेसी नेत्री रीता बहुगुणा जोशी, पीएल पुनिया, बेनी प्रसाद वर्मा, दिग्विजय सिंह बयानबाजी के कारण ही सुर्खियों में बने रहे। रीता बहुगुणा का आज जो कद और साख है उसके पीछे उनकी प्रदेश सरकार पर हमलावर प्रवृत्ति, आलोचना और तीखी बयानबाजी का बड़ा योगदान है।
मायावती पर सीधे हमले करके रीता बहुगुणा ने खुद का सूबे की राजनीति में स्थापित कर लिया। भाजपा में उमा भारती, विनय कटियार, कलराज मिश्र, नितिन गडकरी, वरूण गांधी और योगी आदित्यनाथ तीखी बयानबाजी के जाने जाते हैं। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह, आजम खां भी किसी से कम नहीं हैं ।
जब मायावती मंच पर चढ़कर दलित मतदाताओं को बसपा की सरकार न होने पर उनके साथ होने वाले जुल्मों का बयान करती है या फिर दलित स्वाभिमान को लेकर जोशभरती है तो भीड़ में जादू का असर होता है। मीडिया और बुद्धिजीवी नेताओं के बयानों के विभिन्न पक्षों की सकारात्मक और नकारात्मक व्याख्या और टीका-टिप्पणी करता है, लेकिन आम आदमी या मतदाता जिसके पास उतनी सूक्ष्म बुद्धि या चिंतन का समय नहीं है वो तो अपने प्रिय नेता की बात को पत्थर की लकीर और स्थापित सत्य मानता है।
उत्तर प्रदेश में दो चरणों का मतदान हो चुका है और पांच चरणों का मतदान अभी शेष है। ऐसे में मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने और उन्हें अपने पाले में लाने के लिए नेताओं की जुबान तीखी होती जाएगी और विरोधियों पर हमलावर होने की प्रवृत्ति में भी बढ़ोतरी होगी। विवादास्पद बातें कहकर ही नेता और राजनीतिक दल अपनी गलतियों को छुपाते एवं ढकते हैं और विरोधियों को नंगा करते हैं ।जो कुछ भी वो बोलते हैं उसकी आड़ में कोई मकसद, मतलब या फिर संदेश छुपा होता है। यह अलग बात है कि कोई कितना समझ पाता है, लेकिन नेता हर बार अपनी चाल में कामयाब हो जाते हैं। 

No comments:

Post a Comment