Thursday, November 26, 2009

कैसे मिलेगा जल

कैसे मिलेगा जल

63वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन को प्रधानमंत्री ने पूरी तरह देश  की समस्याओं के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रखा। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण व उससे जुड़े अन्य मुद्दों पर अपनी चिंता जताई और देशवासियों से जल बचाने का आहवान किया। देश में जल स्त्रोतों के प्रदूषण और पीने के पानी की कमी पर प्रधानमंत्री की चिंता जायज भी है। सरकारी आंकड़ों की माने तो देष में ‘जल प्रदूषण संकट’ से जूझ रहा हैं। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की आधी आबादी के पास पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है। नदियां प्रदूषण का शिकार हैं, भूमिगत जल के मीठे स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं, जल स्तर तेजी से गिर रहा है। मौजूदा हालातों में यह समझ पाना मुशकिल है कि सरकार कैसे देशवासियो  को पीने व अन्य कार्यो के लिए जल उपलब्ध करवा पाएगी।

पृथ्वी का दो-तिहाई से भी अधिक भाग पानी से युक्त है जहां हिम पर्वत, सागर तथा महासागरों में अथाह जलराशी विद्यमान है लेकिन इस जलराशी का मात्र 2 प्रतिशत  अंश ही जीवनदायी है। षेष पानी खारा अथवा अन्य कारणों से उपयोगी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘‘ यदि विशव  के कुल जल को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें शुद्ध एवं पेयजल मात्र आधा चम्मच के बराबर है तथा धरती की ऊपरी सतह पर महज बूंद भर पानी है, शेष  भूमिगत है।‘‘ केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत में विभिन्न क्षेत्रों की जल आवश्कता 750 अरब घन मीटर है जो सन 2025 तक 1050 अरब घन मीटर हो जाएगी जबकि हमारे पास 500 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध करवाने की क्षमता भी नहीं है। परिणामस्वरूप सिंचाई, घरेलू उपयोग तथा अन्य कार्यो के लिए निरन्तर पानी की किल्लत बनी रहती है। प्रति वर्ष की प्रचंड गर्मी से तपते भारतीय भू-भाग मे अपैल से जुलाई माह तक पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है। भारत में पानी का तीन चैथाई मानसून पर ही निर्भर है। वस्तुतः पानी की समस्या इसकी कमी, दुरूपयोग तथा कुप्रबंधन से जुड़ी हुई है। भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या, सिंचाई क्षेत्र के विस्तार के साथ-साथ आम व्यक्ति एवं प्रषासनिक लापरवाहियों के कारण पानी की अनावश्वक तथा कृत्रिम किल्लत भी उत्पन्न हो जाती है। सन 1947 को भारत की जनसंख्या महज 36 करोड़ थी जो आज सवा अरब का आंकड़ा छू रही है। जनसंख्या में स्वतंत्रता के पश्चात  ढाई गुना से अधिक वृद्धि हुई है जबकि जलस्रोत यथावत है बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो जल स्रोत घट गए है।

औद्योगिक इकाइयां वायु में तो धुएं का जहर घोलती ही हैं, उनके अपशिष्ट  जब पानी में बहा दिये जाते हैं तो पानी का भी शीलभंग  हो जाता है। नगरपालिका व नगरपरिषद क्षेत्रों का समूचा कूड़ा-करकट, गंदा पानी और कीचड़ भी अंततः नदियों के पानी में ही मिलता है। नदियां और अन्य जल प्रवाह धीरे-धीरे प्रदूषित होते चले जा रहे हैं। शहरों में औद्योगिक इकाइयों का कचरा, रासायनिक द्रव्य, पेस्टीसाइड्स, दूषित जल आदि भूमिगत नालियों के जरिए समीप की नदियो में बहा दिए जाते है। नदी के उस पानी को ज्यादातर शहरों मे शुद्ध करके पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है। किन्तु चाहे इस पानी को कितना भी शुद्ध कर  पीने के उपयोग मे लाया जाए, फिर भी कुछ प्रतिशत तो वह प्रदूषित रह ही जाता है। ऐसे जल का उपयोग करने से अनेक रोग व बीमारियां होने लगती हैं। यहीं पानी खेती के काम में लिया जाता है तो फसलों को नुकसान होता है। नदियों में रहने वाले जीव-जन्तुओं के लिए भी यह दूषित पानी नुकसानदेह है। एक अनुमान के मुताबिक विभिन्न प्रकार की औद्योगिक इकाइयों द्वारा दामोदर घाटी में प्रतिदिन लगभग 50 बिलयन प्रदूषित कचरा प्रवाहित किया जाता है। जो घाटी को बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। धार्मिक अंधविश्वास भी नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक हैं।

सरकार ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना 1995 में प्रारम्भ की, जिसमें केवल गंगा नदी ही नहीं बल्कि यमुना, दामोदर और गोमती प्रदूषण विमुक्त करने की व्यवस्था रखी गई है। लेकिन सरकारी बेरूखी, लाल फीताशाही, भ्रष्टाचार, व जनता की अज्ञानता की वजह से योजना प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाई। गंगा एक्षन प्लान और यमुना एक्शन  प्लान पर करोड़ों खर्च करने के बाद भी स्थिति यथावत है प्रतिदिन करोड़ों टन गंदगी, कूड़ा-करकट बिना किसी उपचार के इन नदियों में धकेल दिया जाता है। देष की लगभग सभी जीवनदायिनी नदियां गंदे, काले व जहरीले नालों में तब्दील हो रही है। इन नदियों के किनारे बसे गांव, नगर व महानगरों में जल के अन्य स्त्रोत भी दूषित हो रहे हैं। देश में अनियमित मानसून के कारण भूमिगत जल स्त्रोत सूख रहे हैं या फिर जल स्तर काफी नीचे होता जा रहा है। राजधानी दिल्ली हो या फिर मध्यप्रदेश का कोई मोहल्ला कमोबेश पूरे देश में एक से हालात हैं।

देष के उत्तर पश्चमी राज्यों में लगातार भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। यह बात ‘नेचर’ पत्रिका ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर कही है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने उपग्रहों के जरिए किए गए अध्ययन में बताया है कि देष के उत्तर पश्चमी राज्यों में भूजल के स्तर में 4 सेमी0 प्रतिवर्ष की कमी आ रही है। इन क्षेत्रों में पंजाब और हरियाणा आते हैं जहां कभी हरित क्रांति हुई थी। वैसे हरित क्रांति के दौरान दलहनों को नजरअंदाज करना भी मौजूदा भूजल समस्या का बड़ी वजह है। यही हाल रहा तो भविष्य में पीने के पानी और खाद्यान्न का संकट गहरा जाएगा। केंद्र सरकार द्वारा 1970 और 1992 में लाए गए माडल ग्राउंड वाटर बिल का तब तक कोई मतलब नहीं निकलता जब तक उस पर अमल नहीं किया जाए।

भारत के शहरों का आकार बढ़ता जा रहा है। आज विश्व में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चैथा स्थान है। अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग 35 करोड़ लोगों ने रहना शुरू कर दिया है। कहां से आएंगे इनके लिए आवास और परिवहन के इतने साधन ? कहां से ला पाएंगे हम प्रचुर मात्रा में पेयजल ? देश में छोटे-मोटे शहरों की संख्या 4,700 है। इनमें से केवल 2,500 कस्बों  एवं शहरों में पेयजल की सही व्यवस्था है। सन् 1947 में भारत में प्रति व्यक्ति सालाना पानी की उपलब्धता 6,000 घनमीटर थी। 1947 में घटकर यह 2,300 घनमीटर हो गई। अगर यही गति रही तो 2017 तक यह मात्रा प्रति व्यक्ति घटकर मात्र 1600 घनमीटर ही रह जाएगी। भू-गर्भ से लगातार पानी निकाले जाने के कारण देष के कई हिस्सों में परिस्थिकीय असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। बढ़ते प्रदूषण ने नगरवासियो से शुद्ध वायु व जल छीनकर उन्हें नई-नई असाध्य बीमारियों की ओर धकेल दिया है।

परीक्षणों से पता चला है कि पिछले एक दषक में हर साल एक से पांच फुट तक जलस्तर नीचे की ओर खिसकता जा रहा है। भूमि में निरन्तर गिर रहे जल स्तर में वृद्वि के लिए केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड एक व्यापक योजना तैयार करने पर विचार कर रहा है। भूमि में लगातार गिर रहे जलस्तर का मुख्य कारण भूमि के अंदर के जल का अत्यधिक दोहन हे। शहरों में बन रही नयी नयी कालोनियों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में फैल रहे पम्पसेटों एवं नलकूपों के कारण भूमि के जल का दोहन बढ़ता जा रहा है जिससे जलस्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। इससे ष्षहरी क्षेत्र तो प्रभावित होगा ही कृषि के लिए तो भयावह संकट उत्पन्न हो जायेगा। राष्ट्रीय भूमि जल अधिवेशन 2007 में जाने माने कृषि वैज्ञानिक और सांसद एम0एस0 स्वामीनाथन ने कहा कि भूजल हमारी 80 से 90 फीसदी पेयजल की जरूरत पूरी करता है। सिंचाई में उसका योगदान लगभग 70 फीसदी का है। तरह-तरह के प्रदूषण से भूजल की गुणवत्ता खराब हो रही है, यह भी हमारे लिए चिंता का विषय है। भूजल स्तर नीचे जा रहा है, क्योंकि उसका लगातार दोहन हो रहा है।

गौरतलब है कि देष के लगभग हर राज्य में शुद्ध पेयजल का संकट है। पहाड़ी और रेगिस्तानी इलाकों में तो जीवन और पानी के बीच संघर्ष सा चल रहा है। यहां लोगों को पानी के लिए मीलों भटकना पड़ता है। गर्मियों में हालात और भी खराब हो जाते हैं। देष के बहुत से राज्यों में पानी के बंटवारे को लेकर विवाद और तनातनी है। पानी के मामले में उत्तर प्रदेष की स्थिति सबसे बुरी है। विडम्बना यह है कि समस्या के समाधान के नाम पर हजारों, करोड़ों रूप्ये खर्च करने के बावजूद हालात जस के तस हैं, बल्कि और भी खराब हो गए हैं। ऐसा लगता है कि पेयजल संकट से छुटकारे के लिए बनी तमाम योजनाएं कागज पर ही षुरू और मुकम्मल होती रही है। वर्ना यह कैसे मुमकिन है कि हर योजना के बाद संकटग्रस्त बस्तियों की तादाद घटने के बजाए बढ़ती ही गयी है।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जल प्रदूषण से निपटने व जल स्त्रोतों को बचाने के लिए उल्लेखनीय कार्य किए गए हैं परन्तु अभी भी इनमें गत्यात्मकता लाना वांछित है। इतना होने के बावजूद भी जल प्रदूषण की समस्या दिन प्रतिदिन गम्भीर, जटिल और विशव्व्यापी होती जा रही है। यद्यपि विश्व के सभी देश जल प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए प्रयासरत हैं, फिर भी औद्योगिक विकास, नागरीकरण, वनों का विनाश और जनसंख्या में अतिशय वृद्वि होने के कारण यह समस्या निरन्तर गंभीर होती जा रही है। और अगर समय रहते संभला नहीं गया तो इस धरती पर तीसरा विशव्  युद्व जल व जल के अधिकार के लिए ही होगा।

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