Sunday, November 29, 2009

नवाबों का आशियाना बाबुओं के शहर में तब्दील


मीठी जुबान, खान-पान, शाही इमारतों, बाग-बगीचों वाली ‘लक्ष्मणपुरी‘ कभी भी प्रदेश  व देश  के औद्योगिक मानचित्र पर उभरकर सामने नहीं आ पाई। मंत्रियों, संतरियों वाला यह शहर कभी भी औद्योगिक नगरी नहीं रहा। प्रदेश की औद्योगिक नगरी कानपुर, लखनऊ से करीब 80 किमी0 की दूरी पर है पर उसका कोई भी प्रभाव इस नवाबी शहर पर नहीं पड़ पाया।

उद्योग धन्धों के नाम पर लखनऊ चिकन उद्योग के लिए देश भर में जाना जाता है लेकिन इस उद्योग ने भी अपेक्षित विकास इस शहर में नहीं किया है। मुगल शासक व नवाब इस कलाकारी को अपने साथ लाए थे उनके राज्य काल में यह धन्धा काफी फला फूला लेकिन समय ने करवट ली और चिकन वस्त्र आम आदमी की पहुँच  से लगातार दूर होते चले गये आज चिकन के कुर्ते पजामें, सलावार सूट फैशन का प्रतीक बनकर रह गए है। पिछले 40 साल से चिकन का व्यापार करने वाले गोपाल लाम्बा बताते हैं कि लखनऊ सरकारी अफसरों का ष्षहर है, टूरिस्ट भी बहुत कम ही आते हैं दिन व दिन कारीगरी मंहगी होती चली जा रही है कस्टमर माल तो उम्दा चाहता है पर रेट सुनते ही वह हाथ खींचने लगता है।

पुराने दिनों को याद करते हुए एक चिकन व्यापारी ने बताया कि अब न वो लोग रहे हैं न ही वैसे कारीगर वर्ना एक से एक नमूना तैयार होता था और कद्रदान मुंह मांगे दामों पर खरीद कर ले जाते थे। सरकारी नीति ही ऐसी है कि हर चीज के दाम पिछले पचास सालों में बढ़ गए हैं, रही-सही कसर नए के कपड़ों ने पूरी कर दी है, दुखी तो होते हैं यह सब बताते हुए कि सब कुछ बदल गया है।

जब देश पहले गदर (1897 ई0) की तैयारी में जुटा था उसी समय (दो वर्ष पूर्व 1855 ई0) में नवाबों की नगरी लखनऊ में पहली बड़ी कम्पनी की स्थापना भी होने जा रही थी। बड़े इमामबाड़े से डेढ़ मील दूर गोमती नदी की पूर्व दिशा  में मुगल शासन काल के दौरान आज से 400 वर्ष एक व्यापारी शाह जी द्वारा बनवाई गई भव्य ईमारत में जो कि उस समय शाह जी का बाग में एक अंग्रेज उद्योगपति एडवर्ड डायर द्वारा शराब  फैक्टरी स्थापित की गई थी नाम था ‘डायर एण्ड कम्पनी‘। प्रथम विशव् युद्ध के उपरांत इस कम्पनी का नाम बदलकर (1915-19) डायर मीकिन एण्ड कम्पनी किया गया। एच. जे. मीकिन भी एक उद्योगपति थे जिनके शराब के कारखाने देश के कई हिस्सों में चल रहे थे। 1949 में एक भारतीय नरेन्द्र नाथ मोहन को इस कंपनी का प्रबंध निदेशक बनाया गया था तब से इस कंपनी का कार्य क्षेत्र लखनऊ शहर ही था।

पद्म श्री नरेन्द्र नाथ मोहन व उनके सुपुत्र पद्मभूषण वी0 आर0 मोहन एक सफल उद्योगपति के साथ-साथ समाज व राष्ट्रसेवा में भी काफी रूचि लेते थे स्व. वेदरत्न मोहन 1961-64 तक लखनऊ शहर के माहपौर भी रह चुके है।, ग्लोब पार्क, लक्ष्मण पार्क व मोहन मार्केट उन्हीं की देन है लखनऊवासियों को।

दस लाख स्क्वायर फीट में बनी 144 वर्ष पुरानी कम्पनी की शाखाएँ  आज देश भर में है। वर्तमान में कम्पनी मोहन मीकिंन लिमिटेड के नाम से डालीगंज क्षेत्र में उद्योग जगत को अपना योगदान दे रही है। इस समय फैक्टरी में लगभग 800 कर्मचारी कार्यरत हैं जो दिन रात मेहनत करके कंपनी को अग्रणी बनाए हुए। बिग्रेडियर डा. कपिल मोहन कंपनी के प्रबंध निदेशक हैं उनकी सूझ बूझ व लगन से इस फैक्टरी का उत्पादन कुछ हजार पेटी से शुरू  होकर एक से सवा लाख पेटी प्रतिमाह तक पहुंच चुका है। यह फैक्टरी आज 21वीं शताब्दी में प्रवेश करने जा रही है लेकिन इसकी परम्परा व स्वाद ‘बूढ़ा‘ नहीं हुआ है।

1855 से 1947 तक के लम्बे सफर में लखनऊ शहर में कोई अन्य बड़ा उद्योग स्थापित नहीं हो पाया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत औद्योगिक विकास ने कुछ गति पकड़ी थी जो कि न के बराबर ही मानी जाएगी। इस दौरान एवरेडी फ्लश लाइट प्लान्ट, यू0पी0आई0एल0, स्कूटर इंडिया लि0, एच0ए0एल0 अपट्रान कं0 लि0 व टेल्को प्रमुख हैं।

आजादी के पूरे दस वर्ष वाद 1957 में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल वी0वी0 गिरी ने ऐषबाग मिल एरिया में यूनियन कार्बाइड कं. की एक यूनिट एवरेडी फ्लश  लाइट प्लान्ट का उद्घाटन किया था। वर्तमान में यह फैक्ट्री सुचारू रूप से चल रही है। लखनऊ में ही पले बढ़े 62 वर्षीय सूरज प्रसाद यादव बताते हैं इस कम्पनी की नींव हम लोगों ने रखी थी। 1957 में लेकिन प्रोडेक्षन षुरू हुआ 1958 में। उस समय सारे वर्कर ठेकेदार के होते थे। कुल मिलाकर हम 250 आदमी ठेकेदारी पर काम करते थे सारा काम हाथ से होता था दिन भर में 2500-3000 टार्च ही हम लोग  बना पाते थे। मजदूरी भी काफी कम मिलती थी 2.37 प्रतिदिन और अगर ठेकेदार किसी के काम से खुष हो गया तो वह तीन रूपये तक तक पा जाता था पर ऐसे खुषनसीब कम ही थे। वह बताते हैं कि अब और तब में जमीन आसमान का अंतर आ गया हैं तब ‘गोरे साहबों‘ का राज था। आजादी मिले दस साल हो चले थे पर गोरों की दहषत तब भी कायम थी। हमारे पहले मैनेजर थे अमेरिकन मिस्टर ई0एस0 किडवाल। लम्बे-चौड़ा, खूबसूरत बड़े ही अनुशासन प्रिय व सख्त आदमी थे घूम-घूमकर कम्पनी के चक्कर काटा करते थे। असिस्टेन्ट मैनेजर थे जे. डब्ल्यू. हेन्गिस्टन और इंजीनियर थे फ्रांसीसी मि. एच. आर. वेल्स बहुत ही काबिल आदमी थे। 1965 में सभी अंग्रेज अधिकारी व कर्मचारी देश छोड़कर चले गए थे उसके बाद को ई भी गोरा अफसर बनकर नहीं आया। वर्तमान में यह फैक्टरी खेतान ग्रुप के पास है। दीपक खेतान इसके प्रबंधन निदेशक है। लगभग 600 कर्मचारियों के बलबूते पर आज कंपनी प्रतिदिन लगभग 10,000 टार्च बनाती है।

यह शहर रंग-बिरंगी पतंगो, मुर्गों की लड़ाई व अपनी बोली व पकवानों के लिए मशहूर रहा हैं कभी भी औद्योगिक नगरी के रूप में इस नगरी का विकास नहीं हो पाया। तालकटोरा मिल एरिया में छोटे-छोटे कई कारखाने थे पर कोई बड़ी फैक्टरी इस एरिया में नहीं थी। गणेश फ्लोर मिल, विक्रम काटन मिल, गवर्नमेंट पे्रस, गरगा फार्मा, प्राक्सन एण्ड कंपनी व ‘डू बीड़ी कम्पनी’ आदि यहां थी। इन दिनों एवरेडी कम्पनी में कैन्टीन चला रहे हैं सूरज प्रसाद यादव बड़े गर्व से यह सब बताते है कि किस प्रकार उनके शहर ने करवटें बदली है।

एच0ए0एल0 (हिन्दुस्तान ऐरोनाटिक्स लि0) की स्थापना 1940 में एक निजी संस्था के रूप में हुई थी। संस्थापक थे उद्योगपति बालचन्द धीरूचन्द। द्वितीय विशव  युद्ध (1939-45) के दौरान यह कम्पनी बन्द कर दी गई थी आजादी के उपरांत सरकार ने इसका महत्व समझाते हुए इसे अधिग्रहीत कर लिया। इस  ‘एसेसरीज यूनिट‘ की स्थापना 1971 में लखनऊ शहर में हुई। एच0ए0एल0 में लगभग 4000 कर्मचारी कार्यरत है। यहां हेलीकाप्टरों व अन्य विमानों के पुर्जे बनते है।

8 अप्रैल 1973 को पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने लखनऊ शहर को ‘स्कूटर इंडिया लि0‘ के नाम से तोहफा दिया था।   शुरूआती दौर में यह कम्पनी ‘विजय सुपर‘ नामक दुपहिया वाहन का निर्माण करती थी, 2000 कर्मचारियों वाली यह संस्था सरोजनी नगर क्षेत्र में स्थित है तथा वर्तमान में ‘विक्रम टेम्पो‘ का निर्माण कर रही हैं कंपनी ने जापान की प्रसिद्ध कम्पनी होंडा के साथ बनाई है। इसी दौरान स्थापित हुई यू.पी.आई.एल. सरकारी नीतियों के चलते बन्द होने के कगार पर है।

आज से 17 वर्ष पूर्व सन् 1982 में चिनहट इंडस्ट्रियल एरिया में एक फैक्ट्री लगाने के प्रक्रिया शुरू हुई थी जिसके लिए 600 एकड़ भूमि खरीदी गई थी। कंपनी का नाम था टेल्को (टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कं. लि.) पूरे दस वर्षों बाद 1992 में कंपनी में उत्पादन शुरू हुआ। टाटा ग्रुप का इसे सबसे बड़ा प्लान्ट बनाने की योजना थी। प्रारम्भिक योजना में टाटा सूमो, सफारी, ट्रक, बस निर्माण की योजना थी लेकिन वर्तमान में केवल टाटा सूमो की ही एसेम्बली की जाती हैं कंपनी के अति आधुनिक प्लान्ट में 100 ट्रक, बस व 25 सूमो बनाने की क्षमता हैं 1500 कर्मचारियों वाली ये फैक्टरी ने हाल ही में ‘गियर पार्ट्स‘ व अन्य पुर्जे बनाने की काम भी शुरू कर दिया है।

सही मायनों में लखनऊ शहर की संरचना व वातावरण ही ऐसा है कि यहां कोई भी उद्योग धंधा पनप नहीं पाया। नवाबों का यह षहर बाबुओं का शहर बनकर रह गया है। डायर मीकिन से टेल्को (1855-1992) तक का लम्बा औ़द्योगिक सफर पूरा कर चुका यह शहर न तो कभी औद्योगिक नगरी रहा और न ही भविष्य में ऐसी संभावना नजर आती है।

लखनऊ शहर में औद्योगिक विकास में दो महापुरूषों पदमश्री नरेन्द्र नाथ मोहन व मुंशी नवल किशोर जी  का जिक्र करना लाजिमी है। मुंशी नवल किशोर ने विशव पटल पर लखनऊ को एक नयी व अलग पहचान दिलाई वहीं आजादी के बाद से मोहन मीकिन ब्रुअरी की वजह से ही लखनऊ को दुनिया भर में जाना जाता था।



पद्म श्री नरेन्द्र नाथ मोहन
प्यार से सभी उन्हें ‘बाबूजी‘ कहते थे, पूरा नाम था नरेन्द्र नाथ मोहन। सन् 1901 को रावलपिंडी (वर्तमान पश्चमी पाकिस्तान) में पैदा हुए नरेन्द्र नाथ मोहन आधुनिक भारत की अग्रणी शराब कम्पनी ‘मोहन मीकिंन लि.‘ के निर्माता एवं स्थापक दोनों ही थे। अपने परिश्रम, सूझ-बूझ, कुषल प्रबंधन व व्यावसायिक कौशल के दम पर ही मध्यमवर्गीय परिवार का यह युवक एक समय में भारत के चोटी के उद्योगपतियों में अपना स्थान बना पाया था। सर्वप्रथम वह ‘डायर मीकिंन ब्रुअरीज‘ के साथ फाइनेशयल एडवाइजर के रूप से जुड़े थे उनकी योग्यता ने ही सन् 1949 में उन्हें कम्पनी का प्रथम भारतीय प्रबंध निदेशक (एम.डी.) बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। सोलन (हि.प्र.) से आरम्भ हुई यात्रा ने लखनऊ शहर में एक लम्बा ठहराव लिया इसके दौरान कंपनी ने देश-विदेश तक अपनी पहचान तो बनाई ही वहीं नवाबों की इस नगरी को ‘शराब की नगरी‘ के रूप में देश व विदेश को व्यापारिक व औद्योगिक मानचित्र में स्थान भी दिलवाया। उनकी समाजसेवा राष्ट्र प्रेम के चलते ही भारत सरकार ने 1968 में उन्हें ‘पद्मश्री‘ से सम्मानित किया था। 15 जुलाई 1969 को काल के क्रूर हाथों ने हमारे प्यारे बाबूजी को हमसे छीन लिया लेकिन उनके द्वारा स्थापित आदर्श आज भी कायम है और उनकी प्यारी कम्पनी प्रगति पथ पर अग्रसर है।

मुंशी नवल किशोर

इनकी जिन्दगी का सफर कामयाबियों की दास्तान हैं। शिक्षा, साहित्य से लेकर उद्योग के क्षेत्र में उन्होंने सफलता पायी और जो बात सबसे उल्लेखनीय थी वह यह कि उन्होंने हमेषा मानव मूल्यों का सम्मान किया। मथुरा में तीन जनवरी को एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्में मुंशी नवल किषोर 1858 में 22 साल की उम्र में लखनऊ आ गए। यहाँ आते ही उन्होंने नवल किशोर प्रेस स्थापित किया। देखते ही देखते इस प्रेस की ख्याति इतनी बढ़ी कि इसे पेरिस के एलपाइन प्रेस के बाद दूसरा दर्जा दिया जाने लगा। सभी मजहब की पुस्तकों और एक से बढ़ कर एक साहित्यकारों की कृतियों को इस प्रेस ने छापा। कुल प्रकाशन का 65 प्रतिशत उर्दू, अरबी और फारसी तथा शेष   संस्कृत, हिन्दी, बंगाली, गुरूमुखी, मराठी, पशतो  और अंग्रेजी में है। पूरी दुनिया के बड़े-बड़े पुस्तकालयों में उनके यहां की किताबें मिल जाती है। जापान में मुंशी नवल किशोर के नाम का पुस्तकालय है तो जर्मनी के हाइडिलबर्ग और अमेरिका के हावर्ड विशविद्यालय में उनकी प्रकाशित सामग्री के विशेष कक्ष हैं। उद्योग के क्षेत्र में भी उनका अपना योगदान है। 1871 में उन्होंने लखनऊ में अपर इण्डिया कूपन पेपर मिल की स्थापना की थी जो उत्तर भारत में कागज बनाने का पहला कारखाना था। शाह  ईरान ने 1888 में कलकत्ता में पत्रकारों से कहा ‘हिन्दुस्तान आने के मेरे दो मकसद हैं एक वायसराय से मिलना और दूसरा मुंशी नवल किशोर से’। कुछ ऐसे ही खयालात लुधियाना दरबार में अफगानिस्तान के शाह अब्दुल रहमान ने 1885 में जाहिर किए थे। बहुआयामी व्यक्तित्व और बहुआयामी सफलताओं को अपने में समेटे मुंशी नवल किशोर को काल के क्रूर हाथों ने 19 फरवरी 1895 को सदा के लिए समेट लिया। (पदम् श्री रानी लीला राम कुमार भार्गव द्वारा लिखित)

’’’मेरा ये लेख दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में 5 दिसंबरए 1999 को प्रकाशित हुआ था।

1 comment:

  1. वास्‍तव में शानदार ब्‍लाग बनाया है आशीष। बधाई।

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