Tuesday, November 24, 2009

परियोजनाओं ने रोकी गंगा की गति

परियोजनाओं ने रोकी गंगा की गति

आज से लगभग 100 साल पहले अंग्रेजो ने हरिद्वार में बैराज बनाकर गंगा को बांधना चाहा था। लेकिन पंडित मदनमोहन मानवीय ने इस तर्क के साथ वहां डेरा जमा दिया कि बंधे हुए जल में हिन्दुओं के श्राद्ध और तर्पण नहीं हो सकते। भारी जनविरोध के कारण अंग्रेजो को वह योजना रद्द करनी पड़ी थी। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु के समय अपने शिष्य  जस्टिस कैलाषनाथ काटजू से कहा था, ‘मुझे आशंका है कि मेरे बाद गंगा को फिर से बांधा जाएगा।‘ अंग्रेज तो वह साहस नही कर पाए, लेकिन मालवीय जी की आशंका  स्वतंत्र भारत में सही साबित हुई। जब देश  और प्रदेशो  में हमारी ही सरकारें थीं। गंगा के प्रति हिंदुओं की आस्था एक विषय है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि गंगा पर सिर्फ हिंदुओं का ही एकाधिकार हो। वह हम सभी भारतवंषियों के लिए प्रेरक भी है और प्रेरणा भी। पुण्यसलिला गंगा की सतत प्रवाही पीयूषधारा भारतीय संस्कृति का प्रत्यक्ष आधार एवं जीवन्त प्रेरणा का अजस्त्र स्त्रोत रही हैं। लेकिन चंद स्वार्थो की पूर्ति के लिए आज गंगा का अमर प्रवाह रोका जा रहा है उसे सुरंगों में कैद किया जा रहा है। वह भी विकास के नाम पर।

ऊर्जा उत्पादन के लिए गंगा को गंगोत्री से उत्तरकाषी के बीच कई जगह सुरंगें से गुजारे जाने के विरोध में पर्यावरणविद जेडी अग्रवाल जोर-षोर से आवाजा उठा चुके हैं। टिहरी में भागीरथी पर बने एषिया के सबसे ऊंचे बांध के अलावा अब गंगोत्री से उत्तरकाषी तक गंगा और उसकी सहायक नदियों पर सात बांध बनाए जा रहे हैं। इसके अलावा देवप्रयाग से ऊपर 20 और बांध बनाए जा रहे हैं। योजना के मुताबिक इन परियोजनाओं में गंगा को 15 किलोमीटर से अधिक लंबी सुरंगों के आप्राकृतिक मार्ग से गुजरना होगा। उत्तराखण्ड सरकार ने कमरोली, (140 मेगावाट, जाड़गंगा, उत्तकाषी) गोहना ताल (60 मेगावाट, विरहीगंगा, चमोली) जाड़गंगा (जाड़गंगा, उत्तकाषी), मलेरी झेलम, (55 मेगावाट, धौलीगंगा, चमोली) झेलम तमक (60 मेगावाट, धौलीगंगा, चमोली) बोकांग बालिंग (330 मेगावाट, धौलीगंगा पिथौरागढ़) परियोजनाओं को विकास के लिए टिहरी जल विकास निगम को सौंपा है। उत्तराखंड की 14 नदी घाटियों में 230 सुरंग बांधों से नदी काा अस्तित्व ही संकट में है।

उत्तरकाशी  में गंगा को उसके उद्गम से ही सुरंगो में डालने की परियोजनाएं प्रस्तावित तथा निर्माणाधीन है। गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर ऊपरी क्षेत्र में चलने वाली पनबिजली परियोजनाओं से स्थानीय जल स्त्रोत सूख गए हैं। इससे गंगा के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है। गंगा को रोककर सुरंगों में कैद किया जा रहा है। 90 मेगावाट वाली पाला मनेरी परियोजना के पहले चरण के लिए गंगा को मनेरी में 14 किलोमीटर लम्बी सुरंग में कैद कर दिया है। जबकि मनेरी परियोजना के कारण वह पहले ही पंद्रह किलोमीटर तक अपने स्वाभाविक पथ को छोड़कर सुरंग में बहने को अभिषप्त है। इसका द्वितीय चरण भी पूरा हो चुका है। भैरों घाटी से ऐसी सुरंग का सिलसिला षुरू होता है। 600 मेगावाट की लोहारी नागपाला व 480 मेगावाट की पाला मनेरी जल विद्युत परियोजना निर्माणधीन हैं। भैरोंघाट प्रथम व द्वितीय पर काम षुरू होने की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। ऐसा लगता है कि इस पर्वतीय राज्य की पनबिजली परियोजनाओं से गंगा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। पर्यावरण प्रेमियों की मांग है कि सरकार 90 मेगावाट वाली मनेरी भाली परियोजना के गेट खोल दे और लोहारी नागपाला व पालामनेरी परियोजनाओं का निर्माण रद्द करें। भैरोंघाटी और पाला मनेरी जलविद्युत योजनाओं को रोकने का आष्वासन सराकर ने प्रसिद्व पर्यावरणविद्व प्रो0 गुरूदास अग्रवाल को दिया था लेकिन सरकार ने वादाखिलाफी की और काम बदस्तूर जारी है।

बांध बनाने से जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। यहीं नहीं बांधों के कारण कई प्रकार की मछलियों का अस्तित्व भी संकटमय जो जता है जो अपने प्राकृत आवास से हजारों मील दूर जाकर प्रजनन करती हैं। उत्तराखंड में पाई जाने वाली महाषीर मछली भी इस समय संकटापन्न है। जिला मत्स्य अधिकारी ने बताया कि गंगा पर बांध बनने से रूके पानी से महषीर जैसी मछली की ब्रिडिंग व फीडिंग प्रभावित हो सकती है। उन्होंने बताया कि रूके पानी में प्रायः आक्सीजन की मात्रा कम होकर पानी का तापमान बढ़ जाता है। आस्ट्रिया के प्रसिद्ध जल विज्ञानी विक्टर षाबर्गर ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिखाया था कि पहाड़ों से टकराकर सर्पाकार गति से घूम-घूमकर बहने वाली नदी अपने को षुद्ध करती चलती है, लेकिन बांधे जाने से उसकी यह षक्ति समाप्त हो जाती है। गंगा से कई तरह की अप्राकृतिक छेड़छाड़ करके हमने असल में उसका अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। प्रसिद्व ग्लशिएर विज्ञानी प्रो0 एम हसनैन करीब दस साल पहले ही कह चुके हैं कि तापनमान बढ़ने तथा पर्यटकों की अपार भीड़ के कारण गोमुख ग्लेषियर सिमट रहा है और यदि यही गति रही तो अगले 25 वर्ष में गंगा का मूल स्वरूप ही मिट जाएगा।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है कि गंगा जल मे ऐसे प्राकृतिक तत्व मिश्रित होते हैं, जो उसे हमेषा षुद्ध बनाए रखते हैं। आप क्या सोचते हैं कि बांधो तथा सुरंगो में बांधे जाने के बाद भी गंगा जल का यह गुण विद्यमान रह पाएगा? नदियों के साथ हमारा यह जो दुव्र्यवहार है, असल में पष्चिमी सभ्यता की देन है। हमने बिजली पैदा करने के लिए पाष्चात्य ढांचे की नकल की। निस्संदेह, बिजली विज्ञान की एक श्रेष्ठ उपलब्धि है। लेकिन उसका उत्पादन निरापद भी होना चाहिए। नदियों को बांधने और तोड़ने-मरोड़ने के अतिरेक में पूर्व सोवियत संघ अपना एक समुद्र अराला सागर (अरब नहीं) ही सुखा चुका है। चीन ने भी अपनी पीली नदी का अब यह हश्र कर दिया है कि वह साल में तीन सौ दिन तक समुद्र का मुंह नहीं देख पाती। नदी की स्वाभाविक गति बांधों व सुरंगो में नहीं, बल्कि समुद्र में विसर्जित होने की है, ताकि वह बादलों के रूप में पुनर्जन्म लेकर फिर से धरती को ष्यामल और सजल बना सके। नदी से नहरें निकलना लोक मंगल का एक उपक्रम है, लेकिन समूची नदी को नहर में बदल देना अनिष्ट का द्योतक हैं। आखिर गंगा को मीलों तक सुरंग में डालकर हम उसे नहर में ही तो बदल रहे हैं।

देष के दूसरे क्षेत्रों में जो भी प्रमुख पनबिजली परियोजनाओं से सम्बन्धित जलाषयों का जलस्तर लगातार गिर रहा है। वर्तमान में देष में 4300 बड़े बंाध हैं। केन्द्रीय जलविद्युत् आयोग के अनुसार इस वर्ष गर्मी के मौसम में देष के 76 प्रमुख जलाषयों मे से अधिकांष में जलस्तर पिछले वर्ष की तुलना में कम है। अगले वर्ष इनमें और कमी की सम्भावना है। कम जलस्तर के कारण इन संयंत्रों में कुछ संयंत्र क्षमता से आधी या कहीं-कहीं इससे भी कम बिजली बना रहे है, उदाहरण के लिए, पंजाब में भाखड़ा जलाषय का निर्धारित जलस्तर 513 मीटर है। लेकिन इस समय इसका जलस्तर मात्र 436 मीटर ही है। फलतः जहां भांखड़ा संयंत्र से 2990 मिलियन यूनिट बिजली बननी चाहिए, वहां केवल 21.21 मिलियन यूनिट ही बिजली बन रही है, यही स्थिति देश की सभी जलविद्युत परियोजनाओं की है। ग्लोबल वार्मिंग से उपजी चुनौतियों ने जलविद्युत परियोजनाओं पर प्रष्नचिन्ह लगा दिया है, उत्तराखण्ड में हजारों करोड़ खर्च करके जो जलविद्युत परियोजनाएं लगाई जा रही हैं, वे कितने वर्षों तक बिजली पैदा कर पाएगी, यह किसी को नहीं पता, क्योंकि बहुत शीघ्र ही ऐसी स्थिति आ सकती है, जब इन परियोजनाओं को पानी नहीं मिल पाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक नवीन अध्ययन के अनुसार अगले कुछ दषकों में हिमाचल क्षेत्र के सारे ग्लेषियर पिघल जाएंगे, जिससे सारी नदियां सूख जाएंगी, ऐसी स्थिति में, इन परियोजनाओं पर खर्च किए गए खरबों रूपए डूब जाएंगे, भारत में अधिकांष जलविद्युत परियोजनाएं हिमाचल क्षेत्र की नदियों पर ही बनाई जा रही है।

नदियों को बांधों में कैद करने के सवाल पर लंबे समय से बहस जारी है। दरअसल, विद्युत परियोजनाएं नेताओं, इंजीनियरों तथा अफसरों की एक चारागाह होती है। यह समय चेतने का है। देश के पूरे हिमालय क्षेत्र में अभी चार सौ से अधिक बांध, बैराज तथा सुरंगे प्रस्तावित हैं। विष्व के इस सबसे नए तथा नाजुक पर्वत को खोदना आत्मघाती होगा। उत्तराखण्ड को बांधो से पाटने की बजाय, उसे पेड़ों का कवच पहनाया जाना चाहिए, ताकि गंगा का प्रवाह संतुलित रहे। वहीं सरकार को पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि अन्य विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विडम्बना तो यह है कि बांध के पुजारियों के गले यह वैज्ञानिक तथ्य नहीं उतरता कि भारत के बड़े बांध ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं और पर्यावरण के लिए भीषण खतरा हैं। गंगा मात्र राष्ट्रीय नदी नहीं अपितु हमारी आस्था, निष्ठा एवं श्रद्वा का दिव्य प्रवाह हैं। और भारतीय संस्कृति का प्राण हैं। और इस प्राणधारा को बचाना हम सबका कर्तव्य है।

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