Tuesday, December 01, 2009

दहेज जरूर दीजिए श्रीमान्

प्रोवोक ऐडवरटाइजिंग का बढ़ता चलन समाज में  दहेज की समस्या को उग्र बना रहा है


प्रोवोक’ अर्थात किसी को उकसाना कानून की नजर में अपराध है। ‘प्रोवोक ऐडवरटाइजिंग’ का जो नया ट्रेंड हमारे देश में चल रहा है वो पूरे समाज पर विषम व नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। एक तरफ तो सरकार ने दहेज विरोधी अधिनियम बनाए हैं वहीं दूसरी ओर इस तरह के विज्ञापन बिना किसी रोक-टोक के प्रसारित व प्रकाशित हो रहे हैं। देखा जाए तो ये उत्पादक खुले आम सीना खोलकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं व पूरी सोसायटी में एक मैसेज जा रहा है कि फलां गाड़ी के बिना लड़की विदा कैसे होगी। फलां कंपनी की घड़ी या कपड़ा पहने बिना भला कोई दूल्हा दुल्हन कैसे बन पाएगा। फलां टीवी, फ्रीज या फलां उत्पाद देकर ही बेटी के हाथ पीले करो वरना  शादी ब्याह अधूरा है और जीवन रंगहीन व रसहीन है।


उपभोक्तावादी संस्कृति व प्रदर्शन इस समस्या को बढ़ाया है। आज साधारण से साधारण शादी  पर दो से चार लाख का खर्च आता है। समाज की देखा-देखी व झूठी शान रखने के लिए माता-पिता व अभिभावक कर्ज लेकर अपनी बेटी के हाथ पीले करते हैं। लंबी-चौड़ी लिस्टे बजट बढ़ाती है। वहीं ससुराल पक्ष का मुंह भी सुरसा के समान बढ़ता ही चला जाता है। परतंत्रता काल में जहां इस बुराई की तेजी से वृद्वि हुई, वहीं स्वतंत्रता पश्चात्  भी इस पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। इतना ही नहीं यह बढ़ते भौतिकतावादी दृष्टिकोण के कारण और बढ़ती जा रही है। इसका सबसे अधिक कुप्रभाव शिक्षित मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। यह वर्ग उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हैं। इसकी महत्वाकांक्षाए तेजी से बढ़ रही है। जीवन के भौतिक सुख सुविधाएं जुटाने के लिए दहेज भी एक माध्यम बनता जा रहा है। अतः इस वर्ग में दहेज की समस्या ज्यादा विकट है। बढ़ती हुई दहेज की मांग के कारण लड़कियों का विवाह एक समस्या बन गई है। शादी के दौरान तथा बाद में भी लड़कियों तथा उनके माता-पिता को अपमान सहना पड़ता है। इससे लड़कियों के मन में यह बात घर कर जाती है कि वे परिवार के लिए बोझ हैं तथा माता-पिता के लिए समस्या बन गई है। इसकी चरम परिणति कभी-कभी लड़कियों द्वारा आत्महत्याओं में होती है। इसी हीन भावना का शिकार होकर प्रतिक्रिया स्वरूप परिवार लड़की के जन्म पर ख़ुशी न मनाकर दुखी होता है।


मन में नयी अवशयकताओं का भाव भरने, उपभोक्ता के रूप में व्यवहार करने के लिए लोगों को सीख देने, मनुष्य के मूल्यों को बदलने और इस प्रकार सम्भावित प्राचुर्य के साथ उनके सामंजस्य में शीघ्रता लाने का विज्ञापन ही एकमात्र साधन है। परंतु वर्तमान समय में विज्ञापन अपने उदेश्य से भटकते नजर आ रहे हैं। ऐसे विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित किये जा रहे हैं जिनका समाज पर काफी व्यापक असर दृष्टिगोचर हो रहा है। आज हर कोई अर्थ लाभ चाहता है, चाहे उसके लिए सामाजिक मूल्यों तथा सिद्वान्तों की कब्र ही क्यों न खोदनी पड़ जाय। इस उपभोक्तावादी युग में उत्पादनकर्ता का मूल उद्देश्य अपने उत्पाद से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। उत्पाद बेचने में सबसे अहम् भूमिका विज्ञापन निभाते हैं। विज्ञापन एजेंसिया मानव मनोविज्ञान को भली भांति जानती हैं व उसकी दुखती व कमजोर नस को दबाकर अपना माल बेचती हैं। उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं है कि किसी गरीब लड़की की शादी हो या न हो। चाहे दो-चार नयी नवेली दुलहने आग लगाकर मर जाएं या मार दी जाएं। उन्हें तो बस माल बेचना है वो चाहे कैसे भी बिके। उत्पादक को तो अपने माल की बिक्री बढ़ानी है इसके लिये वो रोज नये नवेले हथकंडे खोजते व ढूंढते रहते हैं। इसी क्रम में वो कई बार इतनी भारी गलतियां कर जाते हैं कि उन्हें स्वय भी शायद इसका आभास नहीं होता है।


दिलदार दूल्हे की दमदार गाड़ी। शुभ विवाह आफॅर विवाह के शुभ  अवसर पर अपनों को दें एक अनमोल उपहार। हम तुम आफॅर। लगन सीजन सेल। गुण ऐसे जो हर कुंडली से मेल खाएं..........शुभ घड़ियों को यादगार बनाएं और जीवन का एक नया नया सफ़र शुरू  करे..............के साथ। एक नया रिश्ता, एक शुभ   शुरूआत। ............आज ही घर लाइए और शादी की खुशियों में लगाइए चार चाँद । हर शादी में बजे आजादी की शहनाई। नये सफर की शुरूआत ..................के साथ जेस्ट मैरिड। शुभ लगन आफॅर। ये तो केवल बानगी भर है इस तरह के विज्ञापनों की भरमार देखने, पढ़ने व सुनने को प्रतिदिन मिल ही जाएगी। उत्पादनकर्ता इस तरह के विज्ञापनों के माध्यम से समाज में एक ऐसी भावना का संचार कर रहे हैं कि दहेज या शादी में भारी भरकम उपहार तो देना ही है तो फिर क्यों न आप हमारा माल ही खरीदें। इस तरह तो दहेज देने व लेने के लिए उकसाया व प्रेरित किया जा रहा है और वो भी कोई छुप-छुपाकर या चोरी छिपे नहीं बल्कि संचार के हर माध्यम से उत्पादक विज्ञापन के सभी तरीके अपना कर अपना माल बेचने में प्रयासरत हैं। विज्ञापन का असर बच्चे से लेकर बूढे सब के मस्तिष्क पर होता है। जब इस प्रकार के विज्ञापन प्रसारित व प्रकशित होंगे तो भविष्य में समाज की क्या तस्वीर बनेंगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी पिछले दिनों ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों के लिए दहेज के संबंध में दिशा-निर्देश  जारी किये हैं और उधर ये विज्ञापन सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को मुंह ही चिढ़ा रहे हैं। ये दोहरी व्यवस्था व दोहरा चरित्र समाज व राष्ट्र के लिए अति खतरनाक है।


राष्ट्रीय महिला आयोग एवं नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों अनुसार प्रतिवर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिसमें सबसे अधिक मामले दहेज से जुड़े होते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार दहेज विवाद के कारण वर्ष 2006 में 2276 सुहागिनों ने आत्महत्या की हैं। अर्थात प्रतिदिन 6 लड़किया ससुराल वालों के तानों व प्रताडना से तंग आकर आत्महत्या करती है। नेशनल कमीशन  फार वूमेन द्वारा जारी दहेज हत्या के आंकड़े भी भयावह तस्वीर पेष करते हैं। वर्ष 2004 से 2006 तक दहेज हत्या के 7026, 6787, 7618 मामले दर्ज किये गये हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में लगभग 5500 दहेज हत्या और वर्ष 2008 में भी लगभग 5000 दहेज हल्या के मामले रिकार्ड हुए हैं। तस्वीर का दूसरा भयानक रूप यह है कि सैंकड़ों मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते हैं। विश्व की आधी दुनिया कही जाने वाली औरतों के खिलाफ चलने वाला यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता है। महिला और बाल विकास मंत्रालय के हवाले से राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े इससे भी ज्यादा भयावह तस्वीर पेष करते हैं। पिछले दो दशकों में पतियों और रिशतेदारों द्वारा महिलाओं के प्रति किए अत्याचारों में 90 फीसदी का इजाफा हुआ है वहीं पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की घटती जनसंख्या भी चिन्ता का एका बड़ा कारण है।

दहेज निरोधक कानून के प्रभावशाली क्रियान्वयन के अभाव में दहेज की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। 1961 में दहेज प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाया गया, 1975 व 1976 में संशोधन कर इसे और कठोर बनाया गया। 1985 में ‘द डयोरी प्रोबिषन’ (मैन्टनेंस ऑफ़ लिस्ट प्रेसन्ट्स टू ब्राइड एंड ब्राइडग्रूम रूल्स) भी बनाया गया। लेकिन इसके बावजूद दहेज का दानव यहां-वहां स्वच्छंद घूम रहा है बदलती परिस्थितियों के अनुसार दहेज की परिभाषा को भी पुर्नभाषित करने की आवश्यकता है। तमाम अधिनियमों के बाद भी 27 मिनट में एक दहेज हत्या का प्रयास होता है और हर चार घंटे में एक दहेज हत्या हो जाती है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि अभी तक किसी भी सामाजिक संगठन का ध्यान उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें की तरफ ध्यान नहीं गया है सरकारी तंत्र का तो कहना ही क्या। इस संबंध में सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं को अलख जगानी पड़ेगी व उपभोक्तावादी संस्कृति के इस कुत्सित व घृणित प्रयास को विज्ञापित होने से पूर्व ही कुचलना होगा। वहीं सरकार को भी इस संबंध में कड़े दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए ताकि कोई भी उत्पादनकर्ता अपना माल बेचने के लिए इस तरह के ‘प्रोवोकिंग विज्ञापन’ जारी न कर पाएं, क्योंकि यहां सवाल केवल माल बेचने का नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों जिंदगियों से जुड़ा है। सरकार व विभिन्न एंजेसियों को इस संबंध में तत्पर प्रभावी कार्रवाई करके भारत की बेटियों को दहेज के दावानल से बचाना चाहिए।

9 comments:

  1. yes its right.......we should have stand together to fight with this social evil.

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  2. yes its very much right.....we should have stand together to fight against this social evil.

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  3. yes its right.....we shoul have stand together to fight agianst this social evil and problem.

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  4. its true.......we should have stand together to fight against this social evil.

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  5. dhej ke danav se hame mil ker hi ladna hoga

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  6. Sahee kaha...ye sabhi vigyapan uksane wale hain...
    Swagat hai!

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  7. अपने समाज में ये जो कुछ चल रहा है वो अब उपभोक्तावाद के अंतर्गत है, अब तो बच्चे भी इसी श्रेणी में पैदा किये जाते हैं.
    हाल ही में हमारे एक परिचित ने अपने बच्चे को ओपरेशन से जन्मा और वो भी पूरी कुंडली मिलवा कर, समय दिन और तारीख के साथ......
    जय-जय

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  8. अच्छा लिखा है. स्वागत है आपका.

    - Sulabh jaiswal

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  9. शुक्र है अभी दहेज़ लोन नहीं मिल रहा !!! अभी बैंक वो भी शुरू करने की सोच रही है !!!

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