Saturday, December 26, 2009

प्लास्टिक कचरे का बढ़ता खतरा


महानगरीय जीवन की विभीषिकाओं की चर्चा हो तो प्रदूषण का नंबर पहला होगा। देश के हर शहर की हालत एक सी है, हवा में फैला धुंध धुआं, शोर, नालों में तब्दील होती नदियां, प्लास्टिक थैलों और पाउचों से पटे कूड़ेदान और जलती आंखें, बढ़ती बीमारियों  से हाल-बेहाल नागरिक। वायु प्रदूषण को निलंबित करने के लिए सरकारें तरह तरह के परिवहन नियम कानून, प्रदूषण नियंत्रण विधियां अपना रही हैं तो जल प्रदूषण के लिए गंगा एक्शन प्लान जैसे कार्यक्रम है। पर शहरों में पालीथीन के बढ़ते प्रचलन पर नियंत्रण के सारे उपाय अब तक विफल हो रहे हैं।


महानगरों से निकलने वाले कूड़े में गंदगी के अलावा भारी तादाद में कागज, कपड़ा तथा प्लास्टिक आदि होता है। खासतौर से सामान की पैकिंग में उपयोग आने वाली प्लास्टिक कूड़े में मुख्य रूप से पायी जाती है। करीब 10 वर्ष पहले शहर में जो कूड़ा निकलता था, उसमें पालीथीन बैग की मात्रा आधा प्रतिशत से भी कम होती थी। लेकिन इन वर्षों में कूड़ा करकट में अप्रत्याशित रूप से पालीथीन बैग की मात्रा बढ़ी है और कुल कूड़े कचरे में इसकी मात्रा करीब 60 प्रतिशत होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक कूड़े में करीब 60 प्रतिशत पालीथीन बैग तथा 5 प्रतिशत शीशे के टुकड़े और अन्य सामान होता है। इसमें पालीथीन बैग निस्तारण एक गंभीर समस्या बन चुकी है क्योंकि यह किसी भी हालत में नष्ट नहीं होते हैं। कूड़ा करकट निकलने वाले काफी पदार्थ तो अपने आप नष्ट हो जाते हैं। कुछ खाद के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है। सिर्फ पोलीथीन ही ऐसी चीज है जो न तो नष्ट होती है, न इसका सड़ना गलना संभव है और इसको जलाया भी नहीं जा सकता है। क्योंकि जलाये जाने परयह विषाक्त गैस पैदा करता है।


प्लास्टिक में मुख्य रूप से जो रसायन होते हैं, उनमें पाली एथीलीन अर्थात पालीथीन होती है जो एथिलीन गैस बनाती है। पालीथीन में पालीयूरोथेन नामक रसायन पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पालीविनायल क्लोराइड (पीवीसी) भी पाया जाता है। प्लास्टिक अथवा पालीथीन में पाये जाने वाले इन रसायनों को किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक अथवा पालीथीन को जमीन में दबाने, आग में जलाने और पानी में बहाने से रसायन को प्रभाव समाप्त नहीं होता है। प्लास्टिक को जलाने से रसायन के तत्व वायुमंडल में घुलकर उसे प्रदूषित करते हैं। प्लास्टिक अथवा पालीथीन को जमीन के अंदर दबाने से गर्मी पाकर रसायन जहरीली गैस पैदा कर देते हैं। जमीन के अंदर गर्मी पाकर यह गैस विस्फोट भी कर सकती है।

पोलीस्टीरीन नामक प्लास्टिक को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन बाहर आ जाते हैं जो ओजोन के जीवन रक्षक कवच को नष्ट कर देते हैं। ओजोन की जीवन रक्षक परत नष्ट होने से धरती पर प्रलयकारी स्थिति पैदा हो सकती है। इसीलिए संसार के अनेक देशों में प्लास्टिक कचरे को जलाने पर रोक लगा दी गयी है। पालीथीन नष्ट न होने की वजह से सफाई कार्य में काफी व्यवधान उत्पन्न होता है। सीवर चोक की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें 70 प्रतिशत पोलीथीन बैग की वजह से होती है। मानव स्वास्थ्य के लिए भी इनका प्रयोग हानिकारक है। नगर के जिन क्षेत्रों में कूड़ा करकट डाला जाता है वहां का बहुत बड़ा भाग विषाक्त गैस के प्रभाव में रहता है। गर्मी के दिनों में प्लास्टिक पदार्थों की विषाक्तता बढ़ जाती है। इसीलिए ऐसे स्थानों से गुजरने वालों को दुर्गंध का सामना करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्रों के पास किसी आबादी का रहना या कुछ घंटों तक लोगों का नियमित कार्यवष रहना भी जीवन के लिए काफी घातक होता है। इस प्रकार प्लास्टिक पदार्थों का उपयोग इसी प्रकार बढ़ता रहा और इसके निस्तारण की व्यवस्था नहीं हुई तो इसकी रासायनिक प्रक्रिया खतरनाक हो सकती है।


भारत में प्लास्टिक जमीन में गाड़ भी देते हैं। जमीन के अंदर गाड़ देना नष्ट करने का आदर्श  और उचित ढंग नहीं है क्योंकि एक तो जमीन भी कम है, दूसरे यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है। इसको अपघटित होने में 500 वर्ष लग जाते हैं। साथ ही मिटटी को प्रदूषित करती है और सतही जल को बेकार कर देती है। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ‘वेस्ट प्लास्टिक’ तकनीक का विकास किया जा रहा है। भारत में प्लास्टिक वेस्ट को पुनः उपयोग में लाने वालों के पास प्रतिदिन 1500 टन वेस्ट प्लास्टिक एकत्र होता है। इसका 75 प्रतिशत हिस्सा सस्ती चप्पलों के बनाने में काम आ जाता है।


प्लास्टिक के कचरे को पूर्णतया नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसीलिए वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि इसे कुछ तकनीकों से गलाकर फिर से उपयोग में लाया जा सके। यह क्रिया रिसाइक्लिंग कहलाती है। परंतु यह क्रिया कठिन भी है और इसमें धन भी बहुत व्यय होता है। इसके अतिरिक्त इस क्रिया से प्रदूषण भी बढ़ता है। जर्मनी के पर्यावरण वैज्ञानिक के अनुसार यदि 50000 पोलीथीन बैग्स तैयार किये जाते हैं तो 17 किलो सल्फर डाईआक्साइड गैस वायुमंडल में घुल जाता है। इसके अतिरिक्त मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन और हाइड्रोकार्बन्स का वायु में रिसाव होता है और पानी में कुछ जहरीले पदार्थ भी आकर मिलते हैं। इसी प्रकार जब फाइबर बनाये जाते हैं तो कम से कम उसमें 13 किलो नाइट्रोजन आक्साइड और 12 किलो सल्फर डाइआक्साइड निकलकर वायुमंडल में मिलती है। गैसों के पेड़ पौधों एवं फसलों को नुकसान पहुंचता है। उनकी बाढ़ प्राकृतिक तरीके से नहीं हो पाती है। इस प्रकार प्लास्टिक के द्वारा पर्यावरण भी प्रभावित होता है।


पर्यटन स्थलों व पहाड़ियों पर पर्यटक लोग विभिन्न प्रकार के सामान से भरकर प्लास्टिक की थैलियां ले जाते हैं। वे सामान को समाप्त करने के उपरांत थैलियों को ऐसे ही फेंक देते हैं। पहाड़ों पर स्थित सभी पर्यटन स्थलों पर बुरी तरह यह समस्या बनी हुई है क्योंकि फेंक  देने के उपरांत भी वे ऐसे ही बने रहते हैं और हवा में उड़ती रहती हैं। इनको कबाड़ी व मैला इकटठा करने वाले भी हेय दृष्टि से देखते हैं। रद्दी समेटने वाले बच्चे भी इसे नहीं उठाते। इनको पुनः ढालकर किसी अन्य काम में नहीं लिया जा सकता क्योंकि प्लास्टिक की थैलियां घटिया क्वालिटी के प्लास्टिक से तैयार की जाती हैं। ये प्लास्टिक चूरे के पांचवे ग्रेड से निर्मित की जाती हैं। इसीलिए इनका पुनः उपयोग नहीं हो सकता। ये टाक्सिक पदार्थ से तैयार होती है। यह जल को प्रदूषित कर देता है और इससे पेट की बीमारियां फैल जाने के खतरे भी हैं। यह पाली विन्याल क्लोराइड से बनता है जो कालान्तर में विष फैलाता है।

सामान्यतः घरों में थैलियां उड़ती नजर आती हैं। दिल्ली में पांच सितारा होटल, तीन सितारा होटल एवं सामान्य रेस्तरां से क्रमश: 800, 600, 200 किलोग्राम प्लास्टिक की थैलियां प्रतिदिन निकलती हैं। अमेरिकी स्वायत्त शासन  संस्थानों ने प्लास्टिक की थैलियों को नष्ट करने हेतु विभिन्न वैज्ञानिकों तथा व्यापारिक संस्थानों से टेण्डर आमंत्रित किए। लेकिन  आश्चर्य तो उस वक्त हुआ कि किसी वैज्ञानिक तथा व्यापारिक संस्थान ने इसके लिए किसी भी प्रकार की प्रौद्योगिकी एवं रसायन विकसित नहीं किया है, जिससे उन्हें नष्ट किया जा सके। निरन्तर प्रयत्नशील रहने के उपरांत भी प्लास्टिक को नष्ट करने की प्रविधि हासिल करने में वैज्ञानिक सफल नहीं हुए हैं। भारत में हिमाचल प्रदेश एकमात्र प्रांत है जिसने अपनी राजधानी शिमला में प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाया है। ठीक इसी प्रकार केन्द्र व राज्यों की सरकारों को पतली प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर दुष्प्रभाव न पड़े।

प्लास्टिक की थैलियों को पाबन्द करने हेतु देश के विभिन्न भागों में चेतना जाग्रत हो रही है। यह सड़ने व गलने पर नष्ट नहीं होता। यह पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ पशुधन द्वारा गलियों में अज्ञानतावश  निगल लिए जाने से पशुओं के गंभीर जानलेवा बीमारियों से ग्रसित होने के तथ्य एवं सत्य प्रकाश में आ रहे हैं। सन 2000 में लखनऊ शहर में ऐसे कई मामले प्रकाष में आए। स्थानीय जानकीपुरम में स्थित गो सदन में कई गायों के पेट का आपरेशन कर आठ से दस किलो तक प्लास्टिक का कचरा निकाला गया। कस्बों,  शहरों एवं महानगरों के नाले प्लास्टिक के कारण अवरूद्व होने से प्रदूषण फैल रहा है। नदियां, तालाब व झीलें, प्रदूषित होने के सबसे बड़े कारणों में यह प्लास्टिक भी है। खासतौर पर रंगीन पालीथीन तथा कैरीबैग को प्रयोग में लाने व सार्वजनिक स्थलों पर फेंक देने के घटना बहुत ही गंभीर समस्या है। सफेद कैरीबैग व थैलियां जिनमें दूध या अन्य खाने का सामान, मिष्ठान भण्डार वाले पैकिंग के रूप में उपयोग में लाते हैं, वे अपेक्षाकृत कम नुकसान दायक होती हैं। सफेद प्लास्टिक की थैलियां सबसे सुधरा हुआ रूप् है। इसके विपरित रंगीन पालीथीन बैग सबसे निकृष्ट श्रेणी का होता है। रंगीन प्लास्टिक की थैलियों के निर्माण में काम में लिए जाने वाले केमिकल मानव ष्षरीर में कैंसर जैसे भयंकर रोग उत्पन्न कर सकते हैं। यदि हलवाई गर्म मिठाइयों अथवा गर्म खाद्यान्न वस्तुओं को रंगीन प्लास्टिक की थैली में पैक करके ग्राहक को देते हैं तो क्रय करने वाले उक्त वस्तुओं के उपयोग से दस्त जैसी व्याधियों से ग्रसित होकर निर्जल डिहाइड्रेशन बीमारी की चपेट में आ सकते हैं। इंसान तो क्या, रंगीन प्लास्टिक की थैलियां वर्षा के पानी के साथ बहकर भूमि की उर्वरा शक्ति को कम कर देने में सक्षम हैं। मृदा प्रदूषण के अन्य कारकों में पालीथीन की थैलियां भी बहुत हानिकारक भूमिका अदा करती हैं।


आज देश के विभिन्न भागों में प्लास्टिक कचरे के दुष्प्रभावों के प्रति नागरिक जाग्रत होकर इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने हेतु आन्दोलनरत हैं। भारत में केन्द्रीय सरकार ने रिसाइक्लड, प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स के अन्तर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा विनिर्माण पर प्रतिबंध लगाया गया है। दुर्भाग्यवश ये प्रतिबंध केवल कागजों पर ही रह गया है क्योंकि प्रत्येक बैग की मोटाई की जांच करने के लिए अब संरचना पूरी तरह से अपर्याप्त है। परिणाम यह है कि विभिन्न राज्यों द्वारा छः माह की कड़ी सजा के प्रावधान किये जाने, उद्योगों की बिजली काट दिये जाने, और पालन न किये जाने की स्थिति में प्रतिष्ठान को बंद किये जाने जैसे प्रावधानों के होने के बावजूद, महीन प्लास्टिक बैग अभी भी परिचालन में है। नियमों को प्रभावी रूप् से लागू करने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिए जाने की महती आवष्यकता है यथा रिसाइक्लड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स में संषोधन किया जाना। उद्योगों के लिए उचित पैकेजिंग नीति तथा पैकेजिंग दिषा निर्देष जारी किये जाए तथा पुनः खरीद विकल्प को लागू किया जाना चाहिए जिसमें उद्योगों के लिए पीईटी बोतलों तथा पाली बैगस को खरीदना अनिवार्य किया तथा उनका पुनः उपयोग किया जाए। हालांकि प्लास्टिक उद्योग उचित एनटीलिटरिंग उपाय की सिफारिष की गई है लेकिन सम्पूर्ण प्लास्टिक कचरा प्रबंध नही इस समस्या का सर्वोत्तम विकल्प है।


परम्परागत काम में लिए जाने वाले कागज, कपड़े और जूट की थैलियों को पुनः शुरू कर देना चाहिए। यदि हमें प्लास्टिक की थैलियों से ही प्रेम हो गया है तो हमे जैविक प्लास्टिक का उपयोग करना चाहिए। देश में केन्द्रीय कंदमूल शोध संस्थान द्वारा केरल के टोपियोका केंद के स्टार्च पर आधारित प्लास्टिक का प्रयोग करने से वातावरण में दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी कड़ी में सेन्ट्रल ट्यूबर क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट, त्रिवेन्द्रम द्वार स्वदेशी रूप से विकसित जैविक रूप से नष्ट होने वाले प्लास्टिक का भी विकास किया गया है लेकिन ऐसा संशोधित प्लास्टिक काफी मंहगा होता है। लेकिन इसका उपयोग किए जाने से पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों से निजात मिल सकती है। विश्वभर में अनेक संगठन जो कि प्लास्टिक के प्रयोग के विरूद्व लड़ाई लड़ रहे हैं तथा उनमें से अनेक पेपर बैग्स बनाने तथा पारिस्थितिकी अनुकूल प्रतिस्थापकों को तैयार करने के लिए स्वयं सेवकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं।

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