Saturday, December 26, 2009

प्लास्टिक कचरे का बढ़ता खतरा


महानगरीय जीवन की विभीषिकाओं की चर्चा हो तो प्रदूषण का नंबर पहला होगा। देश के हर शहर की हालत एक सी है, हवा में फैला धुंध धुआं, शोर, नालों में तब्दील होती नदियां, प्लास्टिक थैलों और पाउचों से पटे कूड़ेदान और जलती आंखें, बढ़ती बीमारियों  से हाल-बेहाल नागरिक। वायु प्रदूषण को निलंबित करने के लिए सरकारें तरह तरह के परिवहन नियम कानून, प्रदूषण नियंत्रण विधियां अपना रही हैं तो जल प्रदूषण के लिए गंगा एक्शन प्लान जैसे कार्यक्रम है। पर शहरों में पालीथीन के बढ़ते प्रचलन पर नियंत्रण के सारे उपाय अब तक विफल हो रहे हैं।


महानगरों से निकलने वाले कूड़े में गंदगी के अलावा भारी तादाद में कागज, कपड़ा तथा प्लास्टिक आदि होता है। खासतौर से सामान की पैकिंग में उपयोग आने वाली प्लास्टिक कूड़े में मुख्य रूप से पायी जाती है। करीब 10 वर्ष पहले शहर में जो कूड़ा निकलता था, उसमें पालीथीन बैग की मात्रा आधा प्रतिशत से भी कम होती थी। लेकिन इन वर्षों में कूड़ा करकट में अप्रत्याशित रूप से पालीथीन बैग की मात्रा बढ़ी है और कुल कूड़े कचरे में इसकी मात्रा करीब 60 प्रतिशत होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक कूड़े में करीब 60 प्रतिशत पालीथीन बैग तथा 5 प्रतिशत शीशे के टुकड़े और अन्य सामान होता है। इसमें पालीथीन बैग निस्तारण एक गंभीर समस्या बन चुकी है क्योंकि यह किसी भी हालत में नष्ट नहीं होते हैं। कूड़ा करकट निकलने वाले काफी पदार्थ तो अपने आप नष्ट हो जाते हैं। कुछ खाद के रूप में प्रयोग कर लिया जाता है। सिर्फ पोलीथीन ही ऐसी चीज है जो न तो नष्ट होती है, न इसका सड़ना गलना संभव है और इसको जलाया भी नहीं जा सकता है। क्योंकि जलाये जाने परयह विषाक्त गैस पैदा करता है।


प्लास्टिक में मुख्य रूप से जो रसायन होते हैं, उनमें पाली एथीलीन अर्थात पालीथीन होती है जो एथिलीन गैस बनाती है। पालीथीन में पालीयूरोथेन नामक रसायन पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पालीविनायल क्लोराइड (पीवीसी) भी पाया जाता है। प्लास्टिक अथवा पालीथीन में पाये जाने वाले इन रसायनों को किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक अथवा पालीथीन को जमीन में दबाने, आग में जलाने और पानी में बहाने से रसायन को प्रभाव समाप्त नहीं होता है। प्लास्टिक को जलाने से रसायन के तत्व वायुमंडल में घुलकर उसे प्रदूषित करते हैं। प्लास्टिक अथवा पालीथीन को जमीन के अंदर दबाने से गर्मी पाकर रसायन जहरीली गैस पैदा कर देते हैं। जमीन के अंदर गर्मी पाकर यह गैस विस्फोट भी कर सकती है।

पोलीस्टीरीन नामक प्लास्टिक को जलाने से क्लोरोफ्लोरो कार्बन बाहर आ जाते हैं जो ओजोन के जीवन रक्षक कवच को नष्ट कर देते हैं। ओजोन की जीवन रक्षक परत नष्ट होने से धरती पर प्रलयकारी स्थिति पैदा हो सकती है। इसीलिए संसार के अनेक देशों में प्लास्टिक कचरे को जलाने पर रोक लगा दी गयी है। पालीथीन नष्ट न होने की वजह से सफाई कार्य में काफी व्यवधान उत्पन्न होता है। सीवर चोक की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें 70 प्रतिशत पोलीथीन बैग की वजह से होती है। मानव स्वास्थ्य के लिए भी इनका प्रयोग हानिकारक है। नगर के जिन क्षेत्रों में कूड़ा करकट डाला जाता है वहां का बहुत बड़ा भाग विषाक्त गैस के प्रभाव में रहता है। गर्मी के दिनों में प्लास्टिक पदार्थों की विषाक्तता बढ़ जाती है। इसीलिए ऐसे स्थानों से गुजरने वालों को दुर्गंध का सामना करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्रों के पास किसी आबादी का रहना या कुछ घंटों तक लोगों का नियमित कार्यवष रहना भी जीवन के लिए काफी घातक होता है। इस प्रकार प्लास्टिक पदार्थों का उपयोग इसी प्रकार बढ़ता रहा और इसके निस्तारण की व्यवस्था नहीं हुई तो इसकी रासायनिक प्रक्रिया खतरनाक हो सकती है।


भारत में प्लास्टिक जमीन में गाड़ भी देते हैं। जमीन के अंदर गाड़ देना नष्ट करने का आदर्श  और उचित ढंग नहीं है क्योंकि एक तो जमीन भी कम है, दूसरे यह प्राकृतिक ढंग से अपघटित नहीं होता है। इसको अपघटित होने में 500 वर्ष लग जाते हैं। साथ ही मिटटी को प्रदूषित करती है और सतही जल को बेकार कर देती है। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए ‘वेस्ट प्लास्टिक’ तकनीक का विकास किया जा रहा है। भारत में प्लास्टिक वेस्ट को पुनः उपयोग में लाने वालों के पास प्रतिदिन 1500 टन वेस्ट प्लास्टिक एकत्र होता है। इसका 75 प्रतिशत हिस्सा सस्ती चप्पलों के बनाने में काम आ जाता है।


प्लास्टिक के कचरे को पूर्णतया नष्ट नहीं किया जा सकता है। इसीलिए वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि इसे कुछ तकनीकों से गलाकर फिर से उपयोग में लाया जा सके। यह क्रिया रिसाइक्लिंग कहलाती है। परंतु यह क्रिया कठिन भी है और इसमें धन भी बहुत व्यय होता है। इसके अतिरिक्त इस क्रिया से प्रदूषण भी बढ़ता है। जर्मनी के पर्यावरण वैज्ञानिक के अनुसार यदि 50000 पोलीथीन बैग्स तैयार किये जाते हैं तो 17 किलो सल्फर डाईआक्साइड गैस वायुमंडल में घुल जाता है। इसके अतिरिक्त मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन और हाइड्रोकार्बन्स का वायु में रिसाव होता है और पानी में कुछ जहरीले पदार्थ भी आकर मिलते हैं। इसी प्रकार जब फाइबर बनाये जाते हैं तो कम से कम उसमें 13 किलो नाइट्रोजन आक्साइड और 12 किलो सल्फर डाइआक्साइड निकलकर वायुमंडल में मिलती है। गैसों के पेड़ पौधों एवं फसलों को नुकसान पहुंचता है। उनकी बाढ़ प्राकृतिक तरीके से नहीं हो पाती है। इस प्रकार प्लास्टिक के द्वारा पर्यावरण भी प्रभावित होता है।


पर्यटन स्थलों व पहाड़ियों पर पर्यटक लोग विभिन्न प्रकार के सामान से भरकर प्लास्टिक की थैलियां ले जाते हैं। वे सामान को समाप्त करने के उपरांत थैलियों को ऐसे ही फेंक देते हैं। पहाड़ों पर स्थित सभी पर्यटन स्थलों पर बुरी तरह यह समस्या बनी हुई है क्योंकि फेंक  देने के उपरांत भी वे ऐसे ही बने रहते हैं और हवा में उड़ती रहती हैं। इनको कबाड़ी व मैला इकटठा करने वाले भी हेय दृष्टि से देखते हैं। रद्दी समेटने वाले बच्चे भी इसे नहीं उठाते। इनको पुनः ढालकर किसी अन्य काम में नहीं लिया जा सकता क्योंकि प्लास्टिक की थैलियां घटिया क्वालिटी के प्लास्टिक से तैयार की जाती हैं। ये प्लास्टिक चूरे के पांचवे ग्रेड से निर्मित की जाती हैं। इसीलिए इनका पुनः उपयोग नहीं हो सकता। ये टाक्सिक पदार्थ से तैयार होती है। यह जल को प्रदूषित कर देता है और इससे पेट की बीमारियां फैल जाने के खतरे भी हैं। यह पाली विन्याल क्लोराइड से बनता है जो कालान्तर में विष फैलाता है।

सामान्यतः घरों में थैलियां उड़ती नजर आती हैं। दिल्ली में पांच सितारा होटल, तीन सितारा होटल एवं सामान्य रेस्तरां से क्रमश: 800, 600, 200 किलोग्राम प्लास्टिक की थैलियां प्रतिदिन निकलती हैं। अमेरिकी स्वायत्त शासन  संस्थानों ने प्लास्टिक की थैलियों को नष्ट करने हेतु विभिन्न वैज्ञानिकों तथा व्यापारिक संस्थानों से टेण्डर आमंत्रित किए। लेकिन  आश्चर्य तो उस वक्त हुआ कि किसी वैज्ञानिक तथा व्यापारिक संस्थान ने इसके लिए किसी भी प्रकार की प्रौद्योगिकी एवं रसायन विकसित नहीं किया है, जिससे उन्हें नष्ट किया जा सके। निरन्तर प्रयत्नशील रहने के उपरांत भी प्लास्टिक को नष्ट करने की प्रविधि हासिल करने में वैज्ञानिक सफल नहीं हुए हैं। भारत में हिमाचल प्रदेश एकमात्र प्रांत है जिसने अपनी राजधानी शिमला में प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाया है। ठीक इसी प्रकार केन्द्र व राज्यों की सरकारों को पतली प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर दुष्प्रभाव न पड़े।

प्लास्टिक की थैलियों को पाबन्द करने हेतु देश के विभिन्न भागों में चेतना जाग्रत हो रही है। यह सड़ने व गलने पर नष्ट नहीं होता। यह पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ पशुधन द्वारा गलियों में अज्ञानतावश  निगल लिए जाने से पशुओं के गंभीर जानलेवा बीमारियों से ग्रसित होने के तथ्य एवं सत्य प्रकाश में आ रहे हैं। सन 2000 में लखनऊ शहर में ऐसे कई मामले प्रकाष में आए। स्थानीय जानकीपुरम में स्थित गो सदन में कई गायों के पेट का आपरेशन कर आठ से दस किलो तक प्लास्टिक का कचरा निकाला गया। कस्बों,  शहरों एवं महानगरों के नाले प्लास्टिक के कारण अवरूद्व होने से प्रदूषण फैल रहा है। नदियां, तालाब व झीलें, प्रदूषित होने के सबसे बड़े कारणों में यह प्लास्टिक भी है। खासतौर पर रंगीन पालीथीन तथा कैरीबैग को प्रयोग में लाने व सार्वजनिक स्थलों पर फेंक देने के घटना बहुत ही गंभीर समस्या है। सफेद कैरीबैग व थैलियां जिनमें दूध या अन्य खाने का सामान, मिष्ठान भण्डार वाले पैकिंग के रूप में उपयोग में लाते हैं, वे अपेक्षाकृत कम नुकसान दायक होती हैं। सफेद प्लास्टिक की थैलियां सबसे सुधरा हुआ रूप् है। इसके विपरित रंगीन पालीथीन बैग सबसे निकृष्ट श्रेणी का होता है। रंगीन प्लास्टिक की थैलियों के निर्माण में काम में लिए जाने वाले केमिकल मानव ष्षरीर में कैंसर जैसे भयंकर रोग उत्पन्न कर सकते हैं। यदि हलवाई गर्म मिठाइयों अथवा गर्म खाद्यान्न वस्तुओं को रंगीन प्लास्टिक की थैली में पैक करके ग्राहक को देते हैं तो क्रय करने वाले उक्त वस्तुओं के उपयोग से दस्त जैसी व्याधियों से ग्रसित होकर निर्जल डिहाइड्रेशन बीमारी की चपेट में आ सकते हैं। इंसान तो क्या, रंगीन प्लास्टिक की थैलियां वर्षा के पानी के साथ बहकर भूमि की उर्वरा शक्ति को कम कर देने में सक्षम हैं। मृदा प्रदूषण के अन्य कारकों में पालीथीन की थैलियां भी बहुत हानिकारक भूमिका अदा करती हैं।


आज देश के विभिन्न भागों में प्लास्टिक कचरे के दुष्प्रभावों के प्रति नागरिक जाग्रत होकर इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने हेतु आन्दोलनरत हैं। भारत में केन्द्रीय सरकार ने रिसाइक्लड, प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स के अन्तर्गत 1999 में 20 माइक्रोन से कम मोटाई के रंगयुक्त प्लास्टिक बैग के प्रयोग तथा विनिर्माण पर प्रतिबंध लगाया गया है। दुर्भाग्यवश ये प्रतिबंध केवल कागजों पर ही रह गया है क्योंकि प्रत्येक बैग की मोटाई की जांच करने के लिए अब संरचना पूरी तरह से अपर्याप्त है। परिणाम यह है कि विभिन्न राज्यों द्वारा छः माह की कड़ी सजा के प्रावधान किये जाने, उद्योगों की बिजली काट दिये जाने, और पालन न किये जाने की स्थिति में प्रतिष्ठान को बंद किये जाने जैसे प्रावधानों के होने के बावजूद, महीन प्लास्टिक बैग अभी भी परिचालन में है। नियमों को प्रभावी रूप् से लागू करने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिए जाने की महती आवष्यकता है यथा रिसाइक्लड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एण्ड यूसेज रूल्स में संषोधन किया जाना। उद्योगों के लिए उचित पैकेजिंग नीति तथा पैकेजिंग दिषा निर्देष जारी किये जाए तथा पुनः खरीद विकल्प को लागू किया जाना चाहिए जिसमें उद्योगों के लिए पीईटी बोतलों तथा पाली बैगस को खरीदना अनिवार्य किया तथा उनका पुनः उपयोग किया जाए। हालांकि प्लास्टिक उद्योग उचित एनटीलिटरिंग उपाय की सिफारिष की गई है लेकिन सम्पूर्ण प्लास्टिक कचरा प्रबंध नही इस समस्या का सर्वोत्तम विकल्प है।


परम्परागत काम में लिए जाने वाले कागज, कपड़े और जूट की थैलियों को पुनः शुरू कर देना चाहिए। यदि हमें प्लास्टिक की थैलियों से ही प्रेम हो गया है तो हमे जैविक प्लास्टिक का उपयोग करना चाहिए। देश में केन्द्रीय कंदमूल शोध संस्थान द्वारा केरल के टोपियोका केंद के स्टार्च पर आधारित प्लास्टिक का प्रयोग करने से वातावरण में दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी कड़ी में सेन्ट्रल ट्यूबर क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट, त्रिवेन्द्रम द्वार स्वदेशी रूप से विकसित जैविक रूप से नष्ट होने वाले प्लास्टिक का भी विकास किया गया है लेकिन ऐसा संशोधित प्लास्टिक काफी मंहगा होता है। लेकिन इसका उपयोग किए जाने से पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों से निजात मिल सकती है। विश्वभर में अनेक संगठन जो कि प्लास्टिक के प्रयोग के विरूद्व लड़ाई लड़ रहे हैं तथा उनमें से अनेक पेपर बैग्स बनाने तथा पारिस्थितिकी अनुकूल प्रतिस्थापकों को तैयार करने के लिए स्वयं सेवकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं।

Friday, December 18, 2009

भिखमंगे



एकदम ब्रेक लगा। लगना ही था, आगे दारोगा साहब जो खड़े थे।

मोटर साइकिल रूकते ही उनका भाषण शुरू हो गया- ”तीन-तीन एक गाड़ी पर चढ़े हो, गाड़ी न हुई....चलो कागज दिखाओ।“ लड़के एक-दूसरे का मुंह तांकने लगे।

इतने में उन्होंने किसी और को रूकने का इशारा किया और उसकी झाड़-पौंछ करने लगे।

”लाइसेंस दिखाओ“ ये आवाज हवलदार साहब की थी, जो पीछे सिपाहियों के साथ पर्ची काट रहे थे। लड़कों के हाव-भाव से वो ताड़ गए कि मामला बिल्कुल साफ है।

दो मिनट मौन रहकर धीरे से बोले-”अच्छा सौ रूपये निकालों और जाओ।“

लड़के गिड़गिड़ाने लगे-”हमारे पास कुछ नहीं है सर।“

”अच्छा पचास निकालो इससे कम में तो दारोगा साहब मानेंगे ही नहीं।“

लड़के अब हाथ-पैर जोड़ने लगे ”अंकल, विश्वास करिए हमारे पास एक भी पैसा नहीं है। हम झूठ नहीं बोल रहे हैं।“

”.....अरे भाई, बीस रूपये तो कम से कम दो।“ आवाज बंदूक थामे सिपाही की थी। लड़कों के जुड़े हाथ व रूँधी आवाज उनकी हालत बता ही रही थी। अनुनय-विनय के बाद लड़के मोटर साईकल स्र्टाट करने लगे.......जाते-जाते उनके कानों में हवलदार साहब की आवाज गूँजी ”अगली बार जेब में पैसे रखकर घूमने निकलना......साले भिखमंगे, घूमने चले आते है......................।

Sunday, December 13, 2009

आधुनिक लखनऊ के परिकल्पकः वी0आर0 मोहन


भारत में बहुत से उद्योगपति हुए हैं और हैं लेकिन वेद रत्न मोहन ऐसे उद्योगपति थे जो सामाजिक दायित्व के संदर्भ में अपने उद्योग को विकसित करना चाहते थे। लखनऊ से उनका प्रेम जग-जाहिर है लखनऊ प्रवास के दौरान शहर के सौन्दर्यीकरण में किए गए उनके प्रयासों व सहायोग को लोग कभी भुला नहीं पाएंगे।

वी. आर. मोहन को जन्म 30 जुलाई, 1925 पश्चमी पाकिस्तानी के जिले रावलपिंडी में एक सफल व्यवसायी व उद्योगपति नरेन्द्र नाथ मोहन (मोहन मीकिन लिमिटेड के आधुनिक निर्माता व संस्थापक) के घर हुआ था। बालक वेद वास्तव में ही रत्न थे। प्रतिभावान वेद ने स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद 1945 में ग्रेजुएशन   पंजाब विश्वविद्यालय से व एम.ए. 1947 में दिल्ली विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण किया। आगे कि पढ़ाई के लिए वह कई वर्षों विदेशों में रहे। विदेश से भारत लौटने के बाद वह अपने पिता एन. एन. मोहन के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगे। उद्योग को बढ़ाने व विकास के लिए जब 1950 में नरेन्द्र नाथ मोहन लखनऊ आए तो वेद रत्न उनके साथ थे। नौजवान वेद के लखनऊ की आबोहवा ऐसी पसंद आई की वे सदा के लिए यही के बाशिंदे होकर रह गये। थोड़े ही समय में अपनी कर्मठता, ईमानदारी और विवके बुद्धि के बल पर अपने लिए महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। साहित्य व कलाकारों के पारखी हाने के साथ दानवीरता में भी वेद किसी से पीछे नहीं थे। गरीब बच्चों को कपड़ा, शिक्षा, भोजन, निर्धन कन्याओं की शादी, बेसहारों-बेघरों की यथा संभव मदद युवा प्रतिभाओं के सम्मान ने उन्हें सबकी नजर का रत्न बना दिया था वो सही शब्दों में सच्चे समाज सेवक थे।

डालीगंज स्थित अग्रणी शराब की फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों से देश-विदेश में विख्यात थी। लोग लखनऊ को मोहन मीकिन के कारण की पहचानते थे। दोनों एक-दूसरे के पूरक बन चुके थे। अपने समय के अग्रणी व सफलतम उद्योगपतियों में लखनऊ के वी. आर. का स्थान था जो सारे लखनऊ के लिए गर्व का विषय था। उनकी समाज सेवा ने ही उन्हें लखनऊ का उप महापौर व उसके बाद मेयर बनाया।

वह पूरे तीन वर्ष नौ महीने तक महापालिका के उपनगर प्रमुख, नगरप्रमुख तथा विशिष्ट सदस्य रहे। के. डी. सिंह बाबू स्टेडियम के सामने स्थित लक्ष्मण पार्क, ग्लोब पार्क (बेगम हजरत महल पार्क के बगल में) तथा अनेक फव्वारे आदि भी उनके कार्यकाल में लगे। लखनपुरी वासियों को ग्लोब पार्क का नायाब तोहफा वी.आर. मोहन ने 1965 में दिया था जो खासकर स्कूली बच्चें के लिए उन्होने बनवाया था। ग्लोब पार्क का मुख्य आकर्षण पार्क के बीचो-बीच एक विशालकाय सीमेंट का बना ग्लोब है, जिसकी ऊंचाई लगभग 40 फीट है तथा वजन 20 टन है। ग्लोब का व्यास 21 फिट है। ग्लोब पर लगे अर्धवृत्ताकार आर्क पर ज्योतिष से संबंधित 12 राषियां मेष, कुंभ आदि अंकित है। मनोरंजन के साथ शिक्षा स्कूली बच्चे पाते है। लक्ष्मण पार्क में वीरवर लक्ष्मण जी की प्रतिमा स्थापित कर उन्होने नगर को सांस्कृतिक प्रतिष्ठा प्रदान की, इसी प्रकार सैनिक स्कूल में गुरू द्रोणचार्य की और लालबाग चौक पर लोक मान्य तिलक की प्रतिमा स्थापित कराकर उन्होंने सैनिक जीवन और लोक जीवन के लिए अपेक्षित आदर्श प्रस्तुत किए। लखनऊ नगर निगम के आखिरी ऊपरी तल पर स्थित सभागार भी उनके मेयर के कार्यकाल के दौरान बना था, वहीं स्थानीय व्यवसायियों के आग्रह पर उन्होंने अमीनाबाद बाजार में मोहन मार्केट बनवाई थी।

लखनऊ विश्वविद्यालय व सरोजनी नगर स्थित सैनिक स्कूल के निर्माण व सुन्दरीकरण में वी0आर0 का योगदान स्मरणीय है। 1962-67 की अवधि के दौरान वह उ.प्र. विधान परिषद के सदस्य मनोनीत किए गए। अप्रैल 1972 में वह संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा के द्विवार्षिक चुनावों में उ.प्र. से चुने गये। देश  प्रेम व सैनिकों के प्रति श्रद्धा, सेना की सेवा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय ने सन् 1966 में उन्हें कर्नल के पद पर प्रतिष्ठित किया। उनकी बहुमुखी प्रतिभा का सम्मान करते हुए भारत के राष्ट्रपति द्वारा 1967 में पद्मश्री व 1971 में पद्म भूषण उन्होंने प्राप्त किया।

मृदुभाषी व्यवहार कुषल प्रगतिशाली विचारधारा के स्वामी पद्मभूषण कर्नल वेद रत्न मोहन अनेक सामाजिक संगठनों व संस्थाओं से जुड़े हुए थे। लखनऊ की ड्रीम लैंड बनाने का सपना उनके मन में था लेकिन समय के क्रूर हाथों ने 28 जनवरी 1974 को प्रतिभावान वेद रत्न को हमसे दूर कर दिया। सही मायनों मे वी.आर. मोहन आधुनिक लखनऊ के निर्माताओं में से एक थे। अगर आज वह जीवित होते तो लखनपुरी का गौरव चारों दिशाओं में और फैलता।

Tuesday, December 08, 2009

पर्यावरण बचाने के नाम पर हो-हल्ला ही ज्यादा

पर्यावरण संरक्षण वर्तमान में चर्चा का सबसे प्रिय विषय है। पर्यावरण प्रदूषण व संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, कचरा प्रबन्धन व वृक्षारोपण ‘फैशन‘ का हिस्सा है। हाई प्रोफाइल पार्टियो, मीटिंगों से लेकर कालेज, यूनिवर्सिटी में पर्यावरण की चर्चा करना ‘स्टेटस सिम्बल‘ है। वहीं इन विषयों पर चर्चा करना जागरूक होने का आभास भी कराता है। लेकिन सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर पर्यावरण बचाने के नाम पर जो हो-हल्ला मचाया जा रहा है अगर उसका अंश मात्र काम भी जमीन पर कर लिया गया होता तो तस्वीर कुछ दूसरी ही होती। हकीकत यह है कि पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण व कचरा प्रबन्धन के लिए 200 से अधिक कानून होने व हर वर्ष करोड़ों खर्चे करने के बावजूद भी पर्यावरण प्रदूषण की समस्या दिनों-दिन गहराती जा रही है। बिडम्बना यह है कि जो जमात पर्यावरण संरक्षण, कचरा प्रबंधन की बातें करती है वही जमात विकास की दुहाई देकर पर्यावरण तहस-नहस करने में जरा भी हिचकते नहीं हैं। सामाजिक संस्थाएं, कार्यकर्ता या आम जनता चाहे जितना चिल्लाती रहे सरकार व सरकारी मशीनरी निजी स्वार्थो, और तुच्छ लाभों के लिए पर्यावरण से जुड़े विभिन्न गंभीर मुद्दों की अनदेखी कर देते है परिणामस्वरूप पर्यावरण, वन, नदियां, भूमिगत जल स्त्रोत, वायु, भूमि व ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है।

पर्यावरण प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का क्षरण, ग्रीन गैसों का प्रभाव कचरा प्रबंधन पर समय-समय पर खबरें व विशेषज्ञ कमेटियों की रिपोर्ट प्रकाशित होती रहती हैं। पर्यावरण प्रदूषण के वर्तमान आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो यह स्पष्ट है कि हमारे आज से ज्यादा खतरनाक हमारा आने वाला कल होगा। जिस तेजी से धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, मौसम चक्र गड़बड़ाता जा रहा है। नदियों का जलस्तर कम हो रहा है, ग्लेशियर  पिघलते जा रहे है, नदियों जहरीले नालों का रूप धारण कर रही है, पीने के पानी के लिए देश में हाहाकार मचा हुआ है कचरे के ढेर लगातार बढ़ रहे है, प्लास्टिक का प्रयोग बंद नहीं हो रहा है असलियत यह है कि सब कुछ ठीक नहीं है और असलियत भी शायद यही है।

नदियो की बात की जाए तो राष्ट्रीय नदी गंगा अत्यधिक प्रदूषण का शिकार है। पतित पावनी गंगा में रोजाना लाखो टन कचरा बिना किसी शोधन के सीधे धकेल दिया जाता है। देश में हाइड्रोपावर प्रोजेक्टों की आई बाढ़ के कारण गंगा सुरंगों में कैद हो रही है। नदी का जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि ऋषिकेश व हरिद्वार को छोड़कर अन्य किसी स्थान पर गंगा में स्नान या आचमन करना जोखिम का काम है। गंगा की भांति यमुना, गोदावरी, गोमती, वरूणा, महानंदा आदि सैकड़ो छोटी-बड़ी नदियां प्रदूषण के कारण जहरीली‘ हो चुकी हैं। बढ़ता औद्योगीकरण व शहरीकरण कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। देश में कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनोदिन कम हो रहा है। फसलों में यूरिया, डीएवी व कीटनाशकों के लगातार बढ़ते प्रयोग से भूमि प्रदूषण बढ़ रहा है व भूमि की ऊर्वरा शक्ति भी क्षीण हो रही है। यह जहरीले रसायन भूमि बंजर तो बना ही रहे हैं वहीं इन की वजह से पक्षियो व तमाम अन्य वनस्पतियों के अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है।

खुली औद्योगिक नीति से प्रदूषण का स्तर और धरती के तापमान में दिनों दिन बढ़ौतरी हो रही है। उद्योगों को बढ़ावा देने की खुली व मुक्त नीति के चलते उत्तरांचल राज्य में पिछले पांच सालों में प्रदूषण के स्तर में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हुई है। हरिद्वार, पंतनगर, उधमसिंह नगर आदि जिलों में तमाम कंपनियों ने अपने छोटे बड़े प्लांट स्थापित किए हैं। सबसे बुरी हालत हरिद्वार जिले की है। शांत, सुरम्य व साफ-सुथरी धर्मनगरी आने वाले समय में उद्योग नगरी के नाम से जानी जाएगी। उद्योगों की स्थापना से शहर में जनसंख्या में भी काफी वृद्वि हुई है। परिणामस्वरूप बुनियादी सुविधाएं व अन्य व्यवस्थाएं चरमरा गई है। परिणामस्वरूप धर्मनगरी के बाशिंदों को पानी व बिजली की भारी किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। वहीं शहर में हवा, भूमि, जल प्रदूषण की मात्रा में रिकार्ड बढोत्तरी दर्ज की गई है। चमड़े व शराब की फैक्टरियों ने ही कानपुर में गंगा को इतना जहरीला कर दिया है कि गंगा पर बने जाजमऊ पुल से गुजरने वाले यात्री नाक पर रूमाल रखकर ही गुजरते हैं। उत्तरांचल की भांति देवताओं की भूमि हिमाचल प्रदेश का बद्दी जिला भी उद्योगों के भारी दबाव के कारण बर्बादी की कगार पर पहुच चुका है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं ने बद्दी के प्राकृतिक सौन्दर्य व वातावरण को तहस नहीस कर दिया है। बददी में प्रदूषण के आंकड़े मानकों से कई गुणा अधिक दर्ज किए गए हैं। हरियाणा से सटे हिमाचल के सिरमौर जिले के काला अम्ब औद्योगिक क्षेत्र में बोन चाइना के बर्तनों व कागज के कारखाने के चलते मारकण्डा अन्य बरसाती नदियों को पानी काला व जहरीला हो चुका है। इन नदियों का पानी इतना बदबूदार है कि कई किलोमीटर पहले ही उसे महसूस किया जा सकता है। यमुना नदी के किनारे बसा हरियाणा राज्य का छोटा सा जिला यमुना नगर उ़द्योगों के लिए देश भर में जाना जाता है। स्टील, कागज, शराब व चीनी के कारखानों ने शहर की आबोहवा में जहर भहर दिया है। रही सही कसर अभी हाल ही में लगे थर्मल पावर प्लान्ट ने पूरी कर दी है। शहर में प्रवेश करते ही आपको इसका आभास हो जाएगा। थर्मल पावर प्लान्ट की चिमनियों से निकलने वाली राख ने सारे शहर पर काले रंग की चादर सी तान दी है। हवा में उड़ रही राख के कारण आसपास के इलाकों में सांस व आंख के रोगों में बढ़ी तेजी से इजाफा हुआ है।


मानाकि देश की आबादी व जरूरतों के हिसाब से उद्योग अनिवार्य हैं। उद्योग धंधे लगाना कोई बुरी बात भी नहीं है। यह खुला तथ्य है कि औद्योगिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा में बिल्कुल उलटा संबंध है। आज शयद एक कोई ऐसा आधुनिक उद्योग हो जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाला न हो। इसलिए कोई उद्यमी यह गांरटी नहीं ले सकता कि उसके उद्योग से पर्यावरण को क्षति नहीं पहुचेंगी। इसलिये किसी नये उद्योग की स्थापना में केवल यह देखा जाता है कि इससे पर्यावरण को कम से कम से नुकसान हो। लेकिन इसका फार्मूला तय करना भी कठिन है। फिर भी यदि केंद्र और राज्य सरकार ईमानदारी से चाहे तो इस प्रक्रिया को और सरल और पारदर्शी बनाया जा सकता है और पर्यावरण का नष्ट करने से बचाया जा सकता है।

प्रदूषण नियंत्रण के लिए जिम्मेदार सरकारी व गैर सरकारी एजेंसिया कागजी कार्रवाई में अधिक विश्वास करती हैं। विकास की दुहाई देकर कहीं नदियो का बहाव रोक दिया जाता है, तो कहीं हरे भरे वृक्षों का सफाया कर दिया जाता है अपवाद स्वरूप कुछ   ऐजेंसियों संस्थाओं को किनारे रख दिया जाए तो पर्यावरण के नाम पर फर्जी संस्थाएं व संगठन लाखो करोड़ो हर साल डकार जाते है। प्रदूषण जैसी बड़ी समस्या को महज पौधारोपण, पेन्टिग प्रतियोगिता या पैदल मार्च कर निपटाने की कोशिशे ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही हैं। सरकारी मशीनरी असलियत से बखूबी वाकिफ है, लेकिन जिम्मेदारियों से भागने की प्रवृत्ति के चलते जानबूझकर आंखें बंद किए रहती है। ज्यादा हुआ तो किसी कारण स्टार होटल के एसी हाल या रूम में बैठकर ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा कर ली जाती है। देश की नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए समय-समय पर आंदोलन, अनशन या फिर मोटी-मोटी रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। देश में नदी प्रदूषण लगातार गंभीर हो रहा है और सरकार गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करके ही झूठी वाहवाही लूट रही है।

पर्यावरण संरक्षण व प्रदूषण की रोकथाम के लिए हमारे पास कानून व नियम तो हैं लेकिन उनकी सख्ती से लागू करने की इच्छा शक्ति का सर्वथा अभाव है। सरकार व पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों व पर्यावरणविदों को देश भर में जनजागरण अभियान चलाकर आम आदमी को पर्यावरण से जुड़े मसलों में प्रति जागरूक करना होगा क्योंकि जब तक जनता जागरूक नहीं होगी तब तक सारे उपाय निष्फल व निरर्थक ही होंगे। वहीं सरकारी मशीनरी के पेंच कसना भी निहायत जरूरी है, अगर समय रहते प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रभावी व कारगर कदम नहीं उठाए गए तो बढ़ते प्रदूषण का कहर हमें और आने वाली पीढ़ियों को निगल जाएगा।

Friday, December 04, 2009

हम ‘खिलाते’ हैं इसलिए वो ‘खाते’ हैं



भ्रष्टाचार की विरूद्व जनजागरण की मुहिम चलाने वाला विज्ञापन ‘हम खिलाते हैं इसलिए वो खाते हैं’ देश  में व्याप्त भ्रष्टाचार की गहरी परतों को उधेड़ कर रख देता है। मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भ्रष्टाचार के दोषी अधिकारियों की संपत्ति जब्त करने के पक्ष में हैं। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भ्रष्ट अधिकारियों की लगाम कसने और कानून को प्रभावी बनाने की वकालत कर रहे हैं। वहीं राज्य मंत्री पृथ्वीराज चहवाण भ्रष्टाचार को देश के  आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं। विश्व  के भ्रष्टतम देशों में हमारी गिनती होती है। सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को खत्म करने और भ्रष्टों की लगाम कसने के लिए समय-समय पर देश में भ्रष्टाचारा विरोधी अभियान चलाए जाते है, गोष्ठियां आयोजित की जाती है, कड़ी कार्रवाई की धुड़की दी जाती है, बावजूद इसके दिनों दिन आमजीवन में भ्रष्टाचार का सामाजीकरण और स्थायीकरण हो रहा है। दो चार दिन की सख्ती व रोक के बाद ‘करप्शन मेल’ अपने पुराने ट्रेक पर दौड़ने लगती है। देश में बढ़ते भ्रष्टाचार की खबर हर खासो आम को है लेकिन असल दिक्कत यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन। ताजा मुहिम में विधायिका व न्यायापालिका ने संयुक्त रूप से भ्रष्टाचार के विरूद्व सख्त तेवर अपनाए है ऐसे में एक बार फिर ये आस जगी है कि भ्रष्टों पर कानूनी शिकंजा कसा जाएगा और देश की जनता को साफ सुथरा प्रशासन व लोक व्यवस्था मिल पाएगी।

लोक-व्यवस्था में भ्रष्टाचार को सरकारी कामकाज की उपभोक्तावादी कार्य संस्कृति के तौर-तरीकों  का पर्याय कहा जाये, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया में जवाबदेही और पारदर्शिता का  अभाव है तो दूसरी ओर कानून की धौंस पट्टी के चलते भ्रष्टाचार के तौर तरीको का विकास सुगम है। इसी कारण आज देश की अर्थ-व्यवस्था में औद्योगिक विकास की दर में कमी, राजकोष में करोड़ों का घाटा और राजस्व वसूली में घोर अनियमितताएं उभर कर सामने आयी है। प्रदूषण नियंत्रण रोकने का कानून हो, चाहे खाद्य पदार्थो मे अपमिश्रण को रोकने का कानून हो, जटिल विधानो की अतार्किक परिभाषाएं गढ़ कर धन उगाही की कुसंस्कृति जारी है। मौजूदा कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार सर्वमान्य भौतिकवादी और प्रयोगवादी सिद्धान्त हो चुका हैं इसके कारण बेरोजगारी में भी इजाफा हुआ और विकास की दर मे भी कमी आयी है। नतीजा यह भी निकला कि लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया खर्चीली हुई और अब सरकारी नुमांइदो के हौसले इतने बुलन्द है कि वे भ्रष्टाचारियो की जांच रपट में भी लीपा-पोती करने में बाज नहीं आ रहे है। मौजूदा कार्य संस्कृति में नियुक्ति से लेकर ट्रान्सफर  पोस्टिंग तक एक धंधा बन चुका है। सूचना के अधिकार ने थोड़ी लगाम तो कसी है लेकिन अभी कसावट की काफी गुंजाइश बाकी है।
कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार का ताना-बाना राजनैतिक दलों, नौकरशाहों , राजनेताओं और अवसरवादी तत्वों ने बुना है। इसके पीछे देश की पेचीदा कानूनी प्रक्रिया, रैंक और फाइल व्यवस्था भी है। इस कार्य संस्कृति ने लोकतंत्र को गरीबी, अज्ञानता और असमानता की तराजू पर रखकर लोक कल्याण को ‘भ्रष्टमेव जयते‘ को आत्मघाती सिद्धान्त दिया है। इसके चलते देश नव साम्राज्यवादियों के आगे आत्म समर्पण कर चुका है। भ्रष्टाचार की पैदाइश लोकतंत्र में लोक और तंत्र की विफलता का कारण बनती जा रही हैं इस कार्य संस्कृति में सरकारी नुमांइदे यह जानते है क़ि वे भ्रष्टाचार का सरकारीकरण रोक नहीं सकते है। असलियत यह है कि राजनीतिक दल राजनेता, या सरकारी नुमांइदे  भ्रष्टाचार को खत्म करने की लफ्फाजी तो करते है लेकिन वह यह बताने की हैसियत नहीं रखते हैं कि भ्रष्टाचार के कारणों और सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को सरल और तर्कसंगत कैसे करेंगे?  सत्तारूढ़ दलो की स्थिति यह है कि वे सरकारी काम को पारदर्शी बनाने का नारा तो देते है, लेकिन सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को कैसे पारदर्शी बनायेंगे, इसकी योजना जनता के सामने नहीं लाते है। राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपना दामन पाक साफ बताना चाहते हैं, जबकि भ्रष्टाचार के पीछे राजनेताओ और नौकरशाही का गठजोड़ है। भ्रष्टाचार और सरकारी कामकाज के बीच मैतक्य स्थापित किया जा रहा है। कानून ओर जनतंत्र का मखौल उड़ाया जा रहा है।
शासकों ने शासन के हितों को संरक्षित करने की बजाय खुद के हितों को सर्वोपरि मानकर ऐसी प्रक्रिया को चुना है जिसमें शासक की जिम्मेदारी और जवाबदेही का अभाव बना रहे। सरकारी कामकाज में समयबद्धता के सिद्धान्त को सरकारी मशीनरी ने ही दरका दिया है। भ्रष्टाचार ने सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को कुतार्किक और कुसंगत भी बना दिया है। इसके चलते आम जनता का विश्वास सरकारी प्रक्रिया से डिगा है और भ्रष्टाचारी संस्कृति आज सामाजिक रूप से स्वीकार्य हो रही है। आज रिश्वत देने वाला भला ही शरमा जाए लेकिन लेने वाला बड़ी बेशर्मी से बेहिचक व बेखौफ होकर रिशवत मांगता व स्वीकारता है।

वर्तमान कार्य संस्कृति में भ्रष्टाचार का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र से बहुत गहरा रिश्ता है। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया का आयाम आज उपभोक्तावादी हो चुका है। सरकारी कामकाज और भ्रष्टाचारियो के बीच ऐसा  मतैक्य स्थापित हो चुका है, सदाचार, नैतिकता, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता, सामाजिक दृष्टिकोण, राष्ट्रहित जैसे मूल्यवान शब्दों की पहचान खो चुकी है। जुगाड़बाजी, अपराधिक गिरोहबन्दी, न्यस्त स्वार्थो की पूर्ति, अनैतिक कार्यो से कोई परहेज न रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अपराधियो से दुरभिसंधि के चलते राजनीतिक दल सरकारी कामकाज को दलीय निष्ठा को चोला पहनाने की नीयत रखते है। अपराध और भ्रष्टाचार के बीच पनपी राजनीतिक ठेकेदारी और निरंकुश नौकरशाही सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने म बाधक सिद्ध हुई है। राजनैतिक दलों के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करने वाली सरकारी मशीनरी इस स्थिति में नहीं रह गयी हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए वह नियमों के विवेक पूर्वक लागू करे इसका अर्थ है कि सरकार खुद    नहीं चाहती है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। राजनेताओं  को भ्रष्टाचार का पहला पाठ सत्तारोहण के साथ ही नियमों को परिभाषाओ के साथ समझाया जाता है।
सरकारी मशीनरी खुद ही कानूनों में ‘‘किन्तु‘‘ ‘‘परन्तु‘‘ के आश्चर्यजनक सिद्धान्त को प्रतिपादित करती है। एक तरफ सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को उदारवादी चोला पहनने का प्रयास किया जाता है तो दूसरी ओर इंस्पेक्टर राज के द्वार खोले जाते हैं ऐसी स्थिति मे अगर कोई राजनेता यह दावा करे कि उसने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की पहल की है, तो यह सरकारी कामकाज से पनपा एक पाखण्ड ही माना जायेगा। राजनीतिक दलों और सरकारी मशीनरी के सामने भ्रष्टाचार से बड़ी चुनौती यह है कि सबसे पहले उन नौकरशाहों, राजनेताओ और अवसरवादियो को पहचानने का प्रयास करें, जो अपराधियो से दूरभिसन्धि कर भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने में जुटे हैं दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकारी मशीनरी को प्रशासन की जवाबदेही से सम्बद्ध करना पडेगा साथ ही प्रक्रिया और विवके से जुड़े प्रशासनिक एकाधिकारवाद को खत्म कर शासन के प्रत्येक हिस्से में उत्तरदायित्व का निर्धारण करना होगा। चूंकि भ्रष्टाचार की जड़ शक्ति ओर विवेक का एकाधिकारवाद छिपा है इसलिए सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण मे सामयिक बदलाव लाये इसका अर्थ यह है कि अधिकारो का विके्रन्द्रीकरण हो और प्रत्येक स्तर पर जवाबदेही और जिम्मेदारी तय हो।

विभिन्न देशों के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2007 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्षों की तुलना में वर्ष 2007 में भारत में भ्रष्टाचार के स्तर में कुछ कमी आई है। ताजा रिपोर्ट में भारत का भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई,  करप्शन  परसेप्शन इंडेक्स) 3.5 आंकलित किया गया है, जो पिछले वर्ष 2006 में 3.3,  2005 में 2.9 तथा 2004 व 2003 में 2.8-2.8 रहा था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2007 की रिपोर्ट में सर्वोच्च स्थान आइसलैण्ड, फिनलैण्ड व न्यूजीलैण्ड को संयुक्त रूप से प्राप्त हुआ है।  एशियाई देशों में चीन का इस सूची में स्थान जहां भारत से कुछ ऊपर है, वहीं श्रीलंका को 92वें, नेपाल को 131वें, पाकिस्तान को 138वें तथा बांग्लादेश को 162वें स्थान पर इसमें रखा गया है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल वर्ष 2007 की रिपोर्ट में 180 देशों की सूची में भारत का 72वां स्थान है। इसका अर्थ यह है कि सूची में भारत से नीचे देशों की संख्या 108 है। तात्पर्य यह है कि 108 देशों में भ्रष्टाचार का स्तर भारत से अधिक है। वर्ष 2006 में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 163  देशों की सूची में भारत का स्थान 70वां रहा था। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के अनुसार 1998 में 654 और 1999 में 684 सिविल सेवक रिश्वतखोरी में दोषी ठहराए गए जबकि वर्ष 2000 में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। सिविल सेवकों पर षिंकजा कसने के लिए कानून मंत्री ने संविधान के अनुच्छेद 310 और 311 को समाप्त कर इनके बदले अनुच्छेद 309 के तहत नया विधेयक परित करने का संकेत दिया है

असलियत में सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार जन संस्थाओं का आत्मविश्वास  डिगाता है और जनता के लेनदेन की कीमत बढ़ाता है। भ्रष्टाचार समाज की स्थिरता, सुरक्षा तथ कानून के शासन को पैदा करता है। विश्व बैंक से जुड़ी एक संस्था का आंकलन है कि एक खरब से ज्यादा डालर का हर साल दुनिया में रिश्वत के तौर पर भुगतान किया जाता है। सरकारी कामकाज की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए किसी ऐसे प्रणाली को विकसित करने की आवश्कयता होगी, जिसमे राजनीतिक मुखिया से लेकर प्रशासनिक ‘‘दाता‘‘ और क्षमताओ का दम्भ भरने वाली सरकारी मशीनरी को जवाबदेह बनाया जा सके। इसके लिए जरूरी हे कि देश में नयी वित्तीय प्रशासनिक निर्णयात्मक सम्परीक्षा प्रणाली यानी ‘‘डिसिजन मेंकिग अडिट प्रणाली‘‘ और प्रसाशनिक आचार संहिता के बीच मतैक्य स्थापित हो। साथ ही सरकार को योजनागत और अयोजनागत वित्तीय ढांचे को भी पारदर्शी बनाने का प्रयास करना चाहिए। मौजूदा कार्यसंस्कृति में तो भ्रष्टाचार का राष्ट्रीयकरण ही हुआ है।

Tuesday, December 01, 2009

दहेज जरूर दीजिए श्रीमान्

प्रोवोक ऐडवरटाइजिंग का बढ़ता चलन समाज में  दहेज की समस्या को उग्र बना रहा है


प्रोवोक’ अर्थात किसी को उकसाना कानून की नजर में अपराध है। ‘प्रोवोक ऐडवरटाइजिंग’ का जो नया ट्रेंड हमारे देश में चल रहा है वो पूरे समाज पर विषम व नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। एक तरफ तो सरकार ने दहेज विरोधी अधिनियम बनाए हैं वहीं दूसरी ओर इस तरह के विज्ञापन बिना किसी रोक-टोक के प्रसारित व प्रकाशित हो रहे हैं। देखा जाए तो ये उत्पादक खुले आम सीना खोलकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं व पूरी सोसायटी में एक मैसेज जा रहा है कि फलां गाड़ी के बिना लड़की विदा कैसे होगी। फलां कंपनी की घड़ी या कपड़ा पहने बिना भला कोई दूल्हा दुल्हन कैसे बन पाएगा। फलां टीवी, फ्रीज या फलां उत्पाद देकर ही बेटी के हाथ पीले करो वरना  शादी ब्याह अधूरा है और जीवन रंगहीन व रसहीन है।


उपभोक्तावादी संस्कृति व प्रदर्शन इस समस्या को बढ़ाया है। आज साधारण से साधारण शादी  पर दो से चार लाख का खर्च आता है। समाज की देखा-देखी व झूठी शान रखने के लिए माता-पिता व अभिभावक कर्ज लेकर अपनी बेटी के हाथ पीले करते हैं। लंबी-चौड़ी लिस्टे बजट बढ़ाती है। वहीं ससुराल पक्ष का मुंह भी सुरसा के समान बढ़ता ही चला जाता है। परतंत्रता काल में जहां इस बुराई की तेजी से वृद्वि हुई, वहीं स्वतंत्रता पश्चात्  भी इस पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। इतना ही नहीं यह बढ़ते भौतिकतावादी दृष्टिकोण के कारण और बढ़ती जा रही है। इसका सबसे अधिक कुप्रभाव शिक्षित मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। यह वर्ग उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हैं। इसकी महत्वाकांक्षाए तेजी से बढ़ रही है। जीवन के भौतिक सुख सुविधाएं जुटाने के लिए दहेज भी एक माध्यम बनता जा रहा है। अतः इस वर्ग में दहेज की समस्या ज्यादा विकट है। बढ़ती हुई दहेज की मांग के कारण लड़कियों का विवाह एक समस्या बन गई है। शादी के दौरान तथा बाद में भी लड़कियों तथा उनके माता-पिता को अपमान सहना पड़ता है। इससे लड़कियों के मन में यह बात घर कर जाती है कि वे परिवार के लिए बोझ हैं तथा माता-पिता के लिए समस्या बन गई है। इसकी चरम परिणति कभी-कभी लड़कियों द्वारा आत्महत्याओं में होती है। इसी हीन भावना का शिकार होकर प्रतिक्रिया स्वरूप परिवार लड़की के जन्म पर ख़ुशी न मनाकर दुखी होता है।


मन में नयी अवशयकताओं का भाव भरने, उपभोक्ता के रूप में व्यवहार करने के लिए लोगों को सीख देने, मनुष्य के मूल्यों को बदलने और इस प्रकार सम्भावित प्राचुर्य के साथ उनके सामंजस्य में शीघ्रता लाने का विज्ञापन ही एकमात्र साधन है। परंतु वर्तमान समय में विज्ञापन अपने उदेश्य से भटकते नजर आ रहे हैं। ऐसे विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित किये जा रहे हैं जिनका समाज पर काफी व्यापक असर दृष्टिगोचर हो रहा है। आज हर कोई अर्थ लाभ चाहता है, चाहे उसके लिए सामाजिक मूल्यों तथा सिद्वान्तों की कब्र ही क्यों न खोदनी पड़ जाय। इस उपभोक्तावादी युग में उत्पादनकर्ता का मूल उद्देश्य अपने उत्पाद से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। उत्पाद बेचने में सबसे अहम् भूमिका विज्ञापन निभाते हैं। विज्ञापन एजेंसिया मानव मनोविज्ञान को भली भांति जानती हैं व उसकी दुखती व कमजोर नस को दबाकर अपना माल बेचती हैं। उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं है कि किसी गरीब लड़की की शादी हो या न हो। चाहे दो-चार नयी नवेली दुलहने आग लगाकर मर जाएं या मार दी जाएं। उन्हें तो बस माल बेचना है वो चाहे कैसे भी बिके। उत्पादक को तो अपने माल की बिक्री बढ़ानी है इसके लिये वो रोज नये नवेले हथकंडे खोजते व ढूंढते रहते हैं। इसी क्रम में वो कई बार इतनी भारी गलतियां कर जाते हैं कि उन्हें स्वय भी शायद इसका आभास नहीं होता है।


दिलदार दूल्हे की दमदार गाड़ी। शुभ विवाह आफॅर विवाह के शुभ  अवसर पर अपनों को दें एक अनमोल उपहार। हम तुम आफॅर। लगन सीजन सेल। गुण ऐसे जो हर कुंडली से मेल खाएं..........शुभ घड़ियों को यादगार बनाएं और जीवन का एक नया नया सफ़र शुरू  करे..............के साथ। एक नया रिश्ता, एक शुभ   शुरूआत। ............आज ही घर लाइए और शादी की खुशियों में लगाइए चार चाँद । हर शादी में बजे आजादी की शहनाई। नये सफर की शुरूआत ..................के साथ जेस्ट मैरिड। शुभ लगन आफॅर। ये तो केवल बानगी भर है इस तरह के विज्ञापनों की भरमार देखने, पढ़ने व सुनने को प्रतिदिन मिल ही जाएगी। उत्पादनकर्ता इस तरह के विज्ञापनों के माध्यम से समाज में एक ऐसी भावना का संचार कर रहे हैं कि दहेज या शादी में भारी भरकम उपहार तो देना ही है तो फिर क्यों न आप हमारा माल ही खरीदें। इस तरह तो दहेज देने व लेने के लिए उकसाया व प्रेरित किया जा रहा है और वो भी कोई छुप-छुपाकर या चोरी छिपे नहीं बल्कि संचार के हर माध्यम से उत्पादक विज्ञापन के सभी तरीके अपना कर अपना माल बेचने में प्रयासरत हैं। विज्ञापन का असर बच्चे से लेकर बूढे सब के मस्तिष्क पर होता है। जब इस प्रकार के विज्ञापन प्रसारित व प्रकशित होंगे तो भविष्य में समाज की क्या तस्वीर बनेंगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी पिछले दिनों ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों के लिए दहेज के संबंध में दिशा-निर्देश  जारी किये हैं और उधर ये विज्ञापन सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को मुंह ही चिढ़ा रहे हैं। ये दोहरी व्यवस्था व दोहरा चरित्र समाज व राष्ट्र के लिए अति खतरनाक है।


राष्ट्रीय महिला आयोग एवं नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों अनुसार प्रतिवर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिसमें सबसे अधिक मामले दहेज से जुड़े होते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार दहेज विवाद के कारण वर्ष 2006 में 2276 सुहागिनों ने आत्महत्या की हैं। अर्थात प्रतिदिन 6 लड़किया ससुराल वालों के तानों व प्रताडना से तंग आकर आत्महत्या करती है। नेशनल कमीशन  फार वूमेन द्वारा जारी दहेज हत्या के आंकड़े भी भयावह तस्वीर पेष करते हैं। वर्ष 2004 से 2006 तक दहेज हत्या के 7026, 6787, 7618 मामले दर्ज किये गये हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में लगभग 5500 दहेज हत्या और वर्ष 2008 में भी लगभग 5000 दहेज हल्या के मामले रिकार्ड हुए हैं। तस्वीर का दूसरा भयानक रूप यह है कि सैंकड़ों मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते हैं। विश्व की आधी दुनिया कही जाने वाली औरतों के खिलाफ चलने वाला यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता है। महिला और बाल विकास मंत्रालय के हवाले से राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े इससे भी ज्यादा भयावह तस्वीर पेष करते हैं। पिछले दो दशकों में पतियों और रिशतेदारों द्वारा महिलाओं के प्रति किए अत्याचारों में 90 फीसदी का इजाफा हुआ है वहीं पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की घटती जनसंख्या भी चिन्ता का एका बड़ा कारण है।

दहेज निरोधक कानून के प्रभावशाली क्रियान्वयन के अभाव में दहेज की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। 1961 में दहेज प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाया गया, 1975 व 1976 में संशोधन कर इसे और कठोर बनाया गया। 1985 में ‘द डयोरी प्रोबिषन’ (मैन्टनेंस ऑफ़ लिस्ट प्रेसन्ट्स टू ब्राइड एंड ब्राइडग्रूम रूल्स) भी बनाया गया। लेकिन इसके बावजूद दहेज का दानव यहां-वहां स्वच्छंद घूम रहा है बदलती परिस्थितियों के अनुसार दहेज की परिभाषा को भी पुर्नभाषित करने की आवश्यकता है। तमाम अधिनियमों के बाद भी 27 मिनट में एक दहेज हत्या का प्रयास होता है और हर चार घंटे में एक दहेज हत्या हो जाती है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि अभी तक किसी भी सामाजिक संगठन का ध्यान उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें की तरफ ध्यान नहीं गया है सरकारी तंत्र का तो कहना ही क्या। इस संबंध में सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं को अलख जगानी पड़ेगी व उपभोक्तावादी संस्कृति के इस कुत्सित व घृणित प्रयास को विज्ञापित होने से पूर्व ही कुचलना होगा। वहीं सरकार को भी इस संबंध में कड़े दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए ताकि कोई भी उत्पादनकर्ता अपना माल बेचने के लिए इस तरह के ‘प्रोवोकिंग विज्ञापन’ जारी न कर पाएं, क्योंकि यहां सवाल केवल माल बेचने का नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों जिंदगियों से जुड़ा है। सरकार व विभिन्न एंजेसियों को इस संबंध में तत्पर प्रभावी कार्रवाई करके भारत की बेटियों को दहेज के दावानल से बचाना चाहिए।