Monday, November 30, 2009

.....जब मोबाइल नहीं था



...........शीर्षक पढ़कर कुछ अटपटा जरूर लग रहा होगा। वो जमाना कब का बीत चुका जब इक्का दुक्का घरों में फोन होता था और फोन रखना रसूख की बात समझा जाता था। पिछले दो दशकों में आई सूचना क्रांति के बयार ने देश के हर आमो खास को मोबाइल थमा दिया है। घर के एक कोने में रखा फोन अब बीते जमाने की बात हो चुका है। और भारी-भरकम फोन की जगह छोटे व आकर्षक मोबाइल फोन ने ले ली है। टेलीफोन के चलन से पहले सारा प्यार, व्यवहार पत्रों के माध्यम से ही होता था। लैण्ड लाइन फोन और चिटठी के जमाने में जो आनंद रोमांच, अपनापन व उत्सुकता थी वो मोबाइल और इन्टरनेट के युग में शेष नहीं है। अब कोई कान या आंख डाकिए की प्रतीक्षा नहीं करती है। सारी दुनिया मोबाइल प्रेम में मगन है।

मोबाइल ने हमारी जिंदगी में कई बदलाव किये हैं। वो बदलाव हमारे लिए अच्छे हैं या बुरे इसका निर्णय स्वयं ही करना होगा। अब हर आदमी की पहुंच आपके बेडरूम तक हो चुकी है। मोबाइल इतना जरूरी हो चुका है कि आप एक मिनट भी मोबाइल से दूर होना नहीं चाहते हैं। आप दुनिया के किसी भी कोने में, किसी भी स्थिति में हो केवल दस डिजिट का नम्बर मिलाकर आपसे संवाद स्थापित किया जा सकता है। मोबाइल की वजह से आपकी व्यक्तिगत जिंदगी लगभग खत्म हो चकी है। जीवन में एकांत व सुख के चार पल ढूंढ पाना आसान नहीं है। क्योंकि कहीं भी कभी भी आपके मोबाइल की रिंग बज सकती है।

मोबाइल ने हमारा आपका दिन रात का सुकून छीन लिया है। घर में लैण्ड लाइन फोन था तो बातें इत्मिनान से होती थी......... आराम से सोफे पर बैठकर। मोबाइल ने वो इत्मिनान, सुकून व आजादी हमसे छीन ली है। टाइम-बेटाइम जब मन में आए मोबाइल पर बात करना षुरू कर दो। डाइनिंग टेबुल, ड्रांइग रूम, बेड रूम, टायलेट कहीं पर भी आपके मोबाइल की घंटी घनघना सकती है। न दिन का चैन न रात को आराम। मोबाइल ने हम सब की व्यक्तिगत जिंदगी में इतनी घुसपैठ कर दी है कि पूजा करते समय मंदिर में, किसी शोक सभा या फिर श्मशान घाट में बेधड़क आपके मोबाइल की रिंग टोन बज सकती है। आखिकर मोबाइल को क्या मालूम कि आप कहां है और किस दशा में हैं।

पहले हम खाना खाते समय केवल टीवी देखने की बुरी आदत थी। अब आंखें टीवी पर होती हैं और मोबाइल कान से चिपका रहता है। दिल दिमाग व अन्य इंद्रीयों का जीवन में कोई तालमेल ही नहीं बचा है। क्या वास्तव में ही हमारी लाइफ इतनी बिजी व फास्ट हो गई है या फिर काम इतना अधिक हो गया है कि हम लोग अपनी शारीरिक अवस्था व स्वास्थ्य को दरकिनार कर किसी अलग दुनिया में मस्त हैं। सीधी सरल जिंदगी को एक छोटे से मोबाइल ने इतना तनाव पूर्ण बना दिया है कि अच्छा भला आदमी मशीन बनकर रह गया है।

पहले कभी कभार बातें होती थी तो रिश्तों में नयापन ताजगी व प्यार बना रहता था। अब मोबाइल कनेक्टिविटी के चलते पल पल की जानकारी एक दूसरे को होती रहती है। बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उससे मिठास, अपनापन व प्यार कहीं गायब हो चुका है। आज दिलों में इतनी दूरी हो चुकी है कि जिन्हे पाट पाना शायद मुमकिन नहीं है। ये नयी पीढ़ी व उम्र की बातें हैं। हर उम्र व पेशे का आदमी कान से मोबाइल चिपकाए घण्टों मोबाइल पर बिजी है। पता नहीं ऐसी कौन सी बातें हैं जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं।

मोबाइल ने हमें झूठ बोलना भी बखूबी सिखाया है। आफिस में बैठा एक्जिक्यूटिव हो, दुकान में बैठा व्यापारी हो, स्कूल कालेज जाते बच्चे हो या आराम से घर में बैठा हम आप सब के सब धडल्ले से झूठ बोलते हैं। मोबाइल वाले होते कहीं हैं लेकिन फोन करने वाले को कहीं और बताकर टरका देते हैं। ऐसा करते समय हमें इस बात का जरा भी एहसास नहीं होता झूठ बोलने की बुरी आदत हम अपने पल्ले बांधते जा रहे हैं।


मोबाइल ईजाद होने से पहले भी लोग बाहर बिजनेस, पढ़ाई या अन्य कामों से आते जाते थे। तब भी औरतें, बच्चे अकेले घरों से बाहर निकलती थे। इस एक दशक  में देश के जनमानस के भीतर ये भावना इस कदर जम गई है कि मोबाइल के बिना बच्चे, महिलाएं व बुजुर्ग सब अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं । मोबाइलने मानसिक रूप् से हमें कमजोर किया है।

मोबाइल ने एक तरफ झूठ बोलने की आदत डालकर जिम्मेदारियों से भागने का रास्ता सुझाया है,। वहीं इसकी वजह से लोगों पर जिम्मेदारियों का बोझ कई गुना ज्यादा बढ़ा है। एक तरह से इसने जिम्मेदारियों का चरित्र ही बदल दिया है। स्थिति यह है कि किसी जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति मोबाइल फोन के मार्फत चैबीसों घंटे डयूटी पर रहता है। सनियर हो या जूनियर जिसकी भी जरूरत महसूस हो, वे फोन की घंटी बजा देता है। बेशक आप टॉयलेट में हों या सपनों में, मोबाइल हर जगह आपकों पकड़ ही लेता है। इसके चलते खुद के लिए व परिवार के लिए निर्बाध समय निकाल पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। कई बार तो गृहकलह का कारण भी बनता है मोबाइल।

मोबाइल ने रिश्तो को संवेदनहीन भी किया है। मोबाइल की वजह से आजकल लोगों ने रिश्तदारों के यहां आना-जाना कम कर दिया है और मोबाइल के जरिये ही वे एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं। त्योहारों पर लाखों लोग एस0एम0एस0 भेजकर सगे संबंधियों को बधाई देते हैं। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि मोबाइल ने हमारे संबंधों को औपचारिक बना दिया है। जो काम पहले एक दूसरे से मिलने पर ही पूरे होता था, आज उसे मोबाइल फोन अंजाम दे रहे हैं। इस तरह से देखें, तो मोबाइल संबंधों को औपचारिक बनाकर सामाजिक ढांचे को कमजोर करने का काम कर रहा है।

मोबाइल युग में अब दिलो दिमाग एक मिनट भी खाली नहीं रहता है। हमेशा कहीं न कहीं मोबाइल की घंटी बजती ही रहती है। मोबाइल की वजह से सब इतनी हड़बड़ी में हैं कि पैदल चलते हुए, स्कूटर, मोटरसाइकिल और कार चलाते समय कान से मोबाइल चिपका रहता हैं। ऐसा लगता है मानो अब शायद कभी रूकना ही नहीं है। मोबाइल नहीं था तो घर में, दफतर में सुरक्षित तरीके से वार्तालाप होता था। चलते फिरते बात करने की वजह से कई बार गंभीर दुर्घटना घट जाती हैं लेकिन इन बातों पर गौर करने का वक्त किसी के पास नहीं है।

मोबाइल का सबसे अधिक असर बच्चों व युवाओं पर पड़ रहा है। युवा हर वक्त मोबाइल में डूबे रहते हैं। मोबाइल की वजह से बच्चों व युवाओं का कैरियर प्रभावित हो रहा है। पढ़ाई के वक्त दोस्तों से बातचीत करना या फिर एसएमएस खेलना युवाओं का सबसे प्यारा शगल है। युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मोबाइल कंपनिया पूरी रात फ्री बात करने की सुविधा भी मुहैया करवाती हैं। ऐसे आफरों के चक्कर में पड़कर युवा अपना बेशकीमती वक्त बर्बाद कर रहे हैं वहीं रात रात भर जागकर घण्टों बातचीत करने से युवाओं का स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

इन सब बुराईयों व खामियों के बावजूद मोबाइल के सकारात्मक पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपने सगे संबंधियों से दूर रहने के बावजूद मोबाइल फोन इस दूरी को पाटने में सहायक सिद्व हुआ है। मोबाइल उपयोग करने वाले व्यक्ति जब चाहें, आपस में संपर्क कर अपने अकेलेपन को दूर कर सकते हैं। मोबाइल रखने वाला व्यक्ति विषम परिस्थितियों में अपने किसी साथी से संपर्क कर सकता है। विशेषतया महानगरों में लोगों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करने में सहायक है। आज कोई व्यक्ति कहीं भी चला जाये, वह हर समय मोबाइल के जरिए संपर्क में रह सकता है। वह एक साथ कई काम कर लेता है। इसके अलावा मोबाइल फोन ने लोगों की कामचोर प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाने का काम किया है। अब तक लोग सन्देश न मिलने का बहाना बनाकर अपनी जिम्मेदारी से बचने का रास्ता निकाल लेते थे लेकिन अब मोबाइल फोन घर के तहखाने तक भी सन्देश पहुंचाकर लोगों को कामचोरी नहीं करने देता।

मोबाइल फोन का इस्तेमाल निश्चित रूप से अधिकाधिक फायदा उठाने के लिए ही है लेकिन आजकल इस फायदे पर नकारात्मक पहलू हावी हो गया है। आज मोबाइल उपभोक्ता बड़ी तेजी से कई कई ऐसी आदतों का शिकार हो रहे हैं, जो भविष्य में काफी खतरनाक साबित हो सकती हैं। खासकर, लोगों के चरित्र पर इसका गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका है वहीं मोबाइल से निकलने वाली विकरणें अनेक असाध्य रोगों को भी जन्म दे सकती है अनेक अनुसंधानों से ये बात स्पष्ट हो चुकी हैं।

.......सच जब मोवाइल नहीं था तब हमारे आपके जीवन में शांति थी, सुकून था, सच्चाई थी, प्रेम था, मिठास थी, रिश्तों में गहरा अपनापन था.........बदलती दुनिया के साथ चलने में कोई बुराई नहीं है। जमाना बदल रहा है हमें भी उसी हिसाब से चलना होगा लेकिन विकास की क्या कीमत हमें चुकानी पड़ रही है ये तो सोचना ही होगा।


Sunday, November 29, 2009

नवाबों का आशियाना बाबुओं के शहर में तब्दील


मीठी जुबान, खान-पान, शाही इमारतों, बाग-बगीचों वाली ‘लक्ष्मणपुरी‘ कभी भी प्रदेश  व देश  के औद्योगिक मानचित्र पर उभरकर सामने नहीं आ पाई। मंत्रियों, संतरियों वाला यह शहर कभी भी औद्योगिक नगरी नहीं रहा। प्रदेश की औद्योगिक नगरी कानपुर, लखनऊ से करीब 80 किमी0 की दूरी पर है पर उसका कोई भी प्रभाव इस नवाबी शहर पर नहीं पड़ पाया।

उद्योग धन्धों के नाम पर लखनऊ चिकन उद्योग के लिए देश भर में जाना जाता है लेकिन इस उद्योग ने भी अपेक्षित विकास इस शहर में नहीं किया है। मुगल शासक व नवाब इस कलाकारी को अपने साथ लाए थे उनके राज्य काल में यह धन्धा काफी फला फूला लेकिन समय ने करवट ली और चिकन वस्त्र आम आदमी की पहुँच  से लगातार दूर होते चले गये आज चिकन के कुर्ते पजामें, सलावार सूट फैशन का प्रतीक बनकर रह गए है। पिछले 40 साल से चिकन का व्यापार करने वाले गोपाल लाम्बा बताते हैं कि लखनऊ सरकारी अफसरों का ष्षहर है, टूरिस्ट भी बहुत कम ही आते हैं दिन व दिन कारीगरी मंहगी होती चली जा रही है कस्टमर माल तो उम्दा चाहता है पर रेट सुनते ही वह हाथ खींचने लगता है।

पुराने दिनों को याद करते हुए एक चिकन व्यापारी ने बताया कि अब न वो लोग रहे हैं न ही वैसे कारीगर वर्ना एक से एक नमूना तैयार होता था और कद्रदान मुंह मांगे दामों पर खरीद कर ले जाते थे। सरकारी नीति ही ऐसी है कि हर चीज के दाम पिछले पचास सालों में बढ़ गए हैं, रही-सही कसर नए के कपड़ों ने पूरी कर दी है, दुखी तो होते हैं यह सब बताते हुए कि सब कुछ बदल गया है।

जब देश पहले गदर (1897 ई0) की तैयारी में जुटा था उसी समय (दो वर्ष पूर्व 1855 ई0) में नवाबों की नगरी लखनऊ में पहली बड़ी कम्पनी की स्थापना भी होने जा रही थी। बड़े इमामबाड़े से डेढ़ मील दूर गोमती नदी की पूर्व दिशा  में मुगल शासन काल के दौरान आज से 400 वर्ष एक व्यापारी शाह जी द्वारा बनवाई गई भव्य ईमारत में जो कि उस समय शाह जी का बाग में एक अंग्रेज उद्योगपति एडवर्ड डायर द्वारा शराब  फैक्टरी स्थापित की गई थी नाम था ‘डायर एण्ड कम्पनी‘। प्रथम विशव् युद्ध के उपरांत इस कम्पनी का नाम बदलकर (1915-19) डायर मीकिन एण्ड कम्पनी किया गया। एच. जे. मीकिन भी एक उद्योगपति थे जिनके शराब के कारखाने देश के कई हिस्सों में चल रहे थे। 1949 में एक भारतीय नरेन्द्र नाथ मोहन को इस कंपनी का प्रबंध निदेशक बनाया गया था तब से इस कंपनी का कार्य क्षेत्र लखनऊ शहर ही था।

पद्म श्री नरेन्द्र नाथ मोहन व उनके सुपुत्र पद्मभूषण वी0 आर0 मोहन एक सफल उद्योगपति के साथ-साथ समाज व राष्ट्रसेवा में भी काफी रूचि लेते थे स्व. वेदरत्न मोहन 1961-64 तक लखनऊ शहर के माहपौर भी रह चुके है।, ग्लोब पार्क, लक्ष्मण पार्क व मोहन मार्केट उन्हीं की देन है लखनऊवासियों को।

दस लाख स्क्वायर फीट में बनी 144 वर्ष पुरानी कम्पनी की शाखाएँ  आज देश भर में है। वर्तमान में कम्पनी मोहन मीकिंन लिमिटेड के नाम से डालीगंज क्षेत्र में उद्योग जगत को अपना योगदान दे रही है। इस समय फैक्टरी में लगभग 800 कर्मचारी कार्यरत हैं जो दिन रात मेहनत करके कंपनी को अग्रणी बनाए हुए। बिग्रेडियर डा. कपिल मोहन कंपनी के प्रबंध निदेशक हैं उनकी सूझ बूझ व लगन से इस फैक्टरी का उत्पादन कुछ हजार पेटी से शुरू  होकर एक से सवा लाख पेटी प्रतिमाह तक पहुंच चुका है। यह फैक्टरी आज 21वीं शताब्दी में प्रवेश करने जा रही है लेकिन इसकी परम्परा व स्वाद ‘बूढ़ा‘ नहीं हुआ है।

1855 से 1947 तक के लम्बे सफर में लखनऊ शहर में कोई अन्य बड़ा उद्योग स्थापित नहीं हो पाया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत औद्योगिक विकास ने कुछ गति पकड़ी थी जो कि न के बराबर ही मानी जाएगी। इस दौरान एवरेडी फ्लश लाइट प्लान्ट, यू0पी0आई0एल0, स्कूटर इंडिया लि0, एच0ए0एल0 अपट्रान कं0 लि0 व टेल्को प्रमुख हैं।

आजादी के पूरे दस वर्ष वाद 1957 में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल वी0वी0 गिरी ने ऐषबाग मिल एरिया में यूनियन कार्बाइड कं. की एक यूनिट एवरेडी फ्लश  लाइट प्लान्ट का उद्घाटन किया था। वर्तमान में यह फैक्ट्री सुचारू रूप से चल रही है। लखनऊ में ही पले बढ़े 62 वर्षीय सूरज प्रसाद यादव बताते हैं इस कम्पनी की नींव हम लोगों ने रखी थी। 1957 में लेकिन प्रोडेक्षन षुरू हुआ 1958 में। उस समय सारे वर्कर ठेकेदार के होते थे। कुल मिलाकर हम 250 आदमी ठेकेदारी पर काम करते थे सारा काम हाथ से होता था दिन भर में 2500-3000 टार्च ही हम लोग  बना पाते थे। मजदूरी भी काफी कम मिलती थी 2.37 प्रतिदिन और अगर ठेकेदार किसी के काम से खुष हो गया तो वह तीन रूपये तक तक पा जाता था पर ऐसे खुषनसीब कम ही थे। वह बताते हैं कि अब और तब में जमीन आसमान का अंतर आ गया हैं तब ‘गोरे साहबों‘ का राज था। आजादी मिले दस साल हो चले थे पर गोरों की दहषत तब भी कायम थी। हमारे पहले मैनेजर थे अमेरिकन मिस्टर ई0एस0 किडवाल। लम्बे-चौड़ा, खूबसूरत बड़े ही अनुशासन प्रिय व सख्त आदमी थे घूम-घूमकर कम्पनी के चक्कर काटा करते थे। असिस्टेन्ट मैनेजर थे जे. डब्ल्यू. हेन्गिस्टन और इंजीनियर थे फ्रांसीसी मि. एच. आर. वेल्स बहुत ही काबिल आदमी थे। 1965 में सभी अंग्रेज अधिकारी व कर्मचारी देश छोड़कर चले गए थे उसके बाद को ई भी गोरा अफसर बनकर नहीं आया। वर्तमान में यह फैक्टरी खेतान ग्रुप के पास है। दीपक खेतान इसके प्रबंधन निदेशक है। लगभग 600 कर्मचारियों के बलबूते पर आज कंपनी प्रतिदिन लगभग 10,000 टार्च बनाती है।

यह शहर रंग-बिरंगी पतंगो, मुर्गों की लड़ाई व अपनी बोली व पकवानों के लिए मशहूर रहा हैं कभी भी औद्योगिक नगरी के रूप में इस नगरी का विकास नहीं हो पाया। तालकटोरा मिल एरिया में छोटे-छोटे कई कारखाने थे पर कोई बड़ी फैक्टरी इस एरिया में नहीं थी। गणेश फ्लोर मिल, विक्रम काटन मिल, गवर्नमेंट पे्रस, गरगा फार्मा, प्राक्सन एण्ड कंपनी व ‘डू बीड़ी कम्पनी’ आदि यहां थी। इन दिनों एवरेडी कम्पनी में कैन्टीन चला रहे हैं सूरज प्रसाद यादव बड़े गर्व से यह सब बताते है कि किस प्रकार उनके शहर ने करवटें बदली है।

एच0ए0एल0 (हिन्दुस्तान ऐरोनाटिक्स लि0) की स्थापना 1940 में एक निजी संस्था के रूप में हुई थी। संस्थापक थे उद्योगपति बालचन्द धीरूचन्द। द्वितीय विशव  युद्ध (1939-45) के दौरान यह कम्पनी बन्द कर दी गई थी आजादी के उपरांत सरकार ने इसका महत्व समझाते हुए इसे अधिग्रहीत कर लिया। इस  ‘एसेसरीज यूनिट‘ की स्थापना 1971 में लखनऊ शहर में हुई। एच0ए0एल0 में लगभग 4000 कर्मचारी कार्यरत है। यहां हेलीकाप्टरों व अन्य विमानों के पुर्जे बनते है।

8 अप्रैल 1973 को पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने लखनऊ शहर को ‘स्कूटर इंडिया लि0‘ के नाम से तोहफा दिया था।   शुरूआती दौर में यह कम्पनी ‘विजय सुपर‘ नामक दुपहिया वाहन का निर्माण करती थी, 2000 कर्मचारियों वाली यह संस्था सरोजनी नगर क्षेत्र में स्थित है तथा वर्तमान में ‘विक्रम टेम्पो‘ का निर्माण कर रही हैं कंपनी ने जापान की प्रसिद्ध कम्पनी होंडा के साथ बनाई है। इसी दौरान स्थापित हुई यू.पी.आई.एल. सरकारी नीतियों के चलते बन्द होने के कगार पर है।

आज से 17 वर्ष पूर्व सन् 1982 में चिनहट इंडस्ट्रियल एरिया में एक फैक्ट्री लगाने के प्रक्रिया शुरू हुई थी जिसके लिए 600 एकड़ भूमि खरीदी गई थी। कंपनी का नाम था टेल्को (टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कं. लि.) पूरे दस वर्षों बाद 1992 में कंपनी में उत्पादन शुरू हुआ। टाटा ग्रुप का इसे सबसे बड़ा प्लान्ट बनाने की योजना थी। प्रारम्भिक योजना में टाटा सूमो, सफारी, ट्रक, बस निर्माण की योजना थी लेकिन वर्तमान में केवल टाटा सूमो की ही एसेम्बली की जाती हैं कंपनी के अति आधुनिक प्लान्ट में 100 ट्रक, बस व 25 सूमो बनाने की क्षमता हैं 1500 कर्मचारियों वाली ये फैक्टरी ने हाल ही में ‘गियर पार्ट्स‘ व अन्य पुर्जे बनाने की काम भी शुरू कर दिया है।

सही मायनों में लखनऊ शहर की संरचना व वातावरण ही ऐसा है कि यहां कोई भी उद्योग धंधा पनप नहीं पाया। नवाबों का यह षहर बाबुओं का शहर बनकर रह गया है। डायर मीकिन से टेल्को (1855-1992) तक का लम्बा औ़द्योगिक सफर पूरा कर चुका यह शहर न तो कभी औद्योगिक नगरी रहा और न ही भविष्य में ऐसी संभावना नजर आती है।

लखनऊ शहर में औद्योगिक विकास में दो महापुरूषों पदमश्री नरेन्द्र नाथ मोहन व मुंशी नवल किशोर जी  का जिक्र करना लाजिमी है। मुंशी नवल किशोर ने विशव पटल पर लखनऊ को एक नयी व अलग पहचान दिलाई वहीं आजादी के बाद से मोहन मीकिन ब्रुअरी की वजह से ही लखनऊ को दुनिया भर में जाना जाता था।



पद्म श्री नरेन्द्र नाथ मोहन
प्यार से सभी उन्हें ‘बाबूजी‘ कहते थे, पूरा नाम था नरेन्द्र नाथ मोहन। सन् 1901 को रावलपिंडी (वर्तमान पश्चमी पाकिस्तान) में पैदा हुए नरेन्द्र नाथ मोहन आधुनिक भारत की अग्रणी शराब कम्पनी ‘मोहन मीकिंन लि.‘ के निर्माता एवं स्थापक दोनों ही थे। अपने परिश्रम, सूझ-बूझ, कुषल प्रबंधन व व्यावसायिक कौशल के दम पर ही मध्यमवर्गीय परिवार का यह युवक एक समय में भारत के चोटी के उद्योगपतियों में अपना स्थान बना पाया था। सर्वप्रथम वह ‘डायर मीकिंन ब्रुअरीज‘ के साथ फाइनेशयल एडवाइजर के रूप से जुड़े थे उनकी योग्यता ने ही सन् 1949 में उन्हें कम्पनी का प्रथम भारतीय प्रबंध निदेशक (एम.डी.) बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। सोलन (हि.प्र.) से आरम्भ हुई यात्रा ने लखनऊ शहर में एक लम्बा ठहराव लिया इसके दौरान कंपनी ने देश-विदेश तक अपनी पहचान तो बनाई ही वहीं नवाबों की इस नगरी को ‘शराब की नगरी‘ के रूप में देश व विदेश को व्यापारिक व औद्योगिक मानचित्र में स्थान भी दिलवाया। उनकी समाजसेवा राष्ट्र प्रेम के चलते ही भारत सरकार ने 1968 में उन्हें ‘पद्मश्री‘ से सम्मानित किया था। 15 जुलाई 1969 को काल के क्रूर हाथों ने हमारे प्यारे बाबूजी को हमसे छीन लिया लेकिन उनके द्वारा स्थापित आदर्श आज भी कायम है और उनकी प्यारी कम्पनी प्रगति पथ पर अग्रसर है।

मुंशी नवल किशोर

इनकी जिन्दगी का सफर कामयाबियों की दास्तान हैं। शिक्षा, साहित्य से लेकर उद्योग के क्षेत्र में उन्होंने सफलता पायी और जो बात सबसे उल्लेखनीय थी वह यह कि उन्होंने हमेषा मानव मूल्यों का सम्मान किया। मथुरा में तीन जनवरी को एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्में मुंशी नवल किषोर 1858 में 22 साल की उम्र में लखनऊ आ गए। यहाँ आते ही उन्होंने नवल किशोर प्रेस स्थापित किया। देखते ही देखते इस प्रेस की ख्याति इतनी बढ़ी कि इसे पेरिस के एलपाइन प्रेस के बाद दूसरा दर्जा दिया जाने लगा। सभी मजहब की पुस्तकों और एक से बढ़ कर एक साहित्यकारों की कृतियों को इस प्रेस ने छापा। कुल प्रकाशन का 65 प्रतिशत उर्दू, अरबी और फारसी तथा शेष   संस्कृत, हिन्दी, बंगाली, गुरूमुखी, मराठी, पशतो  और अंग्रेजी में है। पूरी दुनिया के बड़े-बड़े पुस्तकालयों में उनके यहां की किताबें मिल जाती है। जापान में मुंशी नवल किशोर के नाम का पुस्तकालय है तो जर्मनी के हाइडिलबर्ग और अमेरिका के हावर्ड विशविद्यालय में उनकी प्रकाशित सामग्री के विशेष कक्ष हैं। उद्योग के क्षेत्र में भी उनका अपना योगदान है। 1871 में उन्होंने लखनऊ में अपर इण्डिया कूपन पेपर मिल की स्थापना की थी जो उत्तर भारत में कागज बनाने का पहला कारखाना था। शाह  ईरान ने 1888 में कलकत्ता में पत्रकारों से कहा ‘हिन्दुस्तान आने के मेरे दो मकसद हैं एक वायसराय से मिलना और दूसरा मुंशी नवल किशोर से’। कुछ ऐसे ही खयालात लुधियाना दरबार में अफगानिस्तान के शाह अब्दुल रहमान ने 1885 में जाहिर किए थे। बहुआयामी व्यक्तित्व और बहुआयामी सफलताओं को अपने में समेटे मुंशी नवल किशोर को काल के क्रूर हाथों ने 19 फरवरी 1895 को सदा के लिए समेट लिया। (पदम् श्री रानी लीला राम कुमार भार्गव द्वारा लिखित)

’’’मेरा ये लेख दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में 5 दिसंबरए 1999 को प्रकाशित हुआ था।

Friday, November 27, 2009

जहरीली होती नदियां

जहरीली होती नदियां

पर्यावरण प्रदूषण आज पूरे विशव  के समक्ष सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरा है। परमाणु खतरे से भी बड़ा व भयानक खतरा पर्यावरण प्रदूषण का है। जल, वायु, पृथ्वी सभी बड़ी तेजी से प्रदूषण की चपेट में आ रहे हैं। प्रदूषण की सबसे बड़ी मार हमारे जल स्त्रोतों पर पड़ी है। जल प्रदूषण के कहर से असंख्य महामारिया उत्पन्न हो रही हैं। जल प्रदूषण का घातक प्रभाव पूरी मानव जाति पर दिखाई देने लगा है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण व नगरीकरण ने देष की लगभग हर छोटी बड़ी नदी को जहरीले व गंदे नाले के रूप में परिवर्तित कर दिया है सच्चाई यह है कि देश की जीवन धारा कहलाने वाली परम पवित्र नदियों का जल इतना अधिक प्रदूषित हो चुका है कि उनमें स्नान करना तो दूर उस जल से आचमन करना भी स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त हानिकारक है। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विकसित शोधन  प्रक्रियाओं के उपरांत भी जल का शुद्विकरण नहीं हो पा रहा है।

देश  की सबसे परम पवित्र नदी गंगा के बारे में अगर बात की जाए तो गंगा नदी की स्थिति भी बहुत नाजुक है। यह तो गोमुख से ही प्रदूषित होने लगी जोकि पर्यटन स्थल तथा पिकनिक केन्द्र के रूप में विकसित किया जा चुका है। वहां प्रदूषण नियन्त्रण की कोई व्यवस्था है ही नहीं। लोग वहां इधर-उधर मल-मूत्र त्यागते हैं, बोतलें, कागज, प्लास्टिक की थैलियां आदि कूड़ा-कचरा नदी में डाल देते हैं। गंगा में लगभग 15 करोड़ लीटर गंदा पानी प्रतिदिन गिरता है किन्तु जल-मल शोधन संयन्त्रों के द्वारा दस करोड़ लीटर पानी ही शोधित हो पाता है। इस शुद्विकरण के बाद भी पानी में बड़ी संख्या में आंत्र जीवाणु अभी भी देखे जा सकते है। इससे साफ है कि नदी का जल प्रदूषण बरकरार है।

हिन्दुओं में मान्यता है कि मृत्यु के उपरान्त शव को यदि गंगा के हवाले कर दिया जाय तो सीधा स्वर्ग मिलता है। इस धार्मिक विश्वास के अन्तर्गत हरिद्वार तथा वाराणसी (काशी) में प्रतिवर्ष करीब 50 हजार शवों को जलाया जाता है। दूर दराज के लोग भी यहां लाकर मृतकों का दाह संस्कार करते है। इन शवों को जलाने में 20 हजार टन लकड़ी और उससे बनने वाली राख करीब दो हजार टन होती है। यह भी गंगा जैसी पवित्र नदियों को अपवित्र (प्रदूषित) करने का प्रमुख कारण है। हिमालय की हिमाच्छादित चोटी से बंगाल की खाड़ी तक की यात्रा में स्वार्थी मानव ने गंगा को पूर्ण रूप से स्वच्छ (पवित्र) से पूर्ण रूप से मैली (अपवित्र) कर दिया है।

बनारस में  गंगा तट पर स्थित संकट मोचन निधि की प्रयोगशाला जो पूर्णतया सरकारी है, में प्रति सौ सी0सी0 पानी के आंत्र जीवाणुओं की संख्या 80 से 1 लाख 30 हजार के बीच पाई जाती है जो कि बड़ी से बड़ी महामारी फैलने की सूचक है जबकि सरकार बनारस और कानपुर में गंगा के साफ होने का दावा करती है। बनारस और कानपुर में औद्योगिक कचरा आज भी ज्यों का त्यों बहाया जाता है तो ऐसी स्थिति में गंगा साफ कैसे रह सकती है। गंगा तो अपने उद्गम स्थल से ही प्रदूषित होती हुई अपने किनारे बसे लगभग 115 नगरों की गन्दगी को लेकर चलती है। ऐसे में किसी क्षेत्र विशेष में गंगा को साफ कैसे रखा जा सकता है। यह केवल सरकार की नासमझी और उद्देश्यहीनता का नमूना है। साथ ही समाज में फैली निरक्षरता, अविद्या तथ अज्ञान एवं जनसंख्या विस्फोट ही इसके मुख्य कारण हैं।

राजधानी दिल्ली की जीवन धारा कही जाने वाली यमुना नदी के अस्तित्व पर संकट के घने बादल छाए हुए हैं। यमुनोत्री से निकलकर इलाहबाद (प्रयाग) तक की 1376 किलोमीटर की यात्रा में नदी जिस भी राज्य से होकर गुजरती है वहां लाखों  टन घरेलु व औद्योगिक कचरा उसके साथ बहा दिया जाता है। दिल्ली के सेंटर फॉर साइसं एंड इंवायरमेंट (सीएसई) ने पर्यावरण की स्थिति पर एक श्रृंखला प्रकाषित की है। दिल्ली के जल प्रदषण से संबंधित प्रकाशन होमिसाइड बाय पेस्टीसाइड में यमुना के जल प्रदूषण को लक्ष्य बनाया गया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि हरियाणा के खेतों में प्रयोग में लाए जा रहे जहरीले कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक एवं शहरों के घरेलु और औद्योगिक कचरे यमुना को दूषित कर रहे हैं।  पश्चमी यमुना नहर के दिल्ली पहुंचने तक हरियाणा के यमुनानगर, करनाल और पानीपत के अनेक उद्योगों के जहरीले कचरे की दोस्ती इस नगर के पानी के साथ हो जाती है। मसलन इस पानी में प्रतिदिन 8051 किलोग्राम सस्पेंडेड पदार्थ, 3288 बीओडी (बायोलोजिकल आक्सिजन डैमेज) 16245 सीओडी (केमिकल आकिस्जन डैमेज) की मात्रा मिलती रहती है जो पानी के उपभोगकत्र्ता के लिए घातक है।

यमुना दिल्ली की प्यास बुझाने का एकमात्र सबसे बड़ी स्त्रोत है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि दिल्ली पहुंचते- पहुंचते यमुना जहरीली हो जाती है लेकिन हम फिर भी यमुना को नहीं छोड़ते। दिल्ली में वजीराबाद बांध से इंद्रप्रस्थ बांध तक लगभग 18 अधिकृत गंदे नाले यमुना में हर रोज दिल्ली के लोगों का मल और गंदा डाल रहे हैं। सीएसई के अध्ययन के अनुसार कोई 1800 मिलियन लीटर जहरीला गंदा पानी प्रतिदिन यमुना में बहाया जाता है। विडंबना यह कि दिल्ली के हिस्से में यमुना का केवल 2 प्रतिषत भाग ही रहता है। जबकि दिल्ली यमुना को 71 प्रतिशत गंदा पानी देकर सबसे ज्यादा प्रदूषित करती है। यमुना दिल्ली के 93045 छोटे बड़े उद्योगों के कचड़ों को झेलती है।

यमुना को सबसे ज्यादा पीड़ा दिल्ली की मलिन बस्तियां पहुंचा रही हैं। खासतौर से वे जो इसके किनारे बसी हैं। दिल्ली में यूं तो कोई छह लाख झुग्गियां हैं जिनमें 30 लाख लोग रहते हैं, पर इनमें से तीन लाख लोग ठीक यमुना के किनारे बसे हैं। ये अपनी घरेलु गंदगी सीधे यमुना को भेंट चढ़ा देते हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रपट के अनुसार दिल्ली की 45 फीसदी घरेलु गंदगी बिना किसी उपचार के सीधे यमुना के हवाले कर दी जाती है।

उत्तर प्रदेष की राजधानी लखनऊ गोमती के किनारे बसी है। आदि गंगा कही जाने वाली गोमती भी प्रदूषण की मार को झेल रही है। पीलीभीत जनपद के माधोटाण्डा ग्राम के गोमत ताल से निकलकर लगभग 960 किमी प्रवाह के बाद गाजीपुर जिले के औडियार नामक गांव के पास गंगा नदी में मिल जाती है। अपने इस लम्बे प्रवाह के दौरान नदी षाहजहांपुर, सीतापुर, हरदोई, बाराबंकी, सुल्तानपुर, जौनपुर, होती हुयी प्रवाहित होती है। कथना, सरायन, सई एवं रेठ आदि इसकी सहायक नदियां है। गोमती नदी के जल का प्रयोग लगभग सभी प्रयोजनों हेतु किया जाता है जिसमें मुख्य रूप से पीने हेतु, सिंचाई हेतु, औद्योगिक प्रयोजनों हेतु तथा मत्स्य पालन आदि है।

उद्योगों का कचरा और घरेलु गंदा जल, प्रदूषण का मुख्य कारण है। खेतों से सिंचाई के बाद निकला पानी तथा भूमि का कटाव भी जल की आवशयकता और वास्तविक खपत में बहुत अंतर होता है। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है उसके मात्र 20 प्रतिषत का ही खपत हो पाता है और षेष 80 प्रतिशत भाग सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। इसे ही अपशिष्ट जल या मल-जल कहा जाता है और गोमती नदी में मिलकर उसे प्रदूषित करता है। देष की अन्य नदियों की तरह गोमती नदी में प्रदूषण का मुख्य कारण औद्योगिक निस्त्राव नहीं है। उद्योग धंधे तो केवल 20 प्रतिशत प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं। षेष 80 प्रतिशत मल-जल और शहरी कचरे के कारण होता है। शहरी कचरे या मल जल में मुख्य रूप से कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो पानी में मिलने पर आक्सीकृत होते हैं। इस आक्सीकरण क्रिया में आक्सीजन की बड़ी मात्रा में खपत होती है। चूंकि पानी में घुलित आक्सीजन की मात्रा सीमित होती है अतः पानी आक्सीजन विहीन हो जाता है तथा उसमें रहने वाले जीव जन्तुओं को जीना दूभर हो जाता है। मल-जल में कार्बनिक पदार्थों के अलावा सूक्ष्म जीव भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हें, जिनमें कुछ रोगाणु भी होते हैं। इन रोगाणुओं की उपस्थिति में यह पानी उपयोग लायक नहीं रह जाता है। कई बार लोग अनभिज्ञता के कारण ऐसे पानी का उपयोग कर लेते हैं एवं रोग ग्रस्त हो जाते हैं। कई बार तो यह महामारी का रूप भी ले लेता है। एक तरफ नदियों का अत्यधिक उपयोग दूसरी तरफ अनुपचारित मल-जल के निर्बाध गति से नदी में मिलने के कारण प्रदूषण की समस्या जटिल हो गयी है।

हरित क्रांति से कृषि उत्पादन तो बढ़ाया है परन्तु कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों की तथा रासायनिक पदार्थों का उपयोग भी बढ़ा है। कीटनाशकों के अधिक व अनुचित प्रयोग के कारण भी जल प्रदूषित हो रहा है क्योंकि रासायनिक कारखानों का अविशष्ट नदियों में प्रवाहित कर नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है। जल में क्रमशः रासायनिक प्रदूषण बढ़ रहा है। जल में डिटरजेन्ट, साल्वेन्ट, साइनाइड, हैवीमेटल, कार्बनिक रसायन, ब्लीचिंग पदार्थ, डाई तथा अनेक प्रकार के रसायन मिलते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक होते हैं। गंगा दुनिया की दस बड़ी और प्रमुख नदियों में से एक है। रिपोर्ट के अनुसार यह नदी कोई 50 करोड़ लोगों को पेयजल, खाद्य, वनस्पति और हराभरा वातावरण देती है सन् 2030 के बाद धीरे-धीरे इन सबका क्षय होने लगेगा। रिपोर्ट में व्यक्त की गई अंशकाओं पर यकीन करें तो आने वाले वर्षों में भारत को अन्न-जल के संकट से जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए।

देश में नदी प्रदूषण की समस्या कोई नयी नहीं है और न ही यह बात सरकार अथवा जनसाधारण से छिपी है। नदी जल प्रदूषण निवारण के नाम पर अब तक कई योजनाएं बनी हैं, करोड़ों रूपये भी खर्च हो चुके हैं परन्तु नदियों का प्रदूषण अभी तक दूर नहीं किया जा सका है। गंगा, जमुना, गोमती, कावेरी, नर्मदा, चेलियार, साबरमती, हुगली, पेरियार, दामोदर आदि अधिकांश नदियां आज भी प्रदूषित हैं और प्रदूषण लगातार गहराता जा रहा है। पिछले दिनों इस सम्बन्ध में सामने आई वैज्ञानिको की रिपोर्ट देखकर यही लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब गंगा और यमुना की स्थिति आस्टेªलिया की हडसन नदी जैसी ही हो जाएगी जिसके दोनों किनारों पर वहां की सरकार ने बोर्ड लगाकर यह चेतावनी लिखी है कि ‘पानी जहरीला है, इसे न छुएं।’ उस पानी से बचने के लिए नदी के किनारों पर बाढ़ लगानी पड़ी है। हमारे यहां नदी जल प्रदूषण की भयावह स्थिति होने के बावजूद इसका कोई तत्काल समाधान नहीं दीख रहा है। इस मामले में सरकारी कार्य प्रणाली महज औपचारिकता ही दर्शाती है।


Thursday, November 26, 2009

कैसे मिलेगा जल

कैसे मिलेगा जल

63वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन को प्रधानमंत्री ने पूरी तरह देश  की समस्याओं के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रखा। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण व उससे जुड़े अन्य मुद्दों पर अपनी चिंता जताई और देशवासियों से जल बचाने का आहवान किया। देश में जल स्त्रोतों के प्रदूषण और पीने के पानी की कमी पर प्रधानमंत्री की चिंता जायज भी है। सरकारी आंकड़ों की माने तो देष में ‘जल प्रदूषण संकट’ से जूझ रहा हैं। हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की आधी आबादी के पास पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है। नदियां प्रदूषण का शिकार हैं, भूमिगत जल के मीठे स्त्रोत प्रदूषित हो रहे हैं, जल स्तर तेजी से गिर रहा है। मौजूदा हालातों में यह समझ पाना मुशकिल है कि सरकार कैसे देशवासियो  को पीने व अन्य कार्यो के लिए जल उपलब्ध करवा पाएगी।

पृथ्वी का दो-तिहाई से भी अधिक भाग पानी से युक्त है जहां हिम पर्वत, सागर तथा महासागरों में अथाह जलराशी विद्यमान है लेकिन इस जलराशी का मात्र 2 प्रतिशत  अंश ही जीवनदायी है। षेष पानी खारा अथवा अन्य कारणों से उपयोगी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘‘ यदि विशव  के कुल जल को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें शुद्ध एवं पेयजल मात्र आधा चम्मच के बराबर है तथा धरती की ऊपरी सतह पर महज बूंद भर पानी है, शेष  भूमिगत है।‘‘ केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत में विभिन्न क्षेत्रों की जल आवश्कता 750 अरब घन मीटर है जो सन 2025 तक 1050 अरब घन मीटर हो जाएगी जबकि हमारे पास 500 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध करवाने की क्षमता भी नहीं है। परिणामस्वरूप सिंचाई, घरेलू उपयोग तथा अन्य कार्यो के लिए निरन्तर पानी की किल्लत बनी रहती है। प्रति वर्ष की प्रचंड गर्मी से तपते भारतीय भू-भाग मे अपैल से जुलाई माह तक पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है। भारत में पानी का तीन चैथाई मानसून पर ही निर्भर है। वस्तुतः पानी की समस्या इसकी कमी, दुरूपयोग तथा कुप्रबंधन से जुड़ी हुई है। भारत में बढ़ती हुई जनसंख्या, सिंचाई क्षेत्र के विस्तार के साथ-साथ आम व्यक्ति एवं प्रषासनिक लापरवाहियों के कारण पानी की अनावश्वक तथा कृत्रिम किल्लत भी उत्पन्न हो जाती है। सन 1947 को भारत की जनसंख्या महज 36 करोड़ थी जो आज सवा अरब का आंकड़ा छू रही है। जनसंख्या में स्वतंत्रता के पश्चात  ढाई गुना से अधिक वृद्धि हुई है जबकि जलस्रोत यथावत है बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो जल स्रोत घट गए है।

औद्योगिक इकाइयां वायु में तो धुएं का जहर घोलती ही हैं, उनके अपशिष्ट  जब पानी में बहा दिये जाते हैं तो पानी का भी शीलभंग  हो जाता है। नगरपालिका व नगरपरिषद क्षेत्रों का समूचा कूड़ा-करकट, गंदा पानी और कीचड़ भी अंततः नदियों के पानी में ही मिलता है। नदियां और अन्य जल प्रवाह धीरे-धीरे प्रदूषित होते चले जा रहे हैं। शहरों में औद्योगिक इकाइयों का कचरा, रासायनिक द्रव्य, पेस्टीसाइड्स, दूषित जल आदि भूमिगत नालियों के जरिए समीप की नदियो में बहा दिए जाते है। नदी के उस पानी को ज्यादातर शहरों मे शुद्ध करके पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है। किन्तु चाहे इस पानी को कितना भी शुद्ध कर  पीने के उपयोग मे लाया जाए, फिर भी कुछ प्रतिशत तो वह प्रदूषित रह ही जाता है। ऐसे जल का उपयोग करने से अनेक रोग व बीमारियां होने लगती हैं। यहीं पानी खेती के काम में लिया जाता है तो फसलों को नुकसान होता है। नदियों में रहने वाले जीव-जन्तुओं के लिए भी यह दूषित पानी नुकसानदेह है। एक अनुमान के मुताबिक विभिन्न प्रकार की औद्योगिक इकाइयों द्वारा दामोदर घाटी में प्रतिदिन लगभग 50 बिलयन प्रदूषित कचरा प्रवाहित किया जाता है। जो घाटी को बहुत ज्यादा प्रभावित करता है। धार्मिक अंधविश्वास भी नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक हैं।

सरकार ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना 1995 में प्रारम्भ की, जिसमें केवल गंगा नदी ही नहीं बल्कि यमुना, दामोदर और गोमती प्रदूषण विमुक्त करने की व्यवस्था रखी गई है। लेकिन सरकारी बेरूखी, लाल फीताशाही, भ्रष्टाचार, व जनता की अज्ञानता की वजह से योजना प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाई। गंगा एक्षन प्लान और यमुना एक्शन  प्लान पर करोड़ों खर्च करने के बाद भी स्थिति यथावत है प्रतिदिन करोड़ों टन गंदगी, कूड़ा-करकट बिना किसी उपचार के इन नदियों में धकेल दिया जाता है। देष की लगभग सभी जीवनदायिनी नदियां गंदे, काले व जहरीले नालों में तब्दील हो रही है। इन नदियों के किनारे बसे गांव, नगर व महानगरों में जल के अन्य स्त्रोत भी दूषित हो रहे हैं। देश में अनियमित मानसून के कारण भूमिगत जल स्त्रोत सूख रहे हैं या फिर जल स्तर काफी नीचे होता जा रहा है। राजधानी दिल्ली हो या फिर मध्यप्रदेश का कोई मोहल्ला कमोबेश पूरे देश में एक से हालात हैं।

देष के उत्तर पश्चमी राज्यों में लगातार भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। यह बात ‘नेचर’ पत्रिका ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर कही है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने उपग्रहों के जरिए किए गए अध्ययन में बताया है कि देष के उत्तर पश्चमी राज्यों में भूजल के स्तर में 4 सेमी0 प्रतिवर्ष की कमी आ रही है। इन क्षेत्रों में पंजाब और हरियाणा आते हैं जहां कभी हरित क्रांति हुई थी। वैसे हरित क्रांति के दौरान दलहनों को नजरअंदाज करना भी मौजूदा भूजल समस्या का बड़ी वजह है। यही हाल रहा तो भविष्य में पीने के पानी और खाद्यान्न का संकट गहरा जाएगा। केंद्र सरकार द्वारा 1970 और 1992 में लाए गए माडल ग्राउंड वाटर बिल का तब तक कोई मतलब नहीं निकलता जब तक उस पर अमल नहीं किया जाए।

भारत के शहरों का आकार बढ़ता जा रहा है। आज विश्व में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चैथा स्थान है। अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग 35 करोड़ लोगों ने रहना शुरू कर दिया है। कहां से आएंगे इनके लिए आवास और परिवहन के इतने साधन ? कहां से ला पाएंगे हम प्रचुर मात्रा में पेयजल ? देश में छोटे-मोटे शहरों की संख्या 4,700 है। इनमें से केवल 2,500 कस्बों  एवं शहरों में पेयजल की सही व्यवस्था है। सन् 1947 में भारत में प्रति व्यक्ति सालाना पानी की उपलब्धता 6,000 घनमीटर थी। 1947 में घटकर यह 2,300 घनमीटर हो गई। अगर यही गति रही तो 2017 तक यह मात्रा प्रति व्यक्ति घटकर मात्र 1600 घनमीटर ही रह जाएगी। भू-गर्भ से लगातार पानी निकाले जाने के कारण देष के कई हिस्सों में परिस्थिकीय असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। बढ़ते प्रदूषण ने नगरवासियो से शुद्ध वायु व जल छीनकर उन्हें नई-नई असाध्य बीमारियों की ओर धकेल दिया है।

परीक्षणों से पता चला है कि पिछले एक दषक में हर साल एक से पांच फुट तक जलस्तर नीचे की ओर खिसकता जा रहा है। भूमि में निरन्तर गिर रहे जल स्तर में वृद्वि के लिए केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड एक व्यापक योजना तैयार करने पर विचार कर रहा है। भूमि में लगातार गिर रहे जलस्तर का मुख्य कारण भूमि के अंदर के जल का अत्यधिक दोहन हे। शहरों में बन रही नयी नयी कालोनियों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में फैल रहे पम्पसेटों एवं नलकूपों के कारण भूमि के जल का दोहन बढ़ता जा रहा है जिससे जलस्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। इससे ष्षहरी क्षेत्र तो प्रभावित होगा ही कृषि के लिए तो भयावह संकट उत्पन्न हो जायेगा। राष्ट्रीय भूमि जल अधिवेशन 2007 में जाने माने कृषि वैज्ञानिक और सांसद एम0एस0 स्वामीनाथन ने कहा कि भूजल हमारी 80 से 90 फीसदी पेयजल की जरूरत पूरी करता है। सिंचाई में उसका योगदान लगभग 70 फीसदी का है। तरह-तरह के प्रदूषण से भूजल की गुणवत्ता खराब हो रही है, यह भी हमारे लिए चिंता का विषय है। भूजल स्तर नीचे जा रहा है, क्योंकि उसका लगातार दोहन हो रहा है।

गौरतलब है कि देष के लगभग हर राज्य में शुद्ध पेयजल का संकट है। पहाड़ी और रेगिस्तानी इलाकों में तो जीवन और पानी के बीच संघर्ष सा चल रहा है। यहां लोगों को पानी के लिए मीलों भटकना पड़ता है। गर्मियों में हालात और भी खराब हो जाते हैं। देष के बहुत से राज्यों में पानी के बंटवारे को लेकर विवाद और तनातनी है। पानी के मामले में उत्तर प्रदेष की स्थिति सबसे बुरी है। विडम्बना यह है कि समस्या के समाधान के नाम पर हजारों, करोड़ों रूप्ये खर्च करने के बावजूद हालात जस के तस हैं, बल्कि और भी खराब हो गए हैं। ऐसा लगता है कि पेयजल संकट से छुटकारे के लिए बनी तमाम योजनाएं कागज पर ही षुरू और मुकम्मल होती रही है। वर्ना यह कैसे मुमकिन है कि हर योजना के बाद संकटग्रस्त बस्तियों की तादाद घटने के बजाए बढ़ती ही गयी है।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जल प्रदूषण से निपटने व जल स्त्रोतों को बचाने के लिए उल्लेखनीय कार्य किए गए हैं परन्तु अभी भी इनमें गत्यात्मकता लाना वांछित है। इतना होने के बावजूद भी जल प्रदूषण की समस्या दिन प्रतिदिन गम्भीर, जटिल और विशव्व्यापी होती जा रही है। यद्यपि विश्व के सभी देश जल प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए प्रयासरत हैं, फिर भी औद्योगिक विकास, नागरीकरण, वनों का विनाश और जनसंख्या में अतिशय वृद्वि होने के कारण यह समस्या निरन्तर गंभीर होती जा रही है। और अगर समय रहते संभला नहीं गया तो इस धरती पर तीसरा विशव्  युद्व जल व जल के अधिकार के लिए ही होगा।

Wednesday, November 25, 2009

जल ही जीवन है


आदमी तो आदमी.......जनाब अब तो जानवरों को भी पता चल चुका है कि.........पीने को शुद्ध जल नहीं बचा है। क्या करें प्यास तो बुझानी ही है.........चलो मिनरल वाटर से ही काम चलाया जाए..............

Tuesday, November 24, 2009

परियोजनाओं ने रोकी गंगा की गति

परियोजनाओं ने रोकी गंगा की गति

आज से लगभग 100 साल पहले अंग्रेजो ने हरिद्वार में बैराज बनाकर गंगा को बांधना चाहा था। लेकिन पंडित मदनमोहन मानवीय ने इस तर्क के साथ वहां डेरा जमा दिया कि बंधे हुए जल में हिन्दुओं के श्राद्ध और तर्पण नहीं हो सकते। भारी जनविरोध के कारण अंग्रेजो को वह योजना रद्द करनी पड़ी थी। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु के समय अपने शिष्य  जस्टिस कैलाषनाथ काटजू से कहा था, ‘मुझे आशंका है कि मेरे बाद गंगा को फिर से बांधा जाएगा।‘ अंग्रेज तो वह साहस नही कर पाए, लेकिन मालवीय जी की आशंका  स्वतंत्र भारत में सही साबित हुई। जब देश  और प्रदेशो  में हमारी ही सरकारें थीं। गंगा के प्रति हिंदुओं की आस्था एक विषय है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि गंगा पर सिर्फ हिंदुओं का ही एकाधिकार हो। वह हम सभी भारतवंषियों के लिए प्रेरक भी है और प्रेरणा भी। पुण्यसलिला गंगा की सतत प्रवाही पीयूषधारा भारतीय संस्कृति का प्रत्यक्ष आधार एवं जीवन्त प्रेरणा का अजस्त्र स्त्रोत रही हैं। लेकिन चंद स्वार्थो की पूर्ति के लिए आज गंगा का अमर प्रवाह रोका जा रहा है उसे सुरंगों में कैद किया जा रहा है। वह भी विकास के नाम पर।

ऊर्जा उत्पादन के लिए गंगा को गंगोत्री से उत्तरकाषी के बीच कई जगह सुरंगें से गुजारे जाने के विरोध में पर्यावरणविद जेडी अग्रवाल जोर-षोर से आवाजा उठा चुके हैं। टिहरी में भागीरथी पर बने एषिया के सबसे ऊंचे बांध के अलावा अब गंगोत्री से उत्तरकाषी तक गंगा और उसकी सहायक नदियों पर सात बांध बनाए जा रहे हैं। इसके अलावा देवप्रयाग से ऊपर 20 और बांध बनाए जा रहे हैं। योजना के मुताबिक इन परियोजनाओं में गंगा को 15 किलोमीटर से अधिक लंबी सुरंगों के आप्राकृतिक मार्ग से गुजरना होगा। उत्तराखण्ड सरकार ने कमरोली, (140 मेगावाट, जाड़गंगा, उत्तकाषी) गोहना ताल (60 मेगावाट, विरहीगंगा, चमोली) जाड़गंगा (जाड़गंगा, उत्तकाषी), मलेरी झेलम, (55 मेगावाट, धौलीगंगा, चमोली) झेलम तमक (60 मेगावाट, धौलीगंगा, चमोली) बोकांग बालिंग (330 मेगावाट, धौलीगंगा पिथौरागढ़) परियोजनाओं को विकास के लिए टिहरी जल विकास निगम को सौंपा है। उत्तराखंड की 14 नदी घाटियों में 230 सुरंग बांधों से नदी काा अस्तित्व ही संकट में है।

उत्तरकाशी  में गंगा को उसके उद्गम से ही सुरंगो में डालने की परियोजनाएं प्रस्तावित तथा निर्माणाधीन है। गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर ऊपरी क्षेत्र में चलने वाली पनबिजली परियोजनाओं से स्थानीय जल स्त्रोत सूख गए हैं। इससे गंगा के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है। गंगा को रोककर सुरंगों में कैद किया जा रहा है। 90 मेगावाट वाली पाला मनेरी परियोजना के पहले चरण के लिए गंगा को मनेरी में 14 किलोमीटर लम्बी सुरंग में कैद कर दिया है। जबकि मनेरी परियोजना के कारण वह पहले ही पंद्रह किलोमीटर तक अपने स्वाभाविक पथ को छोड़कर सुरंग में बहने को अभिषप्त है। इसका द्वितीय चरण भी पूरा हो चुका है। भैरों घाटी से ऐसी सुरंग का सिलसिला षुरू होता है। 600 मेगावाट की लोहारी नागपाला व 480 मेगावाट की पाला मनेरी जल विद्युत परियोजना निर्माणधीन हैं। भैरोंघाट प्रथम व द्वितीय पर काम षुरू होने की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। ऐसा लगता है कि इस पर्वतीय राज्य की पनबिजली परियोजनाओं से गंगा का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। पर्यावरण प्रेमियों की मांग है कि सरकार 90 मेगावाट वाली मनेरी भाली परियोजना के गेट खोल दे और लोहारी नागपाला व पालामनेरी परियोजनाओं का निर्माण रद्द करें। भैरोंघाटी और पाला मनेरी जलविद्युत योजनाओं को रोकने का आष्वासन सराकर ने प्रसिद्व पर्यावरणविद्व प्रो0 गुरूदास अग्रवाल को दिया था लेकिन सरकार ने वादाखिलाफी की और काम बदस्तूर जारी है।

बांध बनाने से जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। यहीं नहीं बांधों के कारण कई प्रकार की मछलियों का अस्तित्व भी संकटमय जो जता है जो अपने प्राकृत आवास से हजारों मील दूर जाकर प्रजनन करती हैं। उत्तराखंड में पाई जाने वाली महाषीर मछली भी इस समय संकटापन्न है। जिला मत्स्य अधिकारी ने बताया कि गंगा पर बांध बनने से रूके पानी से महषीर जैसी मछली की ब्रिडिंग व फीडिंग प्रभावित हो सकती है। उन्होंने बताया कि रूके पानी में प्रायः आक्सीजन की मात्रा कम होकर पानी का तापमान बढ़ जाता है। आस्ट्रिया के प्रसिद्ध जल विज्ञानी विक्टर षाबर्गर ने अपने प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिखाया था कि पहाड़ों से टकराकर सर्पाकार गति से घूम-घूमकर बहने वाली नदी अपने को षुद्ध करती चलती है, लेकिन बांधे जाने से उसकी यह षक्ति समाप्त हो जाती है। गंगा से कई तरह की अप्राकृतिक छेड़छाड़ करके हमने असल में उसका अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। प्रसिद्व ग्लशिएर विज्ञानी प्रो0 एम हसनैन करीब दस साल पहले ही कह चुके हैं कि तापनमान बढ़ने तथा पर्यटकों की अपार भीड़ के कारण गोमुख ग्लेषियर सिमट रहा है और यदि यही गति रही तो अगले 25 वर्ष में गंगा का मूल स्वरूप ही मिट जाएगा।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है कि गंगा जल मे ऐसे प्राकृतिक तत्व मिश्रित होते हैं, जो उसे हमेषा षुद्ध बनाए रखते हैं। आप क्या सोचते हैं कि बांधो तथा सुरंगो में बांधे जाने के बाद भी गंगा जल का यह गुण विद्यमान रह पाएगा? नदियों के साथ हमारा यह जो दुव्र्यवहार है, असल में पष्चिमी सभ्यता की देन है। हमने बिजली पैदा करने के लिए पाष्चात्य ढांचे की नकल की। निस्संदेह, बिजली विज्ञान की एक श्रेष्ठ उपलब्धि है। लेकिन उसका उत्पादन निरापद भी होना चाहिए। नदियों को बांधने और तोड़ने-मरोड़ने के अतिरेक में पूर्व सोवियत संघ अपना एक समुद्र अराला सागर (अरब नहीं) ही सुखा चुका है। चीन ने भी अपनी पीली नदी का अब यह हश्र कर दिया है कि वह साल में तीन सौ दिन तक समुद्र का मुंह नहीं देख पाती। नदी की स्वाभाविक गति बांधों व सुरंगो में नहीं, बल्कि समुद्र में विसर्जित होने की है, ताकि वह बादलों के रूप में पुनर्जन्म लेकर फिर से धरती को ष्यामल और सजल बना सके। नदी से नहरें निकलना लोक मंगल का एक उपक्रम है, लेकिन समूची नदी को नहर में बदल देना अनिष्ट का द्योतक हैं। आखिर गंगा को मीलों तक सुरंग में डालकर हम उसे नहर में ही तो बदल रहे हैं।

देष के दूसरे क्षेत्रों में जो भी प्रमुख पनबिजली परियोजनाओं से सम्बन्धित जलाषयों का जलस्तर लगातार गिर रहा है। वर्तमान में देष में 4300 बड़े बंाध हैं। केन्द्रीय जलविद्युत् आयोग के अनुसार इस वर्ष गर्मी के मौसम में देष के 76 प्रमुख जलाषयों मे से अधिकांष में जलस्तर पिछले वर्ष की तुलना में कम है। अगले वर्ष इनमें और कमी की सम्भावना है। कम जलस्तर के कारण इन संयंत्रों में कुछ संयंत्र क्षमता से आधी या कहीं-कहीं इससे भी कम बिजली बना रहे है, उदाहरण के लिए, पंजाब में भाखड़ा जलाषय का निर्धारित जलस्तर 513 मीटर है। लेकिन इस समय इसका जलस्तर मात्र 436 मीटर ही है। फलतः जहां भांखड़ा संयंत्र से 2990 मिलियन यूनिट बिजली बननी चाहिए, वहां केवल 21.21 मिलियन यूनिट ही बिजली बन रही है, यही स्थिति देश की सभी जलविद्युत परियोजनाओं की है। ग्लोबल वार्मिंग से उपजी चुनौतियों ने जलविद्युत परियोजनाओं पर प्रष्नचिन्ह लगा दिया है, उत्तराखण्ड में हजारों करोड़ खर्च करके जो जलविद्युत परियोजनाएं लगाई जा रही हैं, वे कितने वर्षों तक बिजली पैदा कर पाएगी, यह किसी को नहीं पता, क्योंकि बहुत शीघ्र ही ऐसी स्थिति आ सकती है, जब इन परियोजनाओं को पानी नहीं मिल पाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक नवीन अध्ययन के अनुसार अगले कुछ दषकों में हिमाचल क्षेत्र के सारे ग्लेषियर पिघल जाएंगे, जिससे सारी नदियां सूख जाएंगी, ऐसी स्थिति में, इन परियोजनाओं पर खर्च किए गए खरबों रूपए डूब जाएंगे, भारत में अधिकांष जलविद्युत परियोजनाएं हिमाचल क्षेत्र की नदियों पर ही बनाई जा रही है।

नदियों को बांधों में कैद करने के सवाल पर लंबे समय से बहस जारी है। दरअसल, विद्युत परियोजनाएं नेताओं, इंजीनियरों तथा अफसरों की एक चारागाह होती है। यह समय चेतने का है। देश के पूरे हिमालय क्षेत्र में अभी चार सौ से अधिक बांध, बैराज तथा सुरंगे प्रस्तावित हैं। विष्व के इस सबसे नए तथा नाजुक पर्वत को खोदना आत्मघाती होगा। उत्तराखण्ड को बांधो से पाटने की बजाय, उसे पेड़ों का कवच पहनाया जाना चाहिए, ताकि गंगा का प्रवाह संतुलित रहे। वहीं सरकार को पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि अन्य विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विडम्बना तो यह है कि बांध के पुजारियों के गले यह वैज्ञानिक तथ्य नहीं उतरता कि भारत के बड़े बांध ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं और पर्यावरण के लिए भीषण खतरा हैं। गंगा मात्र राष्ट्रीय नदी नहीं अपितु हमारी आस्था, निष्ठा एवं श्रद्वा का दिव्य प्रवाह हैं। और भारतीय संस्कृति का प्राण हैं। और इस प्राणधारा को बचाना हम सबका कर्तव्य है।

जब कचरे की लूट होगी

...........जब कचरे की लूट होगी
शीर्षक पढ़कर आपको लग रहा होगा कि क्या कहा व लिखा जा रहा है। और हकीकत भी यही है कि कचरे की लूट होगी इस बात को पचा पाना आज तारीख में कोई आसान बात नही है। लेकिन जिस तादाद में देष में कचरे के ढेर बढ़ते जा रहे हैं उसी के समांतार कचरे से निपटने के लिए भी उपाय भी सोचे जा रहे है। कचरा प्रबंधन वर्तमान में सबसे अधिक चिंता व शोध का विषय है। दुनिया भर के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी कचरा प्रबंधन के विभिन्न उपाय ढूंढने में व्यस्त है। कचरा प्रबंधन की कोई सुदृढ़ योजना फिलहाल हमारे पास नहीं है अभी इस संबंध में हो रहे शोध भी अपने प्रांरभिक चरण में है। बाजार में उपलब्ध विदेशी  व देशी तकनीकों को अपना कुछ छोटे मोटे नुस्खे अमल में भी लाए जा रहे हैं। जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं जिससे भविष्य के लिए संभावनाएं जगती हैं। जिस तेजी इस दिशा में शोध  हो रहा है उससे तो ऐसा ही लगता है कि आने वाले समय में हमारे हाथों में कचरे के विशाल अंबार से निपटने का सालिड फार्मूला होगा। और जब हम कचरे को सही उपयोग करना सीख जाएंगे या हमें ये पता चल जाएगा कि हम जिस चीज को बेकार व कूड़ा समझ कर यूं ही फेंक  रहे है उसकी बाजार में कमर्शिअल वैल्यु है उस दिन हम घर से बाहर कचरा फेंकने से पहले एक बार जरूर सोचेंगे और अगर किसी को कचरे दे गए भी तो उसके बदले पैसा वसूलना नहीं भूलेंगे। आज ये बात मजाक लग सकती है लेकिन वो समय भी बहुत जल्द आने वाला है जब देष में सोने चांदी की जगह कचरे की लूट होगी और कचरे बहुमूल्य समझा जाएगा।

नोएडा स्थित ईकोवेस्ट मैनेजमेण्ट कम्पनी नोएडा में करीब 18 हजार घरों की गंदगी समेटती है। एकत्र किए गए कचरे को खाद में तब्दील करके उसे खुले बाजार में बेचकर कमाई करती है। घरों की गंदगी के अलावा अब उनके क्लाइंटस में कुछ व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को कूड़ा करकट भी षामिल हो गया है। ईकोवेस्ट के जनक व प्रबंध निदेषक मानिक थापर बताते हैं कि सेंटर स्टेज माल और हल्दीराम के अलावा हम कुछ छोटे छोटे रेस्टोरेंट का कूड़ा भी जमा करते हैं। कमर्षियल वेस्ट के अलावा जल्द ही हम बायो मेडिकल वेस्ट की तरफ जाएंगे। इस दिषा में असम में कुछ काम आगे बढ़ा है। लेकिन नोएडा में पिछले कुछ दिनों में उन घरों की तादाद कम हुई है जहां से ईकोवाइस वेस्ट कंपनी गार्बेज इकटठा करती थी। थापर इसकी एक दिलचस्प वजह बताते हैं, ‘लोगों ने कूड़ा उठाने के लिए हमसे ही पैसे मांगने षुरू कर दिए थे। इसलिए हमने कुछ घर छोड़ दिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि काम थम गया है। अब हमारी कमर्षियल लिस्ट बढ़ती जा रही है। विस्तार के नए मोर्चे खुल रहे हैं। थापर के काम से प्रभावित होकर दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना ने उन्हें एमसीडी की साॅलिड वेस्ट मैनेजमेंट कमेटी का सलाहकार बनाया है। थापर के मुताबिक दिल्ली में गार्बेज मैनेजमंेट की खातिर कुछ प्रोजेक्ट पाइप लाइन में हैं जिन पर जल्द कुछ फाइनल होने वाला है। ईकोवेस्ट कंपनी आने वाले समय में आगरा, जयपुर और केरल में भी यही काम करने वाली है। ईकोवेस्ट के अलावा कुछ समाजसेवी संस्थाएं व अन्य कंपनिया भी कूड़े से खाद बनाने का काम नोएडा व आसपास के इलाकों मे कर रही है।

घरो में हमेषा बेकार समझे जाने वाले सब्जियों के छिलके व फल-पत्तियों का भी अब कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है। इन अपषिष्ट पदार्थों से घरेलु गैस बनायी जा सकती है। इस दिषा में लखनऊ यूनिवेर्सिटी के अक्षय ऊर्जा पाठयक्रम की छात्रा ने शोध कर गतिषील बायोगैस संयंत्र बनाया है, जिसे कुछ समय बाद बाजार में उतारने की तैयारी चल रही है। पाठय्क्रम की समन्वयक डा0 ऊषा वाजपेयी के मुताबिक घरेलु अपषिष्ट को बाये गैस संयंत्र में डालने पर उसमें एनारोविक बैक्टीरिया उत्पन्न होते हैं। इससे मीथेन गैस का निर्माण होता हे। उन्होंने इस गैस के निर्माण में किसी भी तरह के नुकसान व दुर्गन्ध की आशंका  से इनकार किया है।

प्लास्टिक कचरा पर्यावरण को प्रदूषित करने में सबसे ज्यादा खतरनाक माना जाता है, किंतु चेन्नई स्थित तेलाम्मल इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों ने कुछ विषिष्ट रासायनिक प्रक्रियाओं के बाद प्लास्टिक कचरे से पेट्रोल प्राप्त करने का दावा किया है। उनके अनुसार जब प्लास्टिक के कचरे को 400 डिग्री सेन्टीग्रेट तक गर्म किया जाता है तो आसवन द्वारा उससे कच्चा माल यानी तेल प्राप्त होता है। उसी प्रकार नागपुर में रायसीना इंजीनियरिंग कालेज के रसायन विभाग में चमत्कारी सफलता प्राप्त हुई है। यहां के प्रयोगकत्र्ताओं ने एक किलो प्लास्टिक कचरे से लगभग पौने लीटर पेट्रोल निकाल कर इंडियन आयल कारोपोरेषन के वैज्ञानिकों को सकते में डाल दिया। इसके लिए उन्होंने प्लास्टिक को कोयला और अब तक गुप्त रखे रासायनिक पदार्थ के साथ गर्म किया। इसी श्रृंखला में महाराष्ट्र सरकार और जड़गांवकर यूनिट, वेस्ट प्लास्टिक मैनजमेंट एण्ड रिसर्च कम्पनी द्वारा संयुक्त रूप से मुंबई और नागपुर में एक परियोजना की षुरूआत की गयी है जिसमें प्लास्टिक के कचरे से हाइड्रोकार्बन बनाया जायेगा।

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल में उत्तर प्रदेष की राजधानी लखनऊ में वर्ष 2003 मंे कचरे से बिजली बनाने का संयंत्र लगाया गया था। अपषिष्ट से विद्युत उत्पादन की इस परियोजना के अनुसार बूम (बिल्ड ओर आपरेट मेन्टेन) के आधार पर ठोस अपषिष्टों (कूड़े) से प्रतिदिन 5 मेगाावाट विद्युत उत्पादन व 135 टन बायोफर्टिलाइजर उत्पादित करने वाली इस परियोजना की स्थापना व संयंत्र संचालन के लिए नगर निगम ने एषिया बायो एनर्जी लिमिटेड से अनुबंध किया था लेकिन सरकारी कार्यावाहियों व प्रषासनिक फेर में पड़कर वाजपेयी जी की महत्वाकांक्षी योजना सफल नहीं हो पाई। अगर कूड़े से बिजली बनाने की योजना सफल हो जाती तो विद्युत उत्पादन एवं फर्टिलाइजलर से प्रतिवर्ष 60 लाख की आय होनी थी वहीं केन्द्र से भी प्रोत्साहन धनराषि के रूप में 75 लाख रूप्ये प्राप्त होते। एषिया बायोएनर्जी के योजना छोड़कर जाने के बाद अन्य निजी संस्थ आरसेल व मुम्बई की एक अन्य संस्था प्लांट टेक ओवर करने के लिए आगे आयी। नगर निगम से जैविक कूड़ा मुहैया न करा पाने पर उन्होंने भी इस योजना से अपने हाथ खींच लिये।

वर्तमान में लखनऊ व आगरा में कूड़े की समस्या से निजात पाने के लिए कम्पोस्ट खाद बनाने का कारखाना स्थापित किया जायेगा। षहरी विकास मंत्रालय ने लखनऊ व आगरा में ठोस अपषिष्ट प्रबंधन सालिड वेस्ट मैनेजमेंट के लिए तैयार की गयी 80.23 करोड़ की दो अलग अलग परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी है। लखनऊ के लिए 47.23 करोड़ रूपये व आगरा के लिए 33 करोड़ की परियोजना को मंजूरी मिली है। इसके तहत निजी कंपनी के कर्मचारी मोहल्ला एवं कालोनीवार कूड़ा एकत्र करेंगे और फिर उसे ढके हुए वाहनों के जरिये ले जायेंगे। गलियों से इकट्ठा होने वाले कूड़े को रखने के लिए भी दो तरह के बड़े कूड़ेदान चिन्हित स्थानों पर रख जायेंगे। जबकि गैर जैविक पदार्थों वाले कूड़े से निचली जमीन की पटाई की जायेगी। जवाहरलाल नेहरू नगरीय नवीकरण मिषन के तहत उक्त परियोजना मंजूर की गयी है। इसके मुताबिक कूड़ा उठाने से लेकर उसे निर्धारित स्थान पर ले जाने का काम चूंकि गैर सरकारी संस्था को सौंपा जा रहा है। इसलिए परियोजना के मुताबिक प्रत्येक गृह स्वामी की आय के हिसाब से पांच रूप्ये से लेकर पचास रूप्ये तक मासिक षुल्क वसूल किया जायेगा। लखनऊ में कम्पोस्ट बनाने का कारखाना हरदोई रोड पर बायोइनर्जी प्लांट के पास तथा आगरा में यह षाहदरा के नजदीक उपलब्ध जमीन पर स्थापित किया जायेगा। कूड़ा डम्पिंग ग्राउण्ड के लिए लखनऊ नगर निगम ने हरदोई रोड स्थित बरावनकलां गांव में 121 एकड़ जमीन को चिन्हित किया है।

गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोत मंत्रालय देष में कूड़े-कचरे से ऊर्जा उत्पादन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहा है। यह मंत्रालय प्रदर्षनियां लगाकर लोगों को जैव पदार्थों से ज्यादा से ज्यादा मात्रा में मीथेन बनाने की प्रक्रिया दिखाता है। इन प्रदर्षनियों का एक अन्य उद्देष्य विभिन्न प्रकार के कूड़े कचरे से ऊर्जा बनाने के लिए विविध प्रौद्योगिकियों का भी प्रदर्षन करना है जिससे बिजली का उत्पादन हो सके। पंजाब मंे लुधियाना के पास हीबोवाल स्थित कूड़े कचरे से ऊर्जा उत्पादन संयंत्र एक ऐसा ही प्रयोग है। वहंा पषुओं के गोबर से एक मेगावाट बिजली और जैविक खाद तैयार होता है। मंत्रालय द्वारा स्थापित इस संयंत्र को पंजाब ऊर्जा विकास एजेंसी चला रहा है। यह ढाई एकड़ मंे फैला हुआ है। इसके परिसर में 500 गोषालाएं प्रतिदिन 2500 टन गोबर इस संयंत्र को उपलब्ध कराती हैं। अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद बची हुई बिजली राज्य विद्युत ग्रिड को उपलब्ध करा दी जाती है। बिजली बनाने के अलावा संयंत्र प्रतिदिन 50 टन जैविक खाद भी तैयार करता है। 13 करोड़ रूपये की लागत से बना यह संयंत्र दिसंबर 2004 में षुरू किया गया था। राज्य विद्युत बोर्ड ने बिजली के जो षुल्क निर्धारित किया है उसके अनुसार यह संयंत्र आर्थिक रूप से उपयोगी सिद्व हुआ है। खाद के रूप् में गोबर के इस्तेमाल से यह आय भी अर्जित कर रहा है। इस संयंत्र का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे ग्रीन हाऊस गैस बहुत कम निकलती है। संयंत्र से ताप कम निकलने के कारण वातावरण गर्म नहीं होता। संयंत्र ने लगभग 100 लोगों को रोजगार दिया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रूड़की समय-समय पर संस्थान के कार्यों की निगरानी करता रहता है।

मध्य प्रदेष की सतपुड़ा पहाड़ियों में बसे कसई गांव में गैसीफायर और जेनरेटर लगाकर हर रोज 20 किलोवाट बिजली पैदा की जा रही है। घरों में ही नहीं, गली में, स्कूल में, आटा चक्की और ठंडे दूध गोदामों के लिए भी बिजली मिल रही है। पानी का पंप भी चलाया जा रहा है। यहां अपारंपरिक ऊर्जा मंत्रालय की मदद से 16 लाख रूपये मंे दो बायोमास गैसीफायर और एक सामुदायिक बायोगैस प्लांट लगाया गया है। हर परिवार से हर महीने 70 रूपये नकद और 50 रूपये की घास फूस और डंडियां, इस तरह 120 रूपये का अंषदान लिया गया। बायोमास गैसीफायर की क्षमता 10-10 किलोवाट की है। बिजली मिलने पर कसई गांव में दूरदर्षन और रेडियो का ज्ञानरंजन (इनफोटेनमंेट) लहराने लगा है। एक गांव की आवष्यकता 10 हैक्टेयर जमीन में उगी झाडियों और अन्य पौधोे तथा कृषि छीजन से पूरी की जा सकती है। अपने आप उग आनेवाले बेहया, आग, गाजर घास, जलकुंभी और अन्य खरपतवार इत्यादि सुखाकर बायोमास ऊर्जा के काम में लाये जा सकते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में 60 करोड़ टन कृषि छीजन पैदा होती है। इससे 79000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है। इस क्षेत्र में अब निजी कंपनियां भी आने लगी हैं। कर्नाटक के मांडिया जिले के 48 गांवों के 120000 परिवारों को बायोमास ऊर्जा से पैदा बिजली देना षुरू कर दिया गया है। इसका साढ़े चार मेगावाट का बिजलीघर बायोमास से बिजली बनाने का भारत का सबसे बड़ा संयंत्र है। आज भी 60 प्रतिषत देहाती घरों में रोषनी के लिए केरोसिन यानी मिट्टी का तेल जलाया जाता है। 18 करोड़ टन के करीब बायोमास (लकड़ी और टहनियां) चूल्हों में झोंक दिया जाता है। दोनों में धुआं पैदा करते हैं। हर साल दुनिया में घरों में होने वाले वायु प्रदूषण से लगभग 16 लाख मौतें होती हैं। बायोमास ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत विष्व को इस विडंबना से मुक्ति दिला सकते हैं।

विदेषों में कचरे के उपयोग से बड़े बड़े उ़द्योग लगाए जा रहे हैं। पुराने रबर, पानी की खाली बोतले, कांच, कागज, कपड़ा, प्लास्टिक, फल सब्जी के छिलके उपयेग में लाए जा रहे हैं। विदेषों में रबर के कचरे से निपटने के लिए रबर को गला कर रबर षीट को तैयार किया जाता है। और बाद में इसी रबर षीट से देष भर की सड़कों को लेमिनेट किया जाता है। हमारे देष में भी लाखांे करोड़ों दुपहिया व चार पहियों वाहनों की भरमार है। और रबर के पुराने टायरों का विषाल कचरा हमारे यहां उपलब्ध हैं और जिस दिन कंपनियां इस दिषा में काम करने लगेगी। उस दिन कचरे से कमाई तो होगी ही वहीं कचरे के प्रबंध भी मुफत हो जाएगा।

अभी हाल ही में दिल्ली में कूड़े प्रबंधन की जिम्मेदारी एससीडी ने प्राईवेट कंपनी को सौंपने का फेंसला लिया है। बड़ी कंपनियों के मैदान में आ जाने से कूड़ा बीनने वालों की रोजी रोटी का सवाल उठ खड़ा हुआ है। इसका सीधा असर राष्ट्रीय राजधानी में दो लाख कूड़ा बीनने वालों की जीविका पर पड़ेगा। कंपनियां कूड़ा प्रबंधन करेंगी जिससे इनका रोजगार छिन जाएगा। हैजार्ड सेन्टर के निदेषक डूनू राय ने बताया कि  में हर रोज करीब आठ हजार टन कूड़ा निकलता है जो वर्ष 2020 तक 20 या 22 हजार टन हो जाएगा। षहर के दो लाख कूड़ा बीनने वाले हर दिन लगभग 20 से 25 फीसदी तक गंदगी बटोर लेते हैं। लेकिन अगर निजी कंपनियां इस व्यवसाय में उतरती हैं तो इन गरीबों का क्या होगा? इनके लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था बाल विकास धरा के अध्यक्ष देवेन्द्र कुमार बराल ने नाराजगी जताते हुए कहा कि इन निर्बलों की मदद करने के बजाय निजी कंपनियां इनकी रोजी-रोटी छीनना चाहती हैं। दरअसल सवाल कूड़ा बीनने का नहीं है असलियत यह है कि कूड़ा अपने आप में कमाई व ऊर्जा का बड़ा स्त्रोत है। ये बात सरकार को भी समझ आ चुकी है इसलिए धीरे धीरे ही सही लगभग हर बड़े षहर में कचरा प्रबंधन के लिए प्राईवेट कंपनियों में होड़ मची है। कचरे में इन कंपनियों को भविष्य नजर आने लगा है।